याज्ञवल्क्य मुनि महाराज जब साधना में परिणित होने लगे तो उस समय यह विचारा कि तू साधना कर और भयंकर वन में मुझे तप करना है, साधना करनी है, मुझे अपने जीवन को परमात्मा के आनन्द में आनन्दित होना है तो मुझे क्या करना चाहिये?
लगभग उन्हें विचार विमर्श करते हुए दस दिवस हो गए और उसके पश्चात उन्हें यह विचार आया कि " मन को पवित्र बनाने का नाम तप है।"
अब मन को कैसे पवित्र बनाएं? यह मन क्या है? यह मन प्रकृति का सबसे सूक्ष्म तत्व कहलाया गया है।
ऋषि ने विचारा कि मन को पवित्र बनाने के लिए मन का जो सम्बन्ध है वह आहार (भोजन) से रहता है। उन्होंने उस अन्न को एकत्रित करना आरम्भ किया जिस अन्न को कृषक अपने गृह में ले जाते थे और जो खेतों में बिखरा हुआ अन्न रह जाता था उसको वे एकत्रित करते थे । उस अन्न पर किसी का अधिकार नही होता है। बारह वर्ष तक उन्होंने उस अन्न को पान अर्थात् सेवन किया उससे उनका मन पवित्र हो गया ।
मन तप गया, मन तपस्या में परिणित हो गया। ऐसा ऋषि मुनियों का जीवन होता था।
आज हमें भी यदि जीवन को महान् बनाना हैं। यदि जीवन को साधनामय बनाना है। तो हमें भी अपना जीवन ऋषि मुनियों के बताये मार्ग अनुसार चलना होगा। तभी हम अपने जीवन को सार्थक कर सकते है।
पूज्यपाद गुरुदेव ब्र. कृष्णदत्त जी महाराज के यौगिक प्रवचनों से।
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