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‘कृष्णस्तु भगवान्स्वयम्
(श्रीगोवर्धनपीठाधीश्वर श्रीजगदगुरु शंकराचार्य स्वामीजी श्री १९०८ श्रीभारतीकृष्णतीर्थजी महाराज)
सत्यज्ञानानन्दघन श्रीरमणीयं विश्वोत्पत्तिस्थितिलयहेतुस्वविलासम् ॥
‘पादाम्भोजध्यायकतापत्रयनाशं अ्रीकृष्णाख्य केवलमीडे परतत्वम्॥
स्वीयांघ्यम्भोजधूलीलवनिरतमन:संघसरवेप्सितार्थ-मा
भूयादभूयो विभूत्यै विधिधरतनुजाराजदुल्संगनाके-ज्मुख्यामत्यालिनम्यस्वपदवनजनी राधिकाप्राणकात्त: ॥
जिस निर्गुण निराकार अखण्ड अपरिच्छिन्न सर्वव्यापी सर्वान्तर्यामी नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त सच्चिदानन्दघनस्वरूप
‘परमात्म-पदार्थके विषयमें भगवती श्रुति स्वयं कहती है–
*यतो बाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’
अर्थात् जिसको प्राप्त न कर सकनेसे वाणी और ‘मन निराश होकर लौट आते हैं इत्यादि। उसी परमेश्वरकी
भक्तचित्तानुरोधेन धत्ते नानुकृतीः स्वयम।
अद्वैतानन्दरूपो यस्तस्मै भगवते नमः॥
इस न्यायके अनुसार भक्तों के उद्धार के लिये धारण की हुई अनन्तानन्त सगुण मूर्तियों के अन्दर खास-खास लीलावतारों में से भी जिस सगुण मूर्त्तिशिरोमणि आनन्दकन्द षोडशकलापूर्ण .पूर्णावतार भगवान् श्री कृष्णचन्द्र रूपी खास परमात्ममूर्ति ने जगत के कल्याण के लिये अपने जन्म से लेकर निर्याण पर्यन्त अति सुन्दर लीलाओं तथा अति पवित्र उपदेशों से बाहर तथा भीतर की दृष्टि से जगत् को जो अमूल्य शिक्षण दिया था, उसका हम किस प्रकारसे, किस वाणीसे, किस लेखनी से या किस मन से वर्णन करें, यह पता नहीं लगता। क्योंकि पूर्ण ‘परमात्माका जो पूर्णावतार है, उसके विषयमें भी तो वही उपर्युक्त श्रुति ही लागू होती है-
“यतो बाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’
असल में तो श्रीमद्धागवत, श्रीमन्महाभारत (जिसके अन्तर्गत श्रीभगवद्रीता भी है) श्रीब्रह्म्म वैवर्तादि अनेकानेक ग्रन्थों में भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के विषयमें जो वर्णन मिलतेहैं और उनके श्रीमुखसे जो उपदेश मिलते हैं उन सबके सम्बन्ध में हम तो प्रतिज्ञापू्वक यही कहा करते हैं और समय-समय पर यही निरूपण भी किया करते हैं कि इन ग्रन्थों के प्रत्येक श्लोकका प्रत्येक शब्द ही नहीं, बल्कि प्रत्येक अक्षर सब शास्त्रों की दृष्टि से और जगत के सबकार्य-क्षेत्रों के विचार से अनन्तानन्त प्रकार के बड़े-बड़े तत्त्वों से भरा हुआ है। फिर भी इनमें हमारे विचार के गोचर न होकर कितने ही ऐसे अर्थ बाकी रह जाते हैं जिनकी गिनती नहीं की जा सकती। तब पूर्णावतार का वर्णन तो कैसे किया जा सकता है? तथापि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के जीवनचरित्र, लीला और उपदेशों के तत्त्वानुसन्धान से हमें जो तत्त प्राप्त हुए हैं उनमेंसे कुछ खास-खास तत्वों का स्थालीपुलाक-न्याय से अति संक्षित रूप में केवल दिग्दर्शनमात्र कराया जाता है।
पाश्चात्य संस्कृतिप्रेरित भारतीयों की ओर से ऐतिहासिक दृष्टि से आजकल जो ये प्रश्न उठाये जाते हैं कि ‘भगवान् श्रीकृष्ण ऐतिहासिक पुरुष थे या नहीं?! “इस सम्बन्धमें श्रीमन्महाभारत, श्रीमद्धागवतादि ग्रन्धोंमें वर्णित घटनाएँ ऐतिहासिक हैं या नहीं?’ “इनके वर्णनोंमें जो परस्पर विरोध है उसका परिहार कैसे हो सकता है?’ ‘कृष्णोपासनासम्प्रदाय (00॥) कबसे प्रारम्भ हुआ?” इत्यादि; इन प्रश्नों के उत्तर में हम तो ऐतिहासिक प्रमाणों तथा प्रणालीद्वारा उन समस्त घटनाओंकी ‘ऐतिहासिकता को ही स्थापित करते और मानते हैं; हम यह भी मानते तथा सिद्ध करते हैं कि श्रीकृष्णोपासना अनादिकाल से प्रचारित सम्प्रदाय है, श्रीमदभाग्वत श्रीवेदव्यासजी द्वारा रचित है और इसे श्रीशुकदेवजी ने सुनाया था। श्रोमन्महाभारत के श्रीकृष्ण, श्रीमदभाग्वत के श्रीकृष्ण और ब्रह्मवैवर्तादि पुराणों के श्रीकृष्ण में इतिहास, गुण, कर्म, उपदेश आदि किसी भी दृष्टिसे भी ऐसा कोई भी भेद नहीं है जैसा पाश्चात्य जन तथा उनके अनुयायी भारतीय महोदय बतलाते हैं। इस लेख में उन प्रमाणों के बिवरण में उतरनेकी आवश्यकता नहीं है। इसलिये इस विषय को यहीं छोड़कर अब हम अपने विषयपर आते हैं। हमारे इस लेख का उद्देश्य केवल भगवान् श्रीकृष्णचद्र के जीवनचरित्र तथा उपदेशों से प्राप्त होने वाली अमूल्य
