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कालचक्रतन्त्र में चिकित्साविधान
श्री जनार्दन पाण्डेय-
mystic power – (”शरीरमाद्यं खलु, धर्मसाधनम्” यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है शरीर ही स्वस्थ नहीं रहेगा तो न ‘ऐहलौकिक सिद्धि प्राप्त हो सकती है न पारलौकिक और न परमसुख प्राप्ति को साधना ही सम्भव है। यद्यपि योगी की चर्या नियमित होती है, उसका आहार-विहार संतुलित होता है फिर भी शरीर तो पाँच भौतिक होता है वह योगी का हो या सामान्य व्यक्ति का। उसमें त्रिदोषों (वात, पित्त, कफ) की किसी विकृति से रोग होना स्वाभाविक है। अत: तान्त्रिक ग्रन्थों में उन रोगों को चिकित्सा का विधान रहता है। यहाँ प्रसिद्ध ग्रन्थ कालचक्रतन्त्र के ट्वितीय अध्यात्म पटल के छठे रसायन महोद्देश से कुछ चिकित्साएँ उद्धृत की जा रही हैं जो सर्वसामान्य के लिए भी उपयोगी हैं।
आदी संभावनीया सकलजिनतनुर्मन्त्रणा सिद्धिहेतो:
‘कायाभावे न सिद्धिर्न च परमसुखं प्राप्यते जन्मनीह ।
तस्मात् कायार्थहितो: प्रतिदिनसमये भावयेत्नाडियोगं
काये सिद्धेउन्यसिद्धिस्त्रिभुवननिलये किंकरत्वं प्रयाति ।।
(का० त० 2.0)
सर्वप्रथम मानवों को सिद्धिप्राप्ति के लिए इस जिनतनु (बुद्ध शरीर) की रक्षा करनी चाहिए। शरीर ही नहीं रहेगा तो न इस जन्म में कोई सिद्धि मिलेगी और न परमसुख (मोक्ष) ही प्राप्त होगा। इसलिए साधक को प्रतिदिन नियमपूर्वक नाडीयोग की भावना करनी चाहिए। शरीर के स्वस्थ रहने पर ही तीनों लोकों में अन्य सिद्धियाँ किंकर (सेवक) की तरह सेवा को तत्पर रहती हैं।
नाडीयोग- शरीर में गुहा, नाभि, हृदय, कण्ठ, ललाट और उष्णीष में 6 कमल या चक्र होते हैं जिनसे होकर दो नाड़ियाँ जिन्हें बौद्ध तन्त्रों में ललना और रसना तथा इतर तन्त्रों में इडा पिज्लला नाम से जाना जाता है, वायु का निरन्तर वहन करती हैं। इन्हें सृष्टि संहार कारिणी कहा जाता है, क्योंकि इनमें ललना वायु को शरीर के भीतर ले जाकर उसे जीवित रखती है और दूसरी रसना, भीतर के वायु को बाहर निकाल उसे क्षीण करती है। इन दोनों नाड़ियों कौ गति को नियन्त्रित करना ही नाड़ीयोग है। इसे दूसरे शब्दों में प्राणायाम कौ प्रक्रिया कहा जाता है।
यह एक कठिन साधना है जो गुरु के सान्निध्य में रहकर धीरे-धीरे निरंतर अभ्यास करने से साध्य होती है। प्राणायाम शब्द का अर्थ ही है प्राणवायु को विश्राम देना। प्राचीनकाल में योगी महर्षिगण प्राणवायु को रोककर हजारों वर्षों तक समाधिनिष्ठ रहते थे। इसके लिए कठिन अभ्यास की आवश्यकता होती है। ऐसे प्राणायाम के पूर्णतः अभ्यस्त योगी के शरीर में यदि त्रिदोषों (वात, पित्त, कफ) की विकृति से कोई रोग होता है तो उसकी प्राणायाम की विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा ही शान्ति के उपाय कालचक्रतंत्र के इस प्रकरण के 108 से 123 तक 16 पद्धों में बताये गये हैं। इनमें अकालमृत्युवज्चन, वात पित्त कफ जनित रोगों का शमन, उदर रोग की शान्ति का उपाय, अरिष्टनिवारण, पृष्ठशूल निवारण, मूत्र कृच्छू, दन्तरोग, नेत्ररोग, ग्रन्थिभेद, कुष्ठरोग आदि प्रमुख हैं साथ ही किस चक्र से होती हुई नाड़ी को कहाँ पर कैसे रोकना यह प्रक्रिया भी बताई गई है। यहाँ हमने इन पद्धों का अनुवाद इसलिए नहीं किया कि कोई अनभ्यस्त व्यक्ति पढ़कर इस प्रक्रिया का प्रयोग करने लगे तो श्वास की विकृति से किसी दूसरे रोग का पात्र न बन जाय।
