“श्री हनुमानजी” के लिए ‘दीपदान विधि’
डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (धर्मज्ञ)-
Mystic Power- सनत्कुमारजी कहते हैं- अब मैं भगवान श्रीहनुमानजी के लिये रहस्य सहित दीपदान-विधि का वर्णन करता हूँ, जिसको जान लेने मात्र से साधक सिद्ध हो जाता है। दीपपात्र का प्रमाण, तैल का मान, द्रव्य-प्रमाण तथा तन्तु (बत्ती) का मान- इन सबका क्रमशः वर्णन किया जायगा। स्थान भेद-मन्त्र, पृथक्-पृथक् दीपदान- मन्त्र आदि का भी वर्णन होगा। पुष्प से वासित तैल के द्वारा दिया हुआ दीपक सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाला माना गया है। किसी पथिक के आने पर उसकी सेवा के लिये तिल का तेल अर्पण किया जाय तो वह लक्ष्मी प्राप्ति का कारण होता है। सरसों का तेल रोग नाश करनेवाला है, ऐसा कर्मकुशल विद्वानों का कथन है। गेहूँ, तिल, उड़द, मूंग और चावल- ये पाँच धान्य कहे गये।
श्रीहनुमानजी के लिये सदा इनके दीप देने चाहिये । पञ्चधान्य का आटा बहुत सुन्दर होता है। वह दीपदान में सदा सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाला कहा गया है। संधि में तीन प्रकार के आटे का दीप देना उचित है, लक्ष्मी प्राप्ति के लिये कस्तूरी का दीप विहित है, कन्या – प्राप्ति के लिये इलायची, लौंग, कपूर और कस्तूरी का दीपक बताया गया है। संख्य सम्पादन करने के लिये भी इन्हीं वस्तुओं का दीप देना चाहिये। इन सब वस्तुओं के न मिलने पर पञ्चधान्य श्रेष्ठ माना गया है।
आठ मुट्ठी का एक किंचित् होता है, आठ किंचित्का एक पुष्कल होता है, चार पुष्कल का एक आढक बताया गया है,चार आढक का एक द्रोण और चार द्रोण की एक खारी होती है। चार खारी को प्रस्थ कहते हैं अथवा यहाँ दूसरे प्रकार से मान बताया जाता है। दो पल का एक प्रसृत होता है, दो प्रसृत का एक कुडव माना गया है, चार कुडव का एक प्रस्थ और चार प्रस्थ का एक आढक होता है। चार आढक का द्रोण और चार द्रोण की खारी होती है। इस क्रम से षट्कर्मोपयोगी पात्र में ये मान समझने चाहिये। पाँच, सात तथा नौ-ये क्रमशः दीपक के प्रमाण हैं, सुगन्धित तेल से जलनेवाले दीपक का कोई मान नहीं है। उसका मान अपनी रुचि के अनुसार ही माना गया है। तैलों के नित्यपात्र में केवल बत्ती का विशेष नियम होता है।
सोमवार को धान्य लेकर उसे जल में डुबाकर रखे। फिर प्रमाण के अनुसार कुमारी कन्या के हाथ से उसको पिसाना चाहिये। पीसे हुए धान्यको शुद्ध पात्र में रखकर नदी के जल से उसकी पिण्डी बनानी चाहिये। उसी से शुद्ध एवं एकाग्रचित्त होकर दीपपात्र बनाये। जिस समय दीपक जलाया जाता हो, श्रीहनुमत्कवच का पाठ करे। मंगलवार को शुद्ध भूमि पर रखकर दीपदान करे। कूट बीज ग्यारह बताये गये हैं, अतः उतने ही तन्तु ग्राह्य हैं। पात्र के लिये कोई नियम नहीं है। मार्ग में जो दीपक जलाये जाते हैं, उनकी बत्ती में इक्कीस तन्तु होने चाहिये। श्रीहनुमानजी के दीपदान में लाल सूत ग्राह्य बताया गया है। कूट की जितनी संख्या हो उतना ही पल तेल दीपक में डालना चाहिये। गुरुकार्य में ग्यारह पल से लाभ होता है। नित्यकर्म में पाँच पल तेल आवश्यक बताया गया है। अथवा अपने मन की जैसी रुचि हो उतना ही तेल का मान रखे। नित्य नैमित्तिक कर्मों के अवसर पर श्रीहनुमानजी की प्रतिमा के समीप अथवा शिव मन्दिर में दीपदान कराना चाहिये।