‘शिक्षा का एक स्थूल सूचीपत्र बनाना ही है। परन्तु इससे पहले हमारे सामने उपोद्घातरूप से अवतारबाद का एक
बड़ा प्रश्न उपस्थित होता है, जिसके उत्तर में हम समस्त शास्त्रों के सिद्धान्त का संक्षेप से यही सारांश बतावेंगे कि
निर्मुण परमात्माका सगुण-रूपों से अवतार ग्रहण करना केवल पुराणों से नहीं बल्कि श्रीमद्धगवद्रीता के-
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तब चाजुन।
तान्यहं बेद सर्वाणि न त्वं बेत्थ परंतप॥
अजो5पि सनव्ययात्मा भूतानामी श्वरोडपि सन् ॥
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अध्युत्थानमधर्मस्य तदात्मान॑ सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्धाय संभवामि युगे युगे॥
— इत्यादि श्लोकों से और नारायणोपनिषत् नृसिंहतापिनी,
सोतोपनिषत् रामःहस्योपलिषत् रामतापिनो, वासुदेवोपनिषत् गोपालतापिनी, कृष्णोपनिषत् आदि अनेक उपनिषदोंसे
भी सिद्ध है। यही नहीं, वेदकी पूर्वसंहिताके अन्तर्गत पुरुषसूक्तके-
‘अजायमानो बहुधा विजायते’ इस मनसे भी निर्विवाद सिद्ध है।
अतः हम अबतारवादके समर्थनके लिये बहुत प्रमाण देने में समय न लगाकर श्रीमद्धगवद्गीता के एकादश
(विश्वरूपदर्शनयोग) अध्यायके प्रसंग और द्वादश (भक्तियोग) अध्यायके बताये हुए सिद्धान्तकी ओर जिज्ञासुओं की दृष्टि आकर्षित करना ही पर्याप्त समझते हैं। ‘एकादशाध्याय का प्रसंग यह है कि दशमाध्याय में भगवान् के द्वारा उनकी कुछ विभूतियों का वर्णन सुनने के बाद यह सुनकर कि-
जान्तोउस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप।
एप तृद्देशत: प्रोक्तो विभूतेविंस्तरों मया॥
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तबार्जुना विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥
जैसे पुरुषसूक्त ने भी कहा है कि-“पादोःस्य विश्वा भूतानि’ अर्जुन भगवान्की उस महान् विश्वव्यापी मूर्त्तिका दर्शन करना चाहता है, जो यथार्थमें उनकी सम्पूर्ण मू्ति न होनेपर भी विश्वरूपिणी है, क्योंकि सारी दुनिया के अन्दर अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड भी तो भगवान् का एक छोटा अंशमात्र ही है। भक्तवत्सल भगवान् अर्जुन की प्रार्थना स्वीकार कर उससे यह कहते हुए कि-
ज तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्य॑ ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्॥
उसे दिव्य नेत्र देकर अपने विश्वरूपका दर्शन कराते हैं। परन्तु बड़े ही आश्चर्यकी बात तो यह होती है कि भगवानूसे दिव्य चक्षु प्राप्त करनेपर भी अर्जुन उस विश्वरूपका दर्शन थोड़ी ही देरतक कर सकता है, फिर घबराकर दिग्भ्रमादि से पीड़ित हो, स्वयं विवश होकर यह प्रार्था करने लगता है कि-
“दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास’
“हे भगवन्, इस विश्वरूपका उपसंहार करके अपनी उसी खण्ड-परिच्छिनन मूर्ततिका दर्शन दो जिसे मैं सदा देखता रहता हूँ।” यह विचार करनेकी बात है कि अर्जुन कों तो भगवान ने स्वयं ‘भक्तोसि मे सखा चेति’ इत्यादि कहकर विश्वरूप दिखलाया था-
तत्त्वोपदेश देकर सारथि रूप से सेवा करते हुए उसे धन्यशिरोमणि बनाया था। जब इतने बड़े जबर्दस्त अधिकारीको दिव्य-चक्षु मिलने पर भी उस विश्वरूप के दर्शन करते रहने की शक्ति नहीं होती जो भगवान् का यथार्थ में एक छोटा अंशमात्र है, तब साधारण मन्दाधिकारी या अधमाधिकारियों का यह कहना कि ‘हम अपने साधारण चर्मचक्षु से केवल विश्वरूप का ही नहीं, भगवान के सम्पूर्ण रूपका दर्शन कर सकते हैं’ बड़े ही अहंकार की बात है। इससे
बढ़कर अहंकारपूर्ण और सर्वथा अनधिकार साहस का
द्रष्टान्त और क्या हो सकता है?
