अथर्ववेद के नाम और नामान्तरों के अर्थ
श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )-
Mystic Power – यदि ‘थर्व’ धातु से ‘अथर्व’ शब्द बनाया जाए तो अर्थ होगा ‘हिंसा अर्थात् विनाश आदि विघातक तत्त्वों से रक्षात्मक ज्ञान देने वाला।’ यदि अथ + अर्वन् इन दो शब्दों के योग से निष्पन्न माना जाए तो आत्मिक एवं शारीरिक तत्त्व का विज्ञानात्मक विवरण देने वाला ज्ञान निधि अर्थ अथर्ववेद के मन्त्रद्रष्टा ऋषि अथर्वण होने के कारण भी इस वेद को संज्ञा अथर्ववेद है।
निरुक्त (११।२।१७) तथा गोपथ ब्राह्मण (१/४) में निर्दिष्ट व्युत्पत्ति के अनुसार हिंसा तथा कुटिलता वाची ‘थर्व’ धातु से नञ् समास करने से निष्पन्न ‘अथर्व’ शब्द का अर्थ होगा ‘अहिंसा एवं अकुटिलता वृत्ति से चित्त की चञ्चल वृत्तियों का निरोध करने वाला।’ इस निष्पत्ति के समर्थक अनेक योग सम्बन्धी प्रसङ्ग इस वेद में है यथा “दोषोगांव” (६.१.१-३) “मूर्द्धानमस्य”(१०.२.२६-२८) ।
अथर्ववेद का सम्बन्ध प्रागैतिहासिक आख्यानोक्त ‘अथर्वन्’ और ‘अङ्गिरस’ (तथा बाद में भृगु भी) नामक अग्निहोत्री ऋषियों से रहा है।
इसी कारण इस वेद को ‘अथर्वाङ्गिरस‘ और ‘भृग्वङ्गिरस‘ और ‘अथर्ववेद’ पड़ा है। ‘अथर्वण’ और ‘अङ्गिरस’ का तात्पर्य उन अग्नि मन्त्रों से है जिनका उच्चारण अग्नि में सोम के अतिरिक्त अन्य पदार्थों की आहुति डालते समय किया जाता था ।
‘अथर्वाङ्गिरस’ यह नाम सर्वप्रथम अथर्ववेद को शौनकीय संहिता की प्राचीनतम हस्तलिखित प्रति के प्रारम्भ में मिलता है । अल्पाधिक रूप तथा व्युत्पत्तियाँ जो ‘अथर्वाङ्गिरसि श्रुतम्’ (महाभारत ३।३०५।२० =१७०६६), कुशल अथर्वाङ्गिरसे (याज्ञ० १।३१२), ‘कृत्याम् अथर्वाङ्गिरसीम’ (महाभारत ८|४०|३३ = १८४८), अथर्वङ्गिरसी श्रुती:’ (मनु० ११।३३), ‘अथर्वाङ्गिरसं तर्पयामि (बौधायन धर्मसूत्र (२।५।९।१४) इन रूपों में उपलब्ध होती है।
‘अथर्वन्’ और इससे व्युत्पन्न हुए शब्द सम्पूर्ण संस्कृत वाङ्मय में उत्तरोत्तर अधिक प्रयुक्त हुए हैं किन्तु ‘अङ्गिरस’ शब्द एक ही वैदिक अनुच्छेद चतुर्थवेद के अभिधान के रूप में प्रयुक्त हुआ है। अथर्वन् शब्द का तात्पर्य वेद के माङ्गलिक विधानों (भेषजान) से है और अङ्गिरस शब्द वेद की आभिचारिक क्रियाओं अर्थात् यातु (श० ब्रा० १०|५|२।२० ) या अभिचार को सूचित करता है, जो भयङ्कर और घोर है। अथर्ववेद के इन दो नामरूपों का चित्रण गोपथ ब्राह्मण (१।२।२१ और १।५।१०) में ऋषि यजूंषि समन शान्तोऽथ धोरे कहकर किया गया है।
गोपथ ब्राह्मण में अथर्वन् = शान्त के लिए प्रयुक्त है। ॐ और आङ्गिरस्= घोर के लिए प्रयुक्त है । ‘जनत् इस व्याहृति का प्रयोग है। अथर्ववेदीय याज्ञिक अनुष्ठानों (वैतान सूत्र ५।१०; गोप ब्रा० १।२।१८) में वनस्पतियों के दो वर्गों में भी यही अन्तर बताया गया है जिनमें एक शान्त (आथर्वण) और दूसरी विनाशक अभिचार में प्रयुक्त होने वाली घोर (आङ्गिरस) कही गई है। ‘आङ्गिरस’ शब्द कौशिक गृह्यसूत्र में आभिचारिक या घोर इस अर्थ में आता है। आश्व० श्रौतसूत्र में बताया गया है कि ‘भेषजम्’ (शान्तम्) का पाठ आथर्वण वेद से और ‘घोरम्’ (आभिचारिक) का पाठ आङ्गिरस वेद में करना चाहिए ।
अथर्ववेद के दो अन्य अभिधान ‘भृग्वङ्गिरस’ और ‘ब्रह्मवेद’ आथर्वण याज्ञिक ग्रन्थों में मिलते हैं । ‘अथर्वन्’, ‘अङ्गिरस’ और ‘भृगु’ ये तीनों शब्द समानार्थक अथवा परस्पर सम्बद्ध आख्यानात्मक नाम है।
“ब्रह्मवेद” यह नाम आथर्वण-अनुष्ठानों के साथ सम्युक्त है। शाङखायन गृ० सू० (१।१६।३) में इस शब्द का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त वैतानसूत्र (१।१), गो० ब्रा० (१।१२२, २।१६, ९, ५/१५, १९, २।२।६) में भी ‘ब्रह्मवेद’ नाम मिलते हैं। सग्वेद प्रातिशाख्य (१६।५४-५५) में एक वैदिक ग्रन्थ ‘सुभेषज‘ का नाम आया है। वस्तुतः यह ‘भेषजानि’ का ही दूसरा नाम हैं ।
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