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देवताओं के पूजन के नियम
डा. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध सम्पादक )-
प्रायः प्रत्येक मङ्ल कार्य में पञ्चाङ्ग पूजन अपेक्षित है। कार्यारम्भ से पूर्व गौरी गणेश, कलश, मातृका, घृतमातृका,नवग्रह, पञ्चलोकपाल, दशदिग्पाल, योगिनी आदि देवों की पूजा की जाती है।
पुण्याहवाचन एवं साङ्कल्पिक नान्दी श्राद्ध पूजनोपरान्त प्रधान देव पूजन-विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य आदि देवों की यथाविधि पूजन की जानी चाहिए।
व्रतोद्यापन एवं विशेष अनुष्ठान के समय यज्ञपीठ की स्थापना का विशेष महत्त्व होता है, अतः प्रधान देवता की पीठ रचना पूर्वाभिमुख पूर्व दिशा के मध्य में की जाय। ईशान कोण में ग्रह, मातृका, घृतमातृका, योगिनी अग्निकोण में वास्तु नैऋत्य में क्षेत्रपाल,वायव्य कोण में ग्रह आदि देवों की कलश स्थापन पूर्वक पीठ रचना अपेक्षित है। उपर्युक्त पीठ रचना के प्रकार विभिन्न रंगों के अक्षत या विविध रंग के अन्न के दानों से की जाती है। सभी व्रतोद्यापन-अनुष्ठान में-सर्वतोभद्रपीठ विशेष रूप से शिवपूजन में चतुर्लिङ्तोभद्रपीठ की रचना की जाती है। चक्र के रेखाचित्रों से उसका अभ्यास करना चाहिए।
प्रधान देवों की मूर्तियां यथाशक्ति स्वर्ण-रजत-ताम्र आदि धातुओं की बननी चाहिए और विधिपूर्वक उनकी प्रतिष्ठा करके उनका अर्चन किया जाय।
अर्चना और पूजोपकरण-पूजन के अनेक प्रकार प्रचलित हैं और शास्त्रों में पञ्चोपचार, षोडशोपचार शतोपचार आदि विविध वस्तुओं से अर्चना के विधि विधान की विस्तार से चर्चा है। श्रद्धा-भक्ति-शक्ति के अनुसार उनका संग्रह करना चाहिए। देव पूजन में भावशुद्धि अपेक्षित है और पितृकार्य में वाक्य शुद्धि अपेक्षित होती है-‘‘पितरः वाक्यमिच्छन्ति भावमिच्छन्ति देवताः’’ अतः संकल्प मंत्र की शुद्धि संस्कृत भाषा के अभ्यास से ही प्राप्त हो सकती है।
महर्षि पतञ्जलि ने महाभाष्य में बताया है ‘जैसे लकड़ी के भीतर रहने वाली आग बिना अग्नि के संपर्क के बाहर नहीं आती वैसे मंत्र की शक्ति अर्थज्ञान के बिना प्रभावी नहीं होती’’ उसी प्रकार शुद्ध वाक्य की रचना के बिना अभीष्ट फल की प्राप्ति भी नहीं हो सकती। इसलिए मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण और उनका अर्थज्ञान अवश्य कर लेना चाहिए। बहुत से वैदिक मंत्र सन्दर्भ सूचक होकर भी तत्-तत् देवताओं के आवाहन अर्चन के लिए प्रयुक्त होते हैं जिसका मीमांसाशास्त्रा के ऋषियों ने उनका समर्थन किया है। मीमांसा शास्त्रा के मनीषियों ने तर्क सम्मत विचारों के बाद सिद्ध किया है कि मंत्र ही देवता हैं। यदि मंत्र नहीं तो देवता भी उपस्थित नहीं होंगे इसलिए मंत्रों की ही महिमा सर्वोपरि है। यज्ञकत्र्ता यजमान और पौरोहित्य कर्म में संलग्न आचार्य को तद््रूप होकर ही अर्चना से सिद्धि प्राप्त होती है –
‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’ ऐसा निर्देश लक्षित करता है कि तन्मयता और भावशुचिता से ही अभीष्ट सिद्धि होती है।
