इस संस्कार में वर- वधु यह प्रतिज्ञा करते हैं कि हमारा चित्त एक- सा हो। हममें किसी प्रकार का भेद- भावन हो। इस प्रकार उनका गृहस्थ जीवन सुख, शांति और समृद्धि पूर्ण होगा और कोई कलह न होगा औरउनकी संतान भी उत्तम होगी। विवाह का शाब्दिक अर्थ है वर का वधू को, उसके पिता के घर से अपने घर लेजाना। किंतु यह शब्द उस पूरे संस्कार का द्योतक है, जिससे यह कार्य संपन्न किया जाता था। इस संस्कारके बाद ही व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता था। प्राचीन भारतीय विद्वानों के अनुसार इस संस्कार के दोप्रमुख उद्देश्य थे। मनुष्य विवाह करके देवताओं के लिए यज्ञ करने का अधिकारी हो जाता था और पुत्रउत्पन्न कर सकता था। विवाह संस्कार के निम्नलिखित चरणों का उल्लेख ‘गृह्यसूत्रों’ में मिलता है :- पहले वर पक्ष के लोग कन्या के घर जाते थे। जब कन्या का पिता अपनी स्वीकृति दे देता था, तो वर यज्ञ करता था। विवाह के दिन प्रातः वधू को स्नान कराया जाता था। वधू के परिवार का पुरोहित यज्ञ करता था और चार या आठ विवाहित स्रियाँ नृत्य करती थीं। वर कन्या के घर जाकर उसे वस्र, दर्पण और उबटन देता था। कन्या औपचारिक रुप से वर को दी जाती थी। ( कन्यादान ) वर अपने दाहिने हाथ से वधू का दाहिना हाथ पकड़ता था। ( पाणिग्रहण ) पाषाण शिला पर पैर रखना। वर का वधू को अग्नि के चारों ओर प्रदक्षिणा कराना। ( अग्नि परिणयन ) खीलों का होम। ( लाजा- होम ) वर – वधू का साथ- साथ सात कदम चलना ( सप्त- पदी ), जिसका अभिप्राय था कि वे जीवन- भरमिलकर कार्य करेंगे।अंत में वर, वधू को अपने घर ले जाता था
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