यह तो हुआ विश्वरूपदर्शनयोग (एकादशाध्याय) के प्रसड्ग से हमारा किया हुआ अनुमान। अब यह देखना
है कि भक्तियोग (द्वादशाध्याय)-में भगवान ने अपने श्रीमुख से ही यह स्पष्ट कह दिया है कि–
क्लेशोउधिकतस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिदुःखं देहबद्धिरवाप्यते॥
अर्थात् ‘जो देहवान् हैं उनसे निर्गुणकी उपासना नहीं हो सकती।’ तब फिर अशरीर कौन है?
इत्यादि गीतावाक्यों ने निर्ववन कर दिया है कि
जिसके शरीर, इन्द्रियां , मन तथा बुद्धि पर शीतोष्णादि इन्द्र-समष्टि का तनिक भी प्रभाव न पड़ता हो, अर्थात्,
जिसको जिन्दे रहते हुए ही मृतक के समान चिता पर रखकर जलाये जाने पर भी तनिक-सी व्यथा न होती हो,
वही अशरीर है और बास्तव में वही निर्गुण के लिये अधिकारी है। गीता के इन दोनों अध्यायों से अपने-आप
‘पता लग सकता है कि जगत् के जीवो के लिये सगुणोपासना की आवश्यकता है या निर्गुणोपासना की?
अवतारबाद के शास्त्रों से इस प्रकार सिद्ध होने के बाद अब अगला प्रश्न यह है कि अवतारोंके बीचमें
भगवान् श्रीकृष्ण का कौन-सा स्थान है? इसके उत्तर में हमारा बस इतना ही कहना है कि-
“कृष्णस्तु भगवास्वयम्।’
मतलब यह कि अन्य समस्त अवतार भगवान के अवतार हैं, परन्तु श्रीकृष्ण भगवान् के अवतार नहीं, स्वयं
भगवान् ही हैं। इस सिद्धान्त के समर्थन में श्रीमद्धागवतादि पुराणों, श्रोमद्भगवद्गीता और उपर्युक्त उपनिषदो में खूब प्रमाण मिलते हैं, जिनके सारांश रूप से इतना ही कहना पर्याप्त है कि और सब अवतारों में जो भिन्न-भिन्न
प्रकार के कार्य हुए, वे सब-के-सब एक श्रोकृष्णावतार में हुए। इसीलिये हम भगवान् श्रोकृष्णचन्द्र को पूर्णावतार और निर्णुण परमात्माका सगुण प्रतिरूप मानते हैं, क्योंकि मूर्ति की दृष्टि से हम लोगों की योग्यता के अनुसार परिच्छिन
होते हुए भी, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने कार्यों में तो ऐसी अपरिच्छिनन अपरिच्छिनतता दिखायी है जैसी और किसी अवतार में नहीं दिखायी। इसमें यह भी प्रमाण है कि इस अवतार में केवल वेदौं की रक्षा, हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, रावणादि एक खास व्यक्ति का संहार, भूमिका उत्थान, बलि राजा का दमन, क्षत्रियों का क्षय, तत्वोपदेश, म्लेच्छों का
नाश इत्यादि एक-एक सह्लुचित उद्देश्य नहीं हैं, बल्कि ऐसे समस्त उद्देश्यों की एक बड़ी भारी समष्टि है,
जिसकी न कोई सीमा है और न हिसाब-किताब है। इसीलिये कवि जयदेव ने अपने गीतगोविन्द में दशावतारोंका
पर वर्णन कहकर मत्स्थादि अवतारों में श्रीबलरामजी को गिनकर भी सबको भगवान् श्रीकृष्ण के ही अबतार
माना है। तात्पर्य यह कि सब अवतारों के किये हुए सब कार्यों की समष्टि भगवान् श्रीकृष्ण ने की है। अब इन
अनन्त और अपरिच्छिन्न कार्यों और गुणो में से कुछ खास-खास कार्यों तथा गुणों का अत्यन्त सूक्ष्म और
संक्षिप्त रीति से दिग्दर्शन कराया जाता है जिससे स्पष्ट होगा कि-
ऐश्वर्यस्थ समग्रस्य धर्मस्य यशस: श्रिय:।
बैराग्यस्थाथ मोक्षस्थ षण्णां भग इतींगना॥
-‘भगवान्’ शब्द के इस लक्षण का केवल श्रीकृष्णचन्द्र में ही सम्पूर्ण रीति से समन्वय पाया जाता है।
इस विवेचन से ‘कृष्णस्तु भगवान्स्वयम्’ का अक्षरश: समर्थन और निरूपण होगा।
१-ऐश्वर्यस्य ( समग्रस्य )
