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ईश्वर की कर्मफल व्यवस्था
आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी,(मानव सेवा रत्न से सम्मानित) (आध्यात्मिक लेखक)
मानव जीवन विचित्रताओं का भण्डार है। इन विचित्रताओं को देखकर आश्चर्य में डूब जाना पड़ता है। ऐसी अनकों अनबुझ पहेलियां हैं मानव के जन्म से मरण तक जिन्हे सामान्य बुद्धि समझ नहीं पाती। समझ नहीं आता कि एक सी स्थितियां, समान साधन होते हुये भी एक ही माता-पिता की दो सन्तानें भिन्न प्रकृति की क्यों विकसित होती चली जाती हैं। बौद्धिक दृष्टि से एक अत्यन्त विकसित पाया जाता है तो एक मन्दबुद्धि होता देखा गया है। एक भाव-संवेदना की दृष्टि से कोमल हृदय का तो दूसरा निष्ठुर प्रकृति का देखा जाता है। एक कायर मनःस्थिति का बन जाता है तो एक निडर, साहसी, संतूलित मनःस्थिति का।
मानव जीवन के विकास के हर घटनाक्रम को मनीषियों ने पूर्वजन्म के प्रयासों की फलश्रुति माना है। भारतीय अध्यात्म का मर्म समझकर मंतव्य व्यक्त करने वाले दार्शनिकों का मतह ै कि कर्मों के सूक्ष्म संस्कार जीवात्मा के साथ मरणोपरान्त भी बने रहते हैं। इन्ही संस्कारों को बाद के जन्मों में विकसित होते देखा जा सकता है। वे ही जन्मजात विशेषताओं के रूप में प्रकट होते हैं। मानव की प्रकृतिगत विशिष्टताओं के गठन में आनुवांशिक कारणों का जितना योगदान होता है, उतना ही पूर्वजन्मों के अर्जित सूक्ष्म, संस्कारों का होता है। व्यवहारविज्ञानी, मनःशास्त्री स्वभावगत इन विशेषताओं का कारण जब वातावरण में पैतृक गुणों में ढूढने का प्रयास करते हैं, तो कई बार असफलता हाथ लगती है।
जन्म के साथ कितनी ही अनुकूल परिस्थितियां अनायास ही मिल जाती हैं। बिना किसी पूरूषार्थ के वे संम्पदा और वैभव के मालिक बन जाते हैं। विकसित होने के लिये कुछ को परिवार का सुंसंस्कृत वातावरण मिल जाता है। जबकि कुछ को घोर प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता है। सर्वांगीण विकास के लिये अभीष्ट स्तर के साधन एवं सहयोग नहीं जुट पाते। उनका अपना पुरूषार्थ ही आगे बढ़ने का एकमात्र संबल होता है। अपंगता एवं विकलांगता के शिकार बच्चे भी पैदा होते हैं। जिन मासूमों ने जीवन का एक भी बसन्त नहीं देखा हो, जिन्हे पाप पुण्य का, भले-बुरे का कुछ भी ज्ञान नहीं होता, उन्हें अकारण ही प्रकृति के कोप का भाजन बनना पड़े, यह बात तर्कसंगत नहीं उतरती। लेकिन नियम एवं व्यवस्था जड़ प्रकृति में भी दिखाई पड़ती है, तो कोई कारण नहीं कि चेतन जगत पर लागू न हो। जन्मजात विकलांगता, दुर्घटना में मृत्यु, विषम परिस्थितियों में भी बच निकालने का कारण सामान्य बुद्धि समझ नहीं पाती। उसे मात्र संयोग मान लेने से समाधान नहीं हो पाता। संयोग का भी कोई आधार होना चाहिए।
कर्मफल सिद्धान्त की आध्यात्मिक मान्यता में उपर्युक्त गुत्थियों का हल छिपा है। पेड़-पौधों की तरह जीवन का भी शरीर के साथ ही अन्त नहीं हो जाता। आदि और अन्त से रहित वह सतत नये जीवन की पृष्ठभूमि में सन्निहित है। जीवात्मा का वह एक पड़ाव है जहां से नई तैयारी नई उमंग के साथ एक नये जीवन की शुरूआत होती है। कर्मों के सूक्ष्म संस्कार उसके साथ चलते हैं। उन्हीं के आधार पर अगले जीवन की भली-बुरी परिस्थितियां जीवात्मा उपलब्ध करती है। जन्मजात प्रकट होने वाली भली-बुरी विशेषताएं