देवार्चन के लिए संग्रहणीय द्रव्य-
पझ्गव्य-गोबर, गोमूत्रा, गोघृत-गोदुग्ध, गोदधि यथाविधि।
पञ्चामृत-गोदुग्ध-गोघृत-गोदधि-मधु-शर्करा।
पझ्मेवा-दाख-छुहाड़ा-बादाम-नारियल-अखरोट आदि।
नवग्रह समिधा-अर्क, पलास, खैर, अपामार्ग, गूलर-पीपल-शमी-कुश-दूर्वा।
पूजोपकरण – गन्ध (चन्दन) पुष्प, पुष्पमाला, तुलसी, विल्वपत्रा, परिमल द्रव्य-सिन्दूर-अबीर-इत्र-अष्टगन्ध आदि।
ऋतुफल-ऋतु के अनुसार फलों का संग्रह करना चाहिए। कुछ फल सभी ऋतुओं में प्राप्त हैं किन्तु कुछ फल ऋतु विशेष में मिलते हैं।पान-सुपारी-इलाचयी-लवंग-मिष्टान्न वस्त्र उपवस्त्र-रक्षा सूत्र-धोती-साड़ी-गमछा अन्य सौभाग्य द्रव्य आभूषण आदि यथाशक्ति।
उपर्युक्त वस्तुओं का यथाशक्ति संचय करना चाहिए किन्तु हम देवार्चन कर रहे हैं अतः सुन्दर; उत्तमोत्तम संक्षिप्त किन्तु उपयोगी हो,इसका सतत् ध्यान रखना अपेक्षित है।
कम्र्मोपयोगी सप्तधान्यादि विवरण-पूजोपकरण में सप्तधान्य, सप्तमृत्तिका आदि का प्रयोग किया जाता है, निम्नांकित कारिकाओं में उनका संग्रह है –
(1) सप्तधान्य-यवगोधूमधान्यानि तिलाः कंगुस्तथैव च,
श्यामकं चणकं चैव सप्तधान्यमुदाहृतम्।
जौ, धान, तिल, कंगनी, मूंग, चना और सावां ये सप्तधान्य कहलाते हैं।
(2) सर्वोैषधि-मुरा मांसी बचा कुष्ठं शैलेयं रजनीद्वयम्।
सठी चम्पकमुस्तं च सर्वौषधिगणः सृतः। (सर्वाभावे शतावरी)
मुरा, जटामांसी, बच, कुण्ठ, शिलाजीत, हल्दी, दारुहल्दी, सठी, चम्पक, मुस्ता ये सर्वोषधि कहलाती हैं।
कुष्ठं मांसी या हरिद्रेद्वे मुरा शैलेयचन्दनम्
बचा कर्पूरमुस्ता च सर्वौषधयः प्रकीत्र्तिता।
(कूठ, जटामांसी, मुरा, चन्दन, बच, कपूर, मुस्ता। दारु हल्दी, हल्दी।)
(3) सप्तमृद-गजाश्वरथ्यावल्मीके संगमाद् गोकुलाद्Ðदात्।
राजद्वारप्रदेशाच्च मृदमानीय निक्षिपेत्।
घुड़साल, हाथीसाल, बाँबी, नदियों के संगम, तालाब, राज द्वार और गोशाला- इन सात स्थानों की मिट्टी को सप्तमृृत्तिका कहते हैं।
(4) पझ्पल्लव-अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षाः न्यग्रोधश्चूत एव च।
पझ्कं पल्लवानां स्यात् सर्वकर्मसु शोभनम्।
पीपल, गूलर, पाकड़, बरगद और आम के पल्लव पञ्चपल्लव कहे जाते हैं।
(5) पझ्रत्न-सुवर्णं रजतं मुक्ता लाजवत्र्तः प्रबालकम्।
अभावे सर्वरत्नानां हेम सर्वत्रा योजयेत्।।
सोना, चांदी, मोती, लाजावर्त और मूंगा ये पञ्चरत्न कहे जाते हैं।
(6) मधु त्राय-आज्यं क्षीरं मधु तथा मधुरत्रायमुच्यते।
घी, दूध तथा मधु ये तीनों मधुत्राय कहते जाते हैं।
अर्चना सम्बन्धी ज्ञातव्य आचार-काम्य कर्म की सफलता सपत्नीक यज्ञ करने पर ही निर्भर है। शास्त्रा में पत्नी शब्द की रचना यज्ञ सम्बन्धी होने के कारण ही हुई है। पत्नी के उपवेशन की शास्त्राीय विधि निम्नवत् है –
वामे सिन्दूरदाने च वामे चैव द्विरागमे।
वामेऽशनैकशय्यायां भवेज्जाया प्रियार्थिनी।
सर्वेषु शुभ कार्येषु पत्नी दक्षिणतः शुभा।
अभिषेके विप्रपादक्षालने चैव वामतः। (संस्कार गणपति)
आचमन- गोकर्णाकृतिहस्तेन माषमात्रां जलं पिबेत्।
आचमनं तु तत्प्रोक्तं सर्वकर्मसु पावनम्।