भगवान् श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर अन्त तक सारे इतिहास की प्रत्येक छोटी-छोटी घटना से भी सिद्ध होता है कि भगवान् श्रीकृष्णके रूपमें समस्त जगत्के नाथ ही परिपूर्ण शक्ति समेत भूलोक पर आये थे। उनका सर्वव्यापित्व (अपरिच्छिनत्व) तो उनको बाँधने के लिये किये हुए. प्रयल में श्रीयशोदाजी के, अनुभव, द्रौपदी-वस्त्राहरण के प्रसंग और हजारों पत्नियों के घरों में नारदजी के देखे हुए दृश्य आदि अनेक प्रसंगोंसे स्पष्ट है।
‘पूतना-संहार इत्यादि बाललीलाओंसे लेकर अन्य सब लीलाओंसे और इस बातसे कि कोई भी घटना
या प्रसंग ऐसा नहीं आता है जो भगवान के अंकुश के नीचे न रहता हो, भगवान् का सर्वेश्वरत्व अर्थात् ‘समग्र ऐश्वर्य रूपी लक्षण इतना स्पष्ट है कि उसके अधिक विवरण, समर्थन या निरूपणकी आवश्यकता ही नहीं रह जाती।
२-धर्मस्य ( समग्रस्य )
धर्म उस साधन-सामग्री का नाम है जिससे जगत्का धारण (अर्थात् उद्धार) होता है। इस दृष्टि से भगवान्
श्रीकृष्णचन्द्र साक्षात् धर्म मूर्त्ति ही हैं और इसमें यह चमत्कार भी है कि दुनिया में जितने-जितने सम्बन्धों तथा
हैसियतों से व्यवहार हुआ करते हैं, उन सबकी दृष्टि से और देश, काल, पात्र, अवस्था, अधिकार आदि भेदों से हम-लोगों के जितने-जितने भिन्न-भिन्न धर्म या कर्तव्य हुआ करते हैं, उन सबमें भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने अमृतरूपी उपदेशों से ही नहीं, प्रत्युत अपने आदर्श आचरणों से भी हमलोगों को धर्म का स्वरूप दिखलाया और पथ-प्रदर्शन किया है। इन सब विषयों में एक छोटे- से-छोटा विषय भी ऐसा है जिसका अनेक बड़े-बड़े लम्बे व्याख्यानों और लेखों से भी पर्याप्त वर्णन नहीं हो सकता। इसलिये कुछ खास सम्बन्ध के बारे में स्थालीपुलाक-न्याय से एक-एक छोटे द्रष्टान्त के द्वारा दिग्दर्शी कराया जाता है और स्पष्ट किया जाता है कि श्रोभगवान् में परमार्थक साथ-साथ कितनी भारी व्यावहारिक धर्म- निपुणता भी थी, जिससे हजारों प्रकार के सम्बन्ध रखते हुए और भिन्न -भिन्न विचार तथा योग्यता रखने वाले
अधिकारियों के साथ व्यवहार करते हुए श्रीभगवान ने सबसे अपने संकल्पानुसार काम भी कराया और उनको
‘ऐहिक और पारमार्थिक कल्याण के पथपर भी हमेशा के लिये चढ़ा दिया।
(1)-माता-पिताके प्रति- श्रीभगवान ने अपनी सवा ग्यारह वर्ष की अवस्था में कंस को मारकर श्रीदेवकी जी
तथा श्रीवसुदेवजी को कारागृह से छुड़ाया और उनसे हाथ जोड़कर अत्यन्त नम्रता के साथ कहा कि “आजतक
गोकुल वृन्दावन में रहने के कारण आपकी कुछ भी सेवा न कर सका और मृतक के समान रहा इसके लिये क्षमा
कीजिये।’ इत्यादि।
(२) पालक माता-पिताके प्रति- श्रीभगवान् का अपनी बाल्यावस्था में लगातार और कुरुक्षेत्र मे सूर्य ग्रहण के
प्रसंग पर श्रीयशोदा जी और श्रीनन्दगोपजी के साथ प्रेमपूर्ण लीलाएँ तथा अत्यन्त नम्रतापूर्वक व्यवहार करना
सुप्रसिद्ध है।
(३) ज्येष्ठ भ्राता के प्रति- अत्युग्र स्वभाववाले श्रीबलरामजी की इच्छा या सलाह के अनुसार चलना
जिन-जिन बातों में धर्म या नीति की दृष्टिसे मुनासिब नहीं था, उनमें भी श्रीभगवान्ने जगदीश्वर होते हुए भी उनको
अनुनय-विनय से सन्तुष्ट रखते हुए सर्वदा ज्येष्ठ भ्राता की सेवा की।
(४) गुरु के प्रति- श्रीभगवान् ने सर्वज्ञ, सर्वदा निर्मोह और किसी से कभी भी उपदेश या सलाह लेने की