आगे ऐसी चिकित्सा बताई जा रही है, जिसका उपयोग योगी ही नहीं सर्वसाधारण भी कर सकता है-
अक्षोभ्यं किद्धिदुष्णं मुखरूजशमनं दन्तशूलस्य चैबव
प्रत्यूषे5क्षोभ्यनस्यं शिरसि रुजहरं तोयनस्यं तथैव |
कर्ण नेत्रे प्रविष्ट॑ ह्वाभयरूजहरं मूत्रमुष्णं च शीत
भूतातें5क्षोभ्यनस्यं त्रिकटुकसहितं सौख्यदं चापि दष्टे ॥॥24॥॥
प्राणायाम चिकित्सा के बाद सामान्य व्यक्तियों के लिए भी उपयोगी विविध रोगों की चिकित्सा बताते हैं- यदि मुखसंबन्धी रोग हो तो अक्षोभ्य (मूत्र) को थोड़ा गरम (गुनगुना) करके देर तक मुख में रखना चाहिए इससे मुख के अन्दर के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं। दाँतों की पीड़ा में भी इससे लाभ होता है। यदि शिर में पीड़ा हो तो प्रातःकाल इसका नस्य लेने से लाभ होता है। सादे पानी का नस्य लेने से भी शिर:पीड़ा में लाभ होता है। कान के रोग मे ‘गरम-गरम ताजा मूत्र डालने से तथा आँख के रोग में ठंडा करके डालने से रोग नष्ट होता है। यदि भूतप्रेत सम्बन्धी कोई बाधा हो तो मूत्र में त्रिकट (सौंठ, पीपल, मरिच) का चूर्ण मिलाकर सेवन करने से बाधा शान्त हो जाती है। यह प्रयोग साँप के काटने पर भी लाभ करता है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सिद्धों, योगियों के लिए कोई भी पदार्थ अपवित्र नहीं होता, वे विष्ठा, मूत्र, शुक्र, रक्त, मज्जा आदि को भी उसी प्रकार ग्रहण करते हैं जैसे किसी अन्य भोज्य पदार्थ को, किन्तु सामान्य व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है। अतः अक्षोभ्य-मूत्र शब्द से यहाँ गोमूत्र लेना चाहिए। वह भी जितनी छोटी बछिया का हो उतना अधिक लाभ करता है और कान के रोगों में बकरी के बच्चे का मूत्र विशेष लाभकारी होता है, ऐसा अनुभवी वैद्यों का मत है।। 24।।
विष्पूत्रं शुक्ररक्त नृपललसहितं भक्षितं चायुद् स्थात्
सध्यानं पुष्पनस्यं हरति सपलितानड्रजातान् जरांच ।
भुक्त पहुप्रदीप सकलरुजहरं मक्षिकाच्छर्दिमिश्रं
स्त्रीपुष्पं शुक्रमिश्र त्वपहरति रुज भक्षितं वर्षयोगात् ॥॥| 25॥॥
विष्ठा, मूत्र, शुक्र (वीर्य), रक्त (रजस्वला का), नृपलल (मनुष्य की मज्जा) इन पाँचों के संभिश्रण को पंचामृत कहा जाता है। इसके एक वर्ष तक निरन्तर भक्षण से आयुद्धि होती है। सिद्ध योगी इसी अर्थ में इसे ग्रहण करता है, किन्तु सामान्य व्यक्ति के लिए विड् शब्द से गन्धक, मूत्र से भृज़्राज का रस, रक्त से अभ्रक, शुक्र से पारद तथा मज्जा से त्रिफला (हरड़, बहेड़ा और आंवला) का ग्रहण किया जाता है।