श्रीहनुमानजी के दीपदान में जो विशेष बात है, उसे यहाँ बताया जा रहा है। देव-प्रतिमा के आगे, प्रमोद के अवसर पर, ग्रहों के निमित्त, भूतों के निमित्त, गृहों में और चौराहों पर इन छः स्थलों में दीप दिलाना चाहिये। स्फटिकमय शिवलिङ्ग के समीप, शालग्राम-शिला के निकट श्रीहनुमानजी के लिये किया हुआ दीपदान नाना प्रकार के भोग और लक्ष्मी की प्राप्ति का हेतु कहा गया है। विघ्न तथा महान् संकटों का नाश करने के लिये गणेशजी के निकट श्रीहनुमानजी के उद्देश्य से दीपदान करे। भयंकर विष तथा व्याधि का भय उपस्थित होने पर श्रीहनुमद्विग्रह के समीप दीपदान का विधान है। व्याधिनाश के लिये तथा दुष्ट ग्रहों की दृष्टि से रक्षा के लिये चौराहे पर दीप देना चाहिये। बन्धन से छूटने के लिये राजद्वार पर अथवा कारागार के समीप दीप देना उचित है।
सम्पूर्ण कार्यो की सिद्धि के लिये पीपल और वट के मूलभाग में दीप देना चाहिये। भय-निवारण और विवाद शान्ति के लिये, गृहसंकट और युद्धसंकट की निवृत्ति के लिये और विष, व्याधि तथा ज्वर को उतारने के लिये, भूतग्रह का निवारण करने, कृत्या से छुटकारा पाने तथा कटे हुए घाव को जोड़ने के लिये, दुर्गम एवं भारी वन में व्याघ्र, हाथी तथा सम्पूर्ण जीवों के आक्रमण से बचने के लिये, सदा के लिये बन्धन से छूटने के लिये, पथिक के आगमन में, आने-जाने के मार्ग में तथा राजद्वार पर श्रीहनुमानजी के लिये- दीपदान आवश्यक बताया गया है। ग्यारह, इक्कीस और पिण्ड-तीन प्रकार का मण्डलमान होता है। पाँच, सात अथवा नौ- इन्हें लघुमान कहा गया है।
दीप दान के समय दूध, दही, मक्खन अथवा गोबर से श्रीहनुमानजी की प्रतिमा बनाने का विधान किया गया है। परम् पराक्रमी वीरवर श्रीहनुमानजी को दक्षिणाभिमुख करके उनके पैर को राछ पर रखा हुआ दिखाये। उनका मस्तक किराट से सुशोभित होना चाहिये। सुन्दर वस्त्र, पीठ अथवा दीवार पर श्रीहनुमानजी की प्रतिमा अङ्कित करनी चाहिये। कूटादि में तथा नित्य दीप में द्वादशाक्षरमन्त्र का प्रयोग करना चाहिये। गोबर से लिपी हुई भूमिपर एकाग्रचित्त हो षट्कोण अङ्कित करे। उसके बाह्यभाग में अष्टदल कमल बनाये तथा उसके भी बाह्यभाग में भूपुर-रेखा खींचे। उस कमल में दीपक रखे।
शैव अथवा वैष्णव पीठ पर श्रीअञ्जनीनन्दन हनुमानजी की पूजा करे। छः कोण के अन्तराल में ‘ह्रीं ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्री हस्खों हसौं इन छः कूटों का उल्लेख करे। छहों कोणों में बीज सहित छः अङ्ग को लिखे। मध्य में सौम्य का उल्लेख करे और उसी में श्रीपवननन्दन हनुमानजी की पूजा करके छः कोणों में छः अङ्गों तथा छः नामों की पहले बताये अनुसार पूजा करे।
कमल के अष्टदलों में क्रमश: इन वानरों की पूजा करनी चाहिये सुग्रीवाय नमः, अङ्गदाय नमः, सुषेणाय नमः, नलाय नमः, नीलाय नमः, जाम्बवते नमः, प्रहस्ताय नमः, सुवेषाय नमः | तत्पश्चात् षडङ्ग में देवताओं का पूजन करे अञ्जनापुत्राय नमः, रुद्रमूर्तये नमः, वायुसुताय नमः, जानकीजीवनाय नमः, रामदूताय नमः, ब्रह्मास्त्रनिवारणाय नमः । फिर पञ्चोपचार (गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य) से इन सबका पूजन करके कुश और जल हाथ में लेकर देश-काल के उच्चारणपूर्वक दीपदान का संकल्प करे। उसके बाद दीप-मन्त्र बोले ।
श्रेष्ठ साधक उत्तराभिमुख हो उस मन्त्र को कूट- संख्या के बराबर (छ: बार) जपकर हाथ में लिये हुए जल को भूमि पर गिरा दे। तदनन्तर दोनों हाथ जोड़कर यथाशक्ति मन्त्र जप करे। फिर इस प्रकार कहे- ‘श्रीहनुमानजी! उत्तराभिमुख अर्पित किये हुए इस श्रेष्ठ दीपक से प्रसन्न होकर आप ऐसी कृपा करें, जिससे मेरे सारे मनोरथ पूर्ण हो जायँ ।