आवश्यकता न होने पर भी गुरु श्रीसन्दीपिनिजी की बड़ी ही आदर्श सेवा की और उन्हें गुरुदक्षिणा दी।
(५) ब्राह्मणोंके प्रति- केवल नारदादि महर्षियों को ही नहीं बल्कि तुच्छ-से-तुच्छ और अत्यन्त अकिंचन
सुदामा, श्रुतिदेव आदि ब्राह्मणोंको भी भूलोक के देवता मानते हुए भगवान ने अपने श्रीमुख से तथा आचरण से
उनकी सेवा कर आदर्श ब्रह्मण्यता दिखायी।
(६ ) गोमाताके प्रति- श्रीभगवान् का गोमाता तथा गोवत्सों की सेवा में बिताया हुआ अद्भुत तथा प्रेममय
बाल्यजीवन तो प्रसिद्ध ही है।
(७) पत्नियों के प्रति- ‘ बह्मः सपत्न्य इव गेहपतिं जलनुन्ति’ इस जगत्प्रख्यात अनुभव के रहने पर भी
श्रीरुक्मिणीजी, श्रीसत्यभामाजी आदि अष्ट महिषियों के अतिरिक्त सोलह हजार स्त्रियों के पति होते हुए भी सबके साथ निष्पक्ष प्रेममय व्यवहार का दुनिया के गृहस्थों को ऐसा आदर्श दिखाया कि जिससे श्रीभगवान् की पत्लियों ने
कुरुक्षेत्र में द्रौपदी के पास अपनी धन्यता दिखाते हुए अपने मनकी यही इच्छा प्रकट की कि हमें जन्म-जन्मान्तरों में भी इन्हीं भगवान् की सेवा करने का सौभाग्य मिले।
(८) राजनीति-क्षेत्रमें- श्रीभगवान् की अपार तथा अद्वितीय राजनीति-कुशलता ऐसी थी जिसके प्रभाव से सभी कार्या में शत्रुओं की हार और श्रीभगवान् की कामयाबी होती थी और जिसको देखकर सन्धिविग्रहादि सर्व- कार्य-पारंगत अतिनिपुण विदुर, उद्धव, भीष्म आदि राजनीतिज्ञ-शिरोमणि भी आश्चर्यचकित हो जाते थे।
(९) शरणागत आर्तों के प्रति – अपनी की हुई “तेषां योगक्षेमं वहाम्यहम्’ “ न मे भक्त: प्रणश्यति’ इत्यादि
प्रतिज्ञाओं का पालन करते हुए श्रीभगवान् ने द्रौपदीकी मान रक्षा आदि के द्वारा अपनी आर्तत्राणपरायणता और
अनाथनाथपने का आदर्श परिचय दिया। जैसे आगे भी मीराबाई के दृष्टान्त में यह स्थापित किया कि–
द्रौपदी च परित्राता येन कौरवकश्मलातू।
‘पालिता गोपसुन्दर्यः स कृष्ण: क्वापि नो गत:॥
(१० ) पतितों के प्रति – श्रीभगवान्ने-
‘अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि‘
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।‘
“क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्रच्छान्तिं निगच्छति।‘
– इत्यादि प्रतिज्ञाओंसे अपनी पतित-पावनता दिखायी।
(११) भक्तोंके प्रति – श्रीभगवान ने श्रीवेदव्यास, अकरुर, उद्धव, विदुर और सञ्ञयादि भक्तजनों के साथ उनके अधिकारानुसार जो व्यवहार किया और खास कर के शत्रुपक्ष के सेनाधिपति होकर अपने वाणों से श्रीभगवान् के शरीर से खूब रक्त बहाने बाले अपने भक्तरल
श्री भीष्मजीकी प्रतिज्ञ के पालन के लिये– ‘छिन्हां स्वबाहुमपि व: प्रतिकूलवृत्तिम्’ इस नियम से भी आगे बढ़कर अपनी प्रतिष्ठा की भी परवा न करते हुए भक्त की प्रतिष्ठा की रक्षा करके केवल भक्तवत्सलता नहीं बल्कि भक्तपराधीनता भी दिखायी, जिसका स्वयं भीष्मजी ने अपने अन्तिम
समय में –‘ स्वनिगममपहाय मत्मतिज्ञाम् ऋतमधिक्तुमवप्लुतो रथस्थ:’ इत्यादि श्लोकमें जिक्र किया था।
(१२) शिष्योंके प्रति – अपने चरणों में पहुँचकर शिष्यभाव से– ‘शिष्यस्तेहं शाधि मां त्वां प्रपन्म्’ ऐसा कहनेवाले अर्जुनको उपनिषदों के सारांशरूपी अपनी गीताका उपदेश देकर अज्ञान-संमोह से उसका उद्धार करके गुरुके यथार्थ लक्षण का परमसुन्दर लक्ष्य दिखाकर कृतार्थ किया।