प्राणायाम- नित्यं देवार्चने होमे सन्ध्यायां श्राद्धकर्मणि।
स्नाने दाने तथा ध्याने प्राणायामास्त्रायः स्मृताः।।
तिलक- तिलकं कुंकुमेनैव सदा मंगलकर्मणि।
कारयित्वा सुमतिमान्न श्वेतचन्दनं मृदा।।
प्रणाम प्रकार- बाहुभ्यां चैव मनसा शिरसा वचसा दृशा।
पञ्चाङ्गोऽयं प्रणामः स्यात् पूजा सु प्रवराविमौ।।
साङ्कल्पिक नान्दी श्राद्ध
अनाग्निको यदा विप्रः उच्छिन्नाग्निरथापि वा।
तदा वृद्धिषु सर्वासु साङ्कल्पं श्राद्धमाचरेत्।।
गणेश, विष्णु, शिव, देवी पूजन के लिए निम्नलिखित विधि निषेध का ध्यान रखना चाहिए-
नाड्गुष्ठैर्मदयेद्देवं नाधः पुष्पैः समर्चयेत्।
कुशाग्रैर्न क्षिपेत्तोयं वज्रपातसमो भवेत्।।
अंगूठा से देवता का मर्दन नहीं करना चाहिए न ही अधम पुष्पों से पूजा करनी चाहिए। कुश के अग्रिम भाग से जल नहीं छींटना चाहिए। ऐसा करना वज्रपात के समान होता है।
नाक्षतैरर्चयेद् विष्णुं न तुलस्या गणाधिपम्।
न दूर्वयायजेत् दुर्गां बिल्वपत्रौश्च भास्करम्।।
अक्षत से विष्णु की, तुलसी से गणेश की, दूब से दुर्गा की और बेलपत्रा से सूर्य की पूजा नहीं करनी चाहिए।
अधोवस्त्राधृतं चैव जलेऽन्तः क्षालितं च यत्।
देवास्तान्न गृह्णन्ति पुष्पं निर्माल्यतां गतम्।।
अधोवस्त्रा में रखा तथा जल द्वारा भिगोया पुष्प निर्माल्य हो जाता है, देवता उस पुष्प को ग्रहण नहीं करते।
शिवे विवर्जयेत् कुन्दं धत्तूरं च तथा हरौ।
देवी नामर्कमन्दारौ सूर्यस्य तगरं तथा।।
शिव पर कुन्द (चमेली की जाति) हरि पर धतूर, देवी पर अकवन तथा सूर्य पर तगर नहीं चढ़ाना चाहिए।
पत्रां वा यदि वा पुष्पं नेष्टमधोमुखम्।
यथोत्पन्नं तथा देयं बिल्वपत्रामधोमुखम्।।
पत्रा या पुष्प उलटकर नहीं चढ़ाना चाहिए। पत्रा या पुष्प जैसा ऊध्र्व मुख उत्पन्न होता है वैसे ही चढ़ाना चाहिए विल्बपत्रा उलट कर चढ़ाना चाहिए।
पर्णमूले भवेद् व्याधिः, पर्णाग्रे पापसम्भव।
जीर्णपत्रां हरत्यायुः शिराबुद्धिविनाशिनी।।
पत्ते के मूल भाग को, अग्र भाग को, जीर्ण पत्रा को तथा शिरा युक्त को चढ़ाने पर क्रमशः व्याधि, पाप, आयुष् क्षय एवं बुद्धि का विनाश होता है।
ये तु पिण्डास्तृता दर्भा यैः कृतं पितृतर्पणम्।
अमेध्याशुचिलिप्ता ये तेषां त्यागो विधीयते।।
जिन कुशों के द्वारा पिण्ड दिये गये हों और जिनसे पितृ तर्पण किया गया हो वे अमेध्य एवं अपवित्रा होते हैं। इनका त्याग कर देना चाहिए।
प्रतिमाभाव में पूजन-
प्रतिमाभावे पूगीफलाक्षतरजतखण्डादौ आवाहनं कुर्यात्।
कुर्याद् आवाहनं मूर्तौ मृण्मय्यां सर्वदैव हि।
प्रतिमायां जले बद्दौ नावाहनविसर्जने।।
शालग्रामार्चने चैव नावाहनविसर्जने।
गन्धार्चन- अनामिक्या च देवस्य ऋषीणां च तथैव च।
गन्धानुलेपनं कार्यं प्रयत्नेन विशेषतः।
पित¤णामर्चयेत् गन्धं तर्जन्या च सदैव हि।
तथैव मध्यमाङ्गुल्या धार्यो गन्धः सदा बुधैः।
पुष्प-पत्र की पवित्रता का काल- पङ्कजं पझ्रात्रां स्याद्दशरात्रां च बिल्वकम्।
एकादशाहे तुलसी नैव पर्यंुषिता भवेत्।।
दीपदान विधि- न मिश्रीकृत्य दद्यात्तु दीपं स्नेहे घृतादिकम्।
घृतेन दीपकं नित्यं तिलतैलेन वा पुनः।