पूर्व जन्मों के कर्मों की ही प्रतिफल होती हैं। जो अनायास ही प्रत्यक्ष होती दिखाई पड़ती हैं। कर्मों का फल तत्काल इसी जन्म में मिले, यह आवश्यक नहीं। कर्मों का फल पकने तथा मिलने की सुव्यवस्था होते हुये भी वह अविज्ञात है। कर्मफल की स्वचालित व्यवस्था एक रहस्य होते हुये भी इस सत्य पर प्रकाश डालती ही है कि अच्छे बुरे कर्मों का फल मिलना सुनिश्चित है। कब और कितने परिणाम में मिलेगा यह उस परमसत्ता ने अपने हाथों में रखा है।
जड़ जगत के विकास एवं मरण के सुनिश्चित तथा ज्ञातक्रम में किसी प्रकार का कौतुहल नहीं होता। एक ढर्रे की भांति सब कुछ चलता दिखाई पड़ता है। पेड़-पौधे पैदा और समाप्त होते रहते हैं। जीव-जन्तुओं का भी जीवन सतत ढर्रे की प्रक्रिया ले लुढकता रहता है। परमात्मा ने मनुष्य को भी उन्हीं की स्थिति में रखा होता, तो मानव जीवन का कुछ विशेष महत्व नहीं रह जाता। बुद्धि और पुरूषार्थ को अपना जौहर दिखाने का अवसर नहीं मिल पाता।
चोरी करते ही अपंग हो जाने, झूठ बोलते ही जीभ के गल जाने, व्यभिचार करते ही कोढ हो जाने, हत्या करते ही अकस्मात मर जाने की कर्मफल व्यवस्था रही होती, तो मनुष्य की स्वतंत्रता एवं कार्यकुशलता का कोई महत्व नहीं रह जाता। सब कुछ यंत्रवत चलता। कुछ विशेष सोचने तथा विशेष करने की उमंग नहीं रहती। चारों ओर अकर्मण्यता छा जाती। हमें उस नियामक सत्ता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना चाहिए। जिसने कर्मफल व्यवस्था को अगणित जन्म श्रृंखलाओं के साथ जोड़कर मानवी विवेक को अपने वर्चस्व का परिचय देने का स्वतंत्र अवसर प्रदान किया है।
कर्म का उचित न्याय देने में समाजगत व्यवस्था में अन्धेरगर्दी हो भी सकती है, पर ईश्वरीय व्यवस्था में ऐसा कभी संभव नही है। उसकी त्रिकालदर्शी आंखों से कुछ भी नहीं छिप सकता। कर्मो का फल मिलना निश्चित है। सम्भव है, कोई व्यक्ति समाज एवं न्याय की आंखों में धूल झोंककर अपने कुकर्मों तथा पापों का दण्ड पाने से बच जाये, पर ईश्वरीय न्याय विधान से बचना सम्भव नहीं है। सम्भव है, उसका फल इस जीवन में मिले न मिले, पर दूसरे जन्मों में मिलना निश्चित है। इस तथ्य पर योगदर्शन स्पष्ट प्रकाश डालता है। योगदर्शन साधनपाद सूत्र 13 में उल्लेख है- ‘‘सति मूले तद्विविपाको जात्यायुर्भोगाः।’’ अर्थात ‘‘कर्म का मूल रहने पर जब वह पकता है, तो जाति या जन्म, आयु और भोग के रूप में प्रकट होता है।’’ यह जन्म, आयु और भोग, पुण्य और पाप की अपेक्षा से दुख और सुख रूपी फल वाले होते हैं।
कर्मफल सिद्धान्त को और भी स्पष्ट करने के लिये प्राचीन ऋषियों ने कर्मों को तीन भागों में बांटा है- संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध। वह कर्म जो अभी फल नहीं दे रहे हैं वे बिना फलित हुये इकट्ठे हो जाते हैं, उनको संचित कर्म कहते हैं। कालान्तर में वे फल देने के लिये सुरक्षित रखे हुये हैं। उन्हे बैंक की भाषा में फिक्स डिपोजिट की संज्ञा दी जा सकती है। पर सारे संचित कर्म भी एक जैसे नहीं होते, न ही उनका फल एक ही समय में मिलता है। विभिन्न प्रकार के संचित कर्मों के पकने की अवधि अलग-अलग हो सकती है।