(१३) मित्रॉके प्रति – श्रीभगवानते गोकुल-वृन्दावनमें गोपालबालकों के साथ तथा गुरुकुल बास के समयके
सुदामा आदि साथियों के साथ सच्ची मित्रता का आदर्श लक्षण दिखाया।
(१४) शत्रुओं के प्रति – बचपन से लेकर अन्त तक निर्भय तथा निश्चिन्त होकर बड़े-बड़े भयंकर शत्रुओं का
और शत्रुओं की अपार अक्षौहिणियों का अनायास ही संहार या दमन करने की अद्वितीय शक्ति रखते हुए भी,
श्रीभगवान् ने यथासाध्य शान्ति से ही काम लेने के प्रयत्न का नियम रखा था। (जैसे दोनों पक्षों की सेनाओं के सन्नाह के पश्चात् भी दुर्योधन के पास पाण्डवों के दूतरूप में जाकर युद्धनिवारण का अन्तिम प्रयत्न किया)। और अपने अन्तिम प्रयत्न के व्यर्थ होने पर-
‘परित्राणाय साथूनां बिनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय …………………४॥
– इस अपने कर्तव्यके पूरा करने में धर्म के खयाल से प्रेरित होकर केवल जगत् के कल्याण के लिये ही दुष्टों के
संहार और सजजनों की रक्षा के द्वारा धर्म की संस्थापना करते हुए और-
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ‘
“राग व्युदस्थ च……………
बल॑ बलवतां चाहँ कामरागविवर्जितम्‘
अपने इन उपदेशों का आदर्श अपने आचरण से दुनिया को दिखाते हुए, शत्रुओं के साथ भी रागद्रेष रहित और निष्पक्ष रहकर ही व्यवहार किया था, इसीसे नरकासुर को मारने तथा भीमसेन के द्वारा जरासन्ध को मरवा डालने के बाद श्रीभगवान ने उनके राज्यों को, स्वयं न छीनकर उन्हीं के पुत्रों को प्रजारक्षण रूपी धर्म का उपदेश देकर अपने हाथों गद्दी पर बैठाया तथा उनका सब प्रकार से पालन-पोषण तथा सहायता की । कर्तव्य-विवश हो जिनको श्रीभगवान ने मारा, द्वेष न करते हुए उनको भी सद्गति प्रदान करनेका नियम तो आप पालते ही रहे (इससे सुदर्शनचक्रधारा और मुरलीधारीकी एकता सिद्ध है।)
(१५) गोपियोंके प्रति – ब्रजवासी रसिकराज श्रीभगवान् ने बचपन में गोपियों के साथ की हुई अपनी
‘लीलाओं में वात्सल्य, सख्य, दास्य, शान्त और माधुरयादि भावोंका उज्ज्वल तथा आदर्श परिचय दिया था।
(१६ ) सारी दुनियाके प्रति – राजसूययज्ञ के प्रकरण में श्रीभगवान् ने सब लोगों को अनेक प्रकार के अधिकार
देकर या कार्य बाँटकर अपने लिये तो-‘कृष्णः ‘घादावनेजने’ अभ्यागत-अतिथियों के चरण धोने का ही
काम लिया जिससे विष्णुसहस्रनाम के बताये हुए- अमानी मानदो मान्य:’ (अर्थात् स्वयं अहंकाररहित
परन्तु औरों को मान देने वाला अत एव माननीय) अपने इन तीन नामों को सफल कर सेवाधर्म का परमोत्तम आदर्श दिखाया।
श्रीभगवानके दिखाये हुए इन आदर्शो में से एक की भी तुलना दुनियाभर के इतिहास में खोजने पर भी कहीं भी
नहीं मिल सकती। इनमें से एक-एक पर भी हजारों व्याख्यान और लेख हो सकते हैं तो भी विषय पूरा नहीं |
हो सकता। इसलिये इनका केवल उल्लेख करके हम आशा करते हैं कि इन दृष्टानतों से पाठक स्पष्ट समझ
जाएंगे कि सब प्रकार से सब अंशो में श्रीभगवान् श्रीकृष्णचन्द्र साक्षात् धर्ममूर्ति थे और साथ ही उस प्रेमकी पराकाष्ठाके अवतार थे, जिसके अन्दर सारी दुनिया और खास करके शत्रुओं को भी श्रीभगवान ने स्थान दिया था। ऐसे आदर्श धर्मावतार और प्रेमावतार के विषयमें यह सन्देह ही कैसे हो सकता है कि उनमें ‘धर्मस्थ समग्रस्य’ यह लक्षण पूर्ण रूप से है या नहीं?