‘टीकाकार ने इसका परिमाण भी बताया है जैसे-विड ॥ भाग, मज्जा 3/4 भाग, रक्त ॥/2 भाग, शुक्र । भाग इन को एकत्र कर मूत्र में सात बार भावना दें। बार-बार धूप में सुखाकर शोधन करें। प्रतिदिन । कर्ष (तोला) प्रमाण में घी और मधु मिलाकर सेवन करें। छ: मास तक सेवन करने से आयुवृद्धि होती है।
ध्यानपूर्वक पुष्प का नस्य लेने से वलीपलित (केशों का पकना झुर्रियाँ पड़ना आदि वार्धक्य के लक्षण) नहीं रहते। यहाँ भी पुष्प का अर्थ योगी के लिए रजस्वला का रक्त और सामान्य व्यक्ति के लिए अभ्रक है।
इसी प्रकार पञ्मप्रदीप (गो कु द ह न–पाँच प्राणियों का मांस) का मधु के साथ सेवन करने से मनुष्य सभी प्रकार के रोगों से मुक्त हो जाता है। रक्त (रजस्वलका) और शुक्र को उचित मात्रा में एक वर्ष तक खाने से कभी बुढ़ापा नहीं आता। यहाँ भी सामान्य व्यक्ति के लिए रक्त से अभ्रक और शुक्र से पारद लेना चाहिए।। 25।।
वातप्न क्षारमम्बु प्रभवति मधुरं पित्तशत्रु: कषाय:
सर्व तिक्त कटुकमपि तथा चौषधिवां रसो वा ।
शलेष्पप्न छागदुग्धं त्रिकटुकसहितं माहिषं पित्तशत्रुः
वबातप्व चोष्टदुग्धं विविधरुजहर गोपय: सर्पिरिव ॥ 26॥॥
खारा पानी वातनाशक होता है, मीठा पानी पित्तताशक और कसैला कफनाशक। सभी प्रकार कौ तिक्त या कड़वी औषधि हो या रस हो कफनाशक ही होता है। इसी प्रकार त्रिकटु (सौंठ, मरिच, पीपल) सहित बकरी का दूध कफनाशक होता है। चीनी मिला हुआ पित्तनाशक तथा सैंधानमक मिला हुआ ऊँट का दूध वातनाशक होता है। गाय का दूध और घी उपर्युक्त वस्तुओं (त्रिकटु, चीनी और सैंधव) सहित उचित मात्रा में मिलाकर खाने से सभी प्रकार के रोग नष्ट हो जाते हैं।। 26॥
जातीक्राथाम्बु चोष्णं मुखरुजशमनं दन्तशूलस्य चैवं
तैलं वस्त्वम्बुपक्व॑ त्रिकटुकलवणै: कर्णरोगस्य नाश: ।
अय्यं क्षीराहिरक्तै: क्रथितमपि सदा प्राणरोगस्य नाश:
‘कर्कोटी लाडलीनद्री हरति सहखरां गण्डमालां प्रलेपात् ॥27॥॥
जाती (जाई) के पत्तों को आठ गुना पानी में पकावे, जब चौथाई शेष रह जाय तो उस गुनगुने क्वाथ को देर तक मुख में रखने से मुख के भीतर के रोग नष्ट होते हैं और दाँत की पीड़ा (दन्तशूल) का भी शमन होता है। तिल्ली के तेल में बराबर बस्त्वम्बु (बकरी का मूत्र) मिलाकर पकावे, जब तेल मात्र शेष रह जाय तब उसमें त्रिकुट (सोंठ, पीपल, मरिच) तथा नमक मिलाकर कान में डालने से कान के सभी रोग नष्ट होते हैं।
गाय का घी आठ गुने गाय के दूध में पकावे, जब घी मात्र रह जाय तो उस क्वाथ में अहि (नागकेसर) तथा रक्त (कुंकुम) मिलाकर उसका नस्य लेने से नाक में होने वाले सभी रोगों का शमन होता है। ककोंटी (बन्ध्य कर्कोटी-बन काकड़ी), लाझ्नली (नारियल), इन्द्री (इन्द्रवारुणी-इन्द्रायण) इनको गधे के मूत्र में पीसकर लेप करने से गण्डमाला (गले की ग्रन्थियों का उभरना) नष्ट हो जाती है।। 27।॥
इसके बाद दो प्यों में वज़कण्टकादि पापरोगों (संभवत: शीतला आदि) की चिकित्सा बताई है। 28 में प्राणायाम से और 29 में मन्त्र द्वारा।