ज्वालयेन्मुनिशार्दूलं सन्निधौ जगदीशितुः।
सर्वंसहा वसुमती सहते न त्विदं द्वयम्।
अकार्यपादघातं च दीपतापं तथैव च।
पझ्गव्य निर्माणविधि- पलमात्रां तु गोमूत्रामङ्गुष्ठार्धं च गोमयम्।
क्षीरं सप्तपलं ग्राह्यं दधित्रिपलमीरितम्।
सर्पिस्त्वेकपलं देयमुदकं पलमात्राकम्।
जपसंख्या नियम- होमकर्मण्यसक्तानां विप्राणां द्विगुणोजपः।
इतरेषां तु वर्णानां त्रिगुणादि समीरितम्।
सम्पुटे हवनं नास्ति प्रत्यूहेऽपि तथैव च।
नानार्थसिद्धि वैकेल्ये होमे तु विपुलं चरेत्।
आरती के नियम- पझ्नीराजनं कुर्यात् प्रथमं दीपमालया।
द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीये धौतवाससा।
पझ्मं प्रणिपातेन साष्टाङ्गेन यथाविधिः।
आरब्ध अनुष्ठान में अशौच व्यवस्था-
व्रत-यज्ञ विवाहेषु श्राद्ध होमार्चने जपे।
आरब्धे सूतकं न स्यादनारब्धे तु सूतकम्।
प्रारम्भो वरणं यज्ञे संजल्पो व्रत-सत्रायोः।
नान्दीश्राद्धं विवाहादौ श्राद्धे पाकपरिक्रिया।
पूर्णाहुति के नियम- विवाहादिक्रियायाझ् शालायां वास्तुपूजने।
नित्यहोमे वृषोत्सर्गे न पूर्णाहुतिसमाचरेत्।
मंत्रजप नियम- मनः संहृत्यविषयान् मन्त्रार्थगतमानसः।
न द्रुतं न विलम्बझ् जपेन्मौक्तिकपंक्तिवत्।
उच्चरेदर्थमुद्दिश्य मानसः स जपस्मृतः
आलस्यजृम्भणं निद्रां क्षुुतन्निष्ठीवनं तथा
नीचाङ्गस्पर्शनं कोपं जपकाले विवर्जयेत्।
तर्जन्या न स्पृशेत् अक्षं जपे यन्नविधूनयेत्।
अङ्गुष्ठस्य च मध्यस्य परिवत्र्र्तं समाचरेत्।
मनसा यः स्मरेत् स्तोत्रं वचसामनुं जपेत् तु उभयं
निष्फलं देव मिन्न माण्डादेकं यथा।
प्रत्यहं प्रत्यहं तावन्नैव न्यूनाधिकं क्वचित्।
एवं जपं समाप्यान्ते दशाशं होममाचरेत्।
पादेन पाद्माक्रम्य जपं नैव तु कारयेत्।
शिरः प्रावृत्य वस्त्रोण ध्यानं नैव प्रशस्यते।
न पाणिपादचलो न नेत्राचपलो द्विजः।
न च वाक् चपलश्चैव जपन् सिद्धिमवाप्नुयात्।।
वस्त्र शुद्धि- कार्पासं कटिनिर्मुक्तं कौशेयं भाजने धृतम्।
क्षालनात् शुद्धिमाप्नोति वातेनौर्णं हि शुद्ध्यति।।
प्रदक्षिणा के नियम- एका चण्ड्यां रवौ सप्त तिश्रोदद्यात् विनायके।
चतश्रस्तु विष्णवे दद्यात्; शिवस्यार्ध प्रदक्षिणा।।
चरणामृत ग्रहण विधि-बाएँ हाथ पर दोहरा वस्त्र रख कर दाहिना हाथ रख दें, पश्चात् चरणामृत लेकर पान करें। जमीन पर न गिरने दें।
तुलसी-ग्रहण-मंत्र
पूजनानन्तरं विष्णोरर्पितं तुलसीदलम्।
भक्षयेद्देहशुद्धîर्थं चान्द्रायणशताधिकम्।।
चरणामृत-ग्रहण-मन्त्र
कृष्ण! कृष्ण! महाबाहो! भक्तानामार्तिनाशनम्।
सर्वपापप्रशमनं पादोदकं प्रयच्छ मे।।
पश्चात् नीचे लिखा मंत्र बोलते हुए चरणामृत पान करें।
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णुपादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।।
दुःखदौर्भाग्यनाशाय सर्वपापक्षयाय च।
विष्णोः पञ्चामृतं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।।
नैवेद्य-ग्रहण-मन्त्र
नैवेद्यमन्त्रां तुलसीविमिश्रितम् विशेषतः पादजलेन विष्णोः।
योऽश्नाति नित्यं पुरतो मुरारेः प्राप्नोति यज्ञायुतकोटिपुण्यम्।।
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