३-यशसः ( समग्रस्य ) भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र की विश्वव्यापिनी कीर्ति के विषय में तो पारमार्थिक दृष्टि से यह भी कहा जा सकता है कि दुनिया में जिन-जिन का गुणगान हो सकता है वे सब भगवान् की एक छोटी विभूति होनेके कारण उन सबकी कोर्ति भी भगवान् की ही कीर्ति है, क्योंकि भगवान ने तो (हृदय की ऐंसी विशालता तथा गम्भीरता के साथ, जो दुनिया में किसी में पायी नहीं जाती,) स्वयं ही कहा है कि-
“बां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति‘
येपन्यदेवता भक्ता‘……………..
(अर्थात् किसीकी भी उपासना हो वह भी मेरी ही उपासना है) इत्यादि–इस पारमार्थिक दृष्टि के अतिरिक्त, केवल सद्भुचित व्यावहारिक दृष्टि से भी यही सच्ची बात है कि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र की कीर्ति सर्वजगद्यापिनी है। दुनियाके प्रसिद्ध महापुरुषोंपर, आध्यात्मिक तथा ‘तत्त्वजिज्ञासु जगत् और साहित्यपर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के इतिहास तथा उपदेशों का जो प्रभाव पड़ा है उससे इस बात का पूरा-पूरा समर्थन होता है।
आध्यात्मिक तत्त्वजिज्ञास और तत्त्ववेत्ता जगतूमें प्रसिद्ध जिन-जिन महानुभावों तथा साहित्यके जिन-जिन ग्रन्थोपर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके जीवनचरित्र तथा उपदेशोंका प्रभाव पड़ा, उन सबका सूचीपत्र बनाना असम्भव है।
परन्तु संक्षेपमें यही बताया जा सकता है कि ऐसा महापुरुष तथा साहित्य अत्यन्त विरल है जिसने जानते हुए या न जानते हुए श्रीकृष्णके इतिहास तथा उपदेशों से लाभ न उठाया हो और जिसमें श्रीकृष्ण के प्रभाव का
कुछ-न-कुछ चिह् न दीखता हो।
साधारण व्यक्तियोंकी बातोंमें तो कुछ महत्त्व नहीं है, परन्तु भारत के इतिहास में जितने प्रसिद्ध साधु-सन्त हुए हैं, उन सब पर श्रीकृष्ण-भक्ति का प्रभाव खूब पाया जाता है। महाराष्ट्र, गुजरात, बंगाल आदि सभी प्रान्तो में यही बात हुई। हिन्दी कविता में भी सूरदास आदि बड़े-बड़े कवियोंकी यही बात है। इसी प्रकार संस्कृत-साहित्यमें भी यही देखा जाता है कि माघ के शिशुपालवध आदि काब्यों के अतिरिक्त, जिनमें श्रोकृष्ण की लीलाओंका ही वर्णन है, अन्य समस्त काब्यों में भी श्रीकृष्णके ‘इतिहास तथा उपदेश का प्रभाव ओतप्रोत नजर आता है। भजनों में तो जयदेवके गीतगोविन्द ने साहित्य के अन्दर ऐसा सुदृढ़ स्थान प्राप्त किया है जिससे वह कदापि हिल नहीं सकता।
अब हमें इस चमत्कारी बातका उल्लेख करना है कि जितने बड़े-बड़े धर्माचार्य हुए हैं, उनमेंसे एक भी ऐसा आचार्य नहीं, जो भगवान् श्रीकृष्णका भक्त न हुआ हो। श्रीरामानुजाचार्य, श्रीमध्वाचार्य, श्रीवल्लभाचार्य आदि वैष्णवसम्प्रदाय प्रवर्तक आचार्यो के श्रीकृष्णभक्त होनेमें तो कोई बड़ी बात नहीं है, परन्तु जब देखा जाता है कि भगवान् शंकरके अवतार रूप से प्रसिद्ध जगदगुरु आदिशंकराचार्य भी श्रीकृष्ण के भक्त थे, तब तो सबको यही मानना पड़ता है कि भगवान् श्रीकृष्ण की मूर्ति, मुरली, लीला आदि सभी पदार्थ केवल श्रीराधाजी आदि गोपियोंके लिये ही मनोमोहक नहीं थे बल्कि बह यधार्थ में ही सर्व-जगन्मनोमोहक थे। इस प्रकरण में हम सबको यह बात जाननी और याद रखनी चाहिये कि भगवान् श्रीआदिशंकराचार्य ने स्वयं समस्त वैष्णव- आचार्यों से भी बढ़कर भगवान् श्रीकृष्ण के स्तोत्र रचे
हैं और उनके सिद्धान्त के सबसे बड़े जबर्दस्त प्रचारक *अद्वैतसिद्धि’ ग्रन्थ के कर्ता श्रीमधुसूदनसरस्वती स्वामी के बनाये हुए ‘भक्तिस्सायन’ से बढ़कर तो श्रीकृष्णभक्ति-प्रतिपादक ग्रन्थ ही और कौन होगा? उनके बनाये हुए श्री कृष्ण स्त्रोतों से बढ़कर या उनके समान भी आजतक श्रीकृष्ण के प्रेम से भरे हुए स्तोत्र और किसने बनाये हैं?