तुल्य धात्री च धान्यं त्वपरमपि तथा तिन्तिडीपत्रचूर्ण तोबे चान्द्रार्कजुष्टे खलुविगतमले क्लाथयेत् पादशेषम् ।
तत्क्वाथथं खण्डमिश्रं पुनरपरदिनात् पीतमेतत् त्रिरात्रं
प्रीष्मे सूर्याशुदाह॑ हरति मरणदं सप्तथातौ गतं च ॥। 30॥।
आँवले का चूर्ण, धान्य (धनिये का चूर्ण), तिन्तिड़ीपत्र (इमली के पत्ते) का चूर्ण बराबर भाग मिलाकर पानी में एक दिन रात भिगोकर धूप और चाँदनी में रखें। फिर उसे मसलकर मैल निकाल दें, जितना द्रव्य हो उसके आठ गुने पानी में उसका क्वाथ करें,उचित मात्रा में खांड मिलाकर दूसरे दिन से प्रातःकाल सेवन करें, तीन दिन पीने से शरीर के किसी भी धातु (रोम, चमड़ा, हड्डी आदि) में घुसा हुआ मृत्युदायक कभी सूर्यांशुताप (लू) नष्ट हो जाता है।। 30॥।
इसके बाद दो पधयों में शुद्ध सुवर्ण, तांबा, लोहा, अभ्रक, अयस्कान्त आदि से रसायन द्रव्य बनाने का विधान है, जिसके 6 मास तक सेवन करने से मनुष्य की देह दिव्य हो जाती है और वह अमरत्व को प्राप्त कर सकता है। यह विधि सर्वसाध्य नहीं है। इसे कोई रसायन विशेषज्ञ जिसे इष्टसिद्धि भी हो वही बना सकता है।
तदनन्तर इस महोद्देश में बहुत सी ऐसी उपयोगी वस्तुओं के निर्माण की प्रक्रियाएँ बताई गई हैं जिनका चिकित्सा से तो सम्बन्ध नहीं है किन्तु उपादेयता है। जैसे–पुष्पक्रिया, बुद्धबोधिसत्त्वों की पूजा के निमित्त गन्ध धूपादि कक्षपुटों का निर्माण, धूपबत्ती का निर्माण, स्नानोदक की विधि, उबटन का प्रकार, सुगन्धित तैल (इत्र आदि) की विधि, सुगन्ध बढ़ाने वाले आसव, गन्धनाशक पदार्थ, सुगन्धित तेल बनाने के लिये तिलों की शुद्धि का ४ प्रकार आदि बताया गया है। इसके बाद गर्भरक्षा प्रकरण प्रारम्भ होता है। गर्भवती के सुखप्रसब के लिए यन्त्र निर्माण की विधि, गर्भ के प्रत्येक महीने में रक्षा करने वाली योगिनियों को प्रसन्न करने के लिये होम आदि का विधान है। इसके बाद गर्भवती के गर्भशूल निवारण के लिए निम्न औषधि हैं-
कुष्ठोशीरकसेरुं तगरकुरबक केशरं पह्कजस्य
पिट्ठा शीताम्बुना मन्त्रिसमपि कुलिशैगर्भशूलेषु देयम् ।
गर्भस्तम्भेष्टलोमानि नकुलशिखिन: पीषयित्वा प्रदेयं
दुग्धाज्यं पायसान्न दधिगुडसहितं दीयते वासरीणाम् ॥॥ 42॥।
कुष्ठ (कूठ), उशीर, तगर की जड़, कमल की जड़ और कमल का केशर इनको ठंडे पानी में पीसकर कुलिश मन्त्र से अभिमन्त्रित कर पिलाना चाहिए। इससे गर्भशूल शान्त हो जाता है। कुलिशमन्त्र यह है–
“३ आ: हूँ अमुकाया: ( गर्भिणी का नाम ) गर्भशूलं हर हर स्वाहा”!
इसी प्रकार यदि गर्भस्तम्भ हो तो नेबले के आठ रोए और मोरपंखं के आठ रोएं ठंडे पानी में पीसकर उपर्युक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित कर पिलावें तथा दूध, घी, पायस, दही, गुड़, इन पदार्थों को उस दिन-देवताओं के निमित्त अर्पण करें। आगे मास देवता, वत्सर देवताओं की बलि का भी प्रकार बताया है मातरों से योगिनियों तथा अन्य ग्रहों से ग्रसित बालकों का उपचार कहा है और हवन आदि से शान्ति के उपाय गिनाये हैं।
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