जो कर्म वर्तमान में किया जाता है, वह क्रियमाण है। संचित कर्मों में से जिनका विपाक हो जाता है, अर्थात जो पककर फल देने लगते हैं, उनको प्रारब्ध कहते हैं। जन्म के साथ अनायास भली-बुरी परिस्थितियां लिये अथवा जीवन में अकस्मात उपलब्धियां लिये वे ही प्रकट होते हैं। कर्मों की श्रृंखला इस प्रकार है- क्रियमाण कर्म का अन्त संचित में हो जाता है और संचित में जो कर्मफल देने लगते हैं, उनको प्रारब्ध कहते हैं।
मनुष्य का अधिकार क्रियमाण कर्मों पर है। संचित और प्रारब्ध उसकी ही उपलब्धियां हैं, जिन पर मनुष्य का कोई अधिकार नहीं। भले बुरे कर्मों को वर्तमान में करने या न करने की मनुष्य को पूरी-पूरी छूट तो है, पर वह स्वतंत्रता फल पाने में नहीं है। ‘‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं’’ अर्थात किये गये शुभ-अशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। कर्म फल सिद्धान्त का यह प्रमुख सूत्र है।
प्रत्यक्षवादियों ने अपंगताओं के भले-बुरे कर्मों का प्रतिफल जन्मजात अपंगताओं एवं प्रतिभाओं के रूप में प्रतिपादित किया है। वे कहते हैं कि कितने ही लोग अपने जन्मकाल से ही कुछ असामान्य प्रकृति साथ लेकर आते हैं। इनमें विलक्षण मेधावानों के, कलाकारों के उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं, जो बिना प्रशिक्षण एवं वातावरण के भी ऐसी प्रतिभा का परिचय देने लगे, जिनकी प्रस्तुत परिस्थितियों के साथ कोई संगति नहीं बैठती। वंशानुक्रम, सुविधा-साधन, सहयोग अवसर आदि के आधार पर ही आमतौर से किसी की विशेष प्रतिभा या प्रगति का तारतम्य जोड़ा जाता है। पर जहां कुछ अलग या अनोखापन दिखाई देने लगे, तो यही कहना पड़ता है कि पूर्वसंचित पुण्य या सुसंस्कार अनायास ही फलित होने लगे।
कुछ बालक जन्म से अपंग, असमर्थ, मूढमति एवं कुसंस्कारी होते हैं। यह उन्हें वहां से नहीं मिली होती है, जहां वे जन्में। वैसी विपन्नता का कोई प्रत्यक्ष कारण दृष्टिगोचर न होने पर यही मानकर संतोष करना पड़ता है कि यह पूर्वजन्म के शुभ-अशुभ संस्कारों की जन्मजात प्रतिक्रिया है। गीता में भी यह तथ्य देखा जा सकता है।
पुनर्जन्म सिद्धान्त में प्रारब्ध कर्म का अपना विशेष महत्व है। पर प्रारब्ध भी किसी चमत्कार का परिणाम नहीं होता और न ही उसमें हेर-फेर सर्वथा असम्भव होता है। लेकिन आज पुनर्जन्म को मानने वालों में बड़ी संख्या उन लोगों की है जो प्रारब्ध या दैवी-विधान को अकारण या व्यवस्था-विहीन, चमत्कारिक मानते हैं और इनमें परिवर्तन भी चमत्कार के सहारे ही सम्भव मानते हैं। ये दोनों ही बातें पुनर्जन्म सिद्धान्त के वास्तविक आधारों के विरूद्ध है।
ऐसे बहुत से लोग हैं जिनमें जन्म से ही अनेक विलक्षणताएं होती हैं या जो प्रचलित लोक-प्रवाह से अप्रभावित, अपनी ही विशिष्टता से विभूषित देखे जा सकते हैं। इसका कारण भी दैवी चमत्कार नहीं, पिछले जन्म में वैसे विकास हेतु किया गया उनका स्वतः का प्रयास-पुरूषार्थ होता है। आवश्यकता जन्म-जन्मान्तर तक चलने वाले कर्मफल के अटूट क्रम को समझने की है। उसे समझने पर ही उसकी दिशाधारा निर्धारित करने और मोड़ने में सफलता मिल सकती है। किये हुये भले-बुरे कर्म अपने परिणाम सुख-दुख के रूप में प्रस्तुत करते रहते हैं। दुखों से बचना हो तो दुष्कर्मों से पीछा छुड़ाइये। सुख पाने की अभिलाषा हो तो सत्कर्म बढ़ाइए। परमात्मा को प्रसन्न और रूष्ट करना सत्कर्मों एवं दुष्कर्मों के आधार पर ही बनता है। यह धु्रव और अकाट्य सत्य है।
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