अब भारतवर्षके अतिरिक्त बाहरके जगतूपर भगवान् श्रीकृष्ण का जो प्रभाव पड़ा है, उसका कुछ उल्लेख करना है। राज्यशासन, व्यापार आदि बाहरी वस्तुओंकी सहायता या प्रभावसे जो असर पड़ता है उसे तो हम गिनतीमें ही नहीं लेते, केबल उसी असर की कीमत की जा सकती है जो पदार्थ की स्वरूपभूत योग्यता के आधारपर निर्भर हो और बाहरकी किसी वस्तुकी सहायता या प्रभावसे लाभ न उठाता हो। आजकल भारतके राजनीति व्यापार आदि की दृष्टि से तो यूरोप,अमेरिका आदिपर किसी भी शासन का नाम तक नहीं है,तो भी यूरोपमें जर्मनी, इंगलैंड आदि देशो पर और अमेरिका पर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र का खूब प्रभाव पड़ा हुआ है, जिसका अपनी स्वरूपयोग्यता से अतिरिक्त और कोई भी कारण नहीं बताया जा सकता। इस सम्बन्धमें हमारे लिये विवरणमें न उतरकर दिग्दर्शनार्थ केवल एक ही अद्भुत बातका उल्लेख करना पर्याप्त होगा। वह यह है कि अंग्रेजी साहित्यमें बड़े तत्त्वदर्शियों की गिनती में महान् ग्रन्थकर्ता ठामस कार्लाइल और अमेरिकन-साहित्यमें राल्फ वालडो एमर्सन गिने जाते हैं, उनके इतिहास से यह पता चलता है कि उन दोनों ने इस बात को स्वीकार किया था कि आध्यात्मिक विषयों पर अपने लिखे हुए जिन ग्रन्थों से उन दोनों ने यूरोप तथा अमेरिका कों मुग्ध किया था, वे सब-के-सब भगवद्वीताके अंग्रेजी अनुबादोंसे साधारण तौर पर समझी हुई कुछ बातों के आधार पर ही लिखे हुए थे।
इस खास बातका जिक्र किये बिना हम इस प्रकरणको नहीं छोड़ सकते कि असल में तो रूस, यूनान
तथा फ्रान्स आदि देशों के बड़े प्रामाणिक पुराने ग्रन्थों से सिद्ध हो गया है कि पैगम्बर ईसा ने भारतवर्ष में आकर
भगवद्वीता आदि वेदान्त-ग्रन्थों का अध्ययन कर उन्हीं का अपने देश में जाकर प्रचार किया और ईसाइयों के मूलग्रन्थ बाइबल की सारी बातें भारत से ली हुई बातों के अनुवाद या केवल आभासमात्र हैं। इस सम्बन्धमें फ्रान्स के सुप्रसिद्ध ग्रन्थकर्ता जकोलियाट लिखित The Bible in India Hondo origin of Hebrew and Christion Revelation इत्यादि ग्रन्थों से पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं।
इन सब बातोंसे सिद्ध होता है कि भगवान् श्रीकृष्णकी कीर्ति कितनी विश्वव्यापिनी है। जब दुनियाको
उपर्युक्त रहस्य का पता लगेगा कि सारी पाश्चात्य दुनिया जिस ईसाई-धर्मका नाम लेती है वह भी भगवान् श्री कृष्ण के जीवन-चरित्र तथा उपदेशों का ही एक ननहा-सा बच्चा है, तब क्या हम यह आशा नहीं कर सकते कि भविष्य में पाश्वात्य जगत पर भगवान का प्रभाव आजकल की भाँति अज्ञात रूप से नहीं बल्कि अत्यन्त प्रसिद्ध प्रकार सेअवश्य फैलेगा और पाश्चात्य संसार मुक्तकण्ठसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको अपना इष्टदेव मानने लगेगा?
तात्पर्य यह कि ‘यशसः समग्रस्य’ इस लक्षण का भी भगवान् श्रीकृष्णचद्धमें ही पूरा-पूरा समन्वय होता है
और हो सकता है।
साभार : कल्याण पत्रिका
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