इस प्रकार तेरह द्रव्य उपयुक्त होते हैं- गोबर, मिट्टी, मषी, आलता, सिन्दूर, लाल चन्दन, श्वेत चन्दन, मधु, कस्तूरी, दही, दूध, मक्खन और घी। गोबर दो प्रकार के बताये गये हैं- गाय का और भैंस का। खोये हुए द्रव्य की पुनः प्राप्ति के लिये दीपदान करना हो तो उसमें भैंस के गोबर का उपयोग आवश्यक माना गया है। मुने! दूर देश में गये हुए पथिक के आगमन, महादुर्ग की रक्षा, बालक आदि की रक्षा, चोर आदि के भय का नाश आदि कार्यों में गाय का गोबर उत्तम कहा गया है। वह भी भूमि पर पड़ा हो तो नहीं लेना चाहिये। जब गाय गोबर कर रही हो तो किसी पात्र में ऊपर-ही-ऊपर उसे रोप लेना चाहिये।
मिट्टी चार प्रकार की कही गयी है- सफेद, पीली, लाल और काली। उनमें गोपीचन्दन, हरिताल, गेरू आदि ग्राह्य हैं, अन्य सब द्रव्य प्रसिद्ध एवं सबके लिये सुपरिचित हैं। विद्वान् पुरुष गोपीचन्दन से चौकोर मण्डल बनाकर उसके मध्यभाग में भैंस के गोबर से श्रीहनुमानजी की मूर्ति बनाये। मन्त्रोपासक एकाग्रचित्त हो बीज और क्रोध (ह्र) से उनकी पूँछ अङ्कित करे। फिर ऐसी मूर्ति को नहलाये और गुड़ से तिलक करे तथा कमल के समान रंगवाला धूप, जो शालवृक्ष की गोंद से बना हो, निवेदन करे। पाँच बत्तियों के साथ तेल का दीपक जलाकर अर्पण करे। इसके बाद (हाथ धोकर) श्रेष्ठ साधक दही-भात का नैवेद्य निवेदन करे। उस समय वह तीन बार शेष (आ) सहित विष (म्)- का उच्चारण करे। ऐसा करने पर खोयी हुई भैंसों, गौओं तथा दास-दासियों की भी प्राप्ति हो जाती है।
चोर एवं सर्प आदि दुष्ट जीवों का भय प्राप्त होने पर ‘हरताल’ से चार दरवाजे का सुन्दर गृह बनाये। पूर्व के द्वारपर हाथी की मूर्ति बिठाये और दक्षिण द्वार पर भैंसे की, पश्चिम द्वार पर सर्प और उत्तर द्वार पर व्याघ्र स्थापित करे। इसी प्रकार क्रम से पूर्वादि द्वारों पर खड्ग, छुरी, दण्ड और मुद्गर अङ्कित करके मध्य भाग में भैंस के गोबर से मूर्ति बनाये। उसके हाथ में डमरू धारण कराये और यत्नपूर्वक यह चेष्टा करे कि मूर्ति से ऐसा भाव प्रकट हो मानो वह चकित नेत्रों से देख रही है। उसे दूध से नहलाकर उसके ऊपर लाल चन्दन लगाये । चमेली के फूलों से उसकी पूजा करके शुद्ध धूप की गन्ध दे। घी का दीपक देकर खीर का नैवेद्य अर्पण करे। गगन (ह), दीपिका (उ) और इन्दु (अनुस्वार) अर्थात् ‘हु और शस्त्र (फट्) – यह आराध्यदेवता के आगे जपे । इस प्रकार सात दिन करके मनष्य भारी भय से मुक्त हो जाता है।
उक्त दोनों प्रयोगों का प्रारम्भ मंगलवार का आदरपूर्वक करना चाहिये। शत्रु-सेना से भय प्राप्त होने पर गेरू से मण्डल बनाकर उसके भीतर थोड़ा झुका हुआ ताड़ का वृक्ष अङ्कित करे। उसपर से लटकती हुई श्रीहनुमानजी की प्रतिमा गोबर से बनाये। उनके बायें हाथ में ताड़का अग्रभाग और दाहिने में ज्ञान-मुद्रा हो। ताड़ की जड़ से एक हाथ दूर अपनी दिशा में एक चौकोर मण्डल बनाये। उसके मध्यभाग में मूर्ति अङ्कित करे। उसका मुख दक्षिण की ओर हो, वह श्रीहनुमन्मूर्ति बहुत सुन्दर बनी हो, हृदय पर अञ्जलि बाँधे बैठी हो। उसे जल से स्नान कराकर यथा सम्भव गन्ध आदि उपचार अर्पण करे। फिर घृतमिश्रित खिचड़ी का नैवेद्य निवेदन करे और उसके आगे ‘किलि-किलि का जप करे। प्रतिदिन ऐसा करने पर पथिकों का समागम अवश्य होता है।
जो प्रतिदिन विधिपूर्वक श्रीहनुमानजी को दीप देता है, उसके लिये तीनों लोकों में कुछ भी असाध्य नहीं है। जिसके हृदय में दुष्टता भरी हो, जिसकी बुद्धि दुष्टता का ही चिन्तन करती हो, जो शिष्य होकर भी विनयशून्य और चुगलखोर हो, ऐसे मनुष्य को कभी इसका उपदेश नहीं करना चाहिये। कृतघ्न को कदापि इस रहस्य का उपदेश न दे। जिसके शील-स्वभाव की भलीभाँति परीक्षा कर ली गयी हो, उस साधु पुरुष को ही इसका उपदेश करना चाहिये। (नारदपुराण से)
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