![](https://mysticpower.in/wp-content/uploads/2022/06/कुछ-पूजा-768x461-1.jpg)
कुछ पूजा मन्त्र
अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)
पूजा के ५, १६, ६४ उपचारों का निर्धारण तथा उनके लिए वैदिक या स्मार्त मन्त्रों का चयन रहस्यात्मक है। हजारों वेद मन्त्रों से जिसने पूजा के मन्त्र चुने, वह व्यास जैसा ही विलक्षण प्रतिभावान् रहा होगा। विश्व पञ्च तत्त्वों का प्रपञ्च (मिलन) है, अतः पञ्च देव या पञ्चोपचार है। पुरुष का चेतन क्रिया रूप १६ कला है जिसके अनुरूप १६ उपचार हैं। प्रत्येक कला के ४-४ खण्ड करने पर ६४ कला हैं। इनके लिए ६४ उपचार हैं। सभी के द्वारा अव्यक्त देवों की पूजा वैसी होती है जैसे हम किसी अतिथि का सत्कार कर रहे हैं। यह अतिथि सत्कार की परम्परा स्थापित करने के अतिरिक्त हमारे दैनिक अभ्यास द्वारा समाज में सहयोग पूर्वक रहने का संस्कार डाल रहा है। कुछ मन्त्रों के आधिदैविक, आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक अर्थ हैं, जो ३ विश्व रचनाओं (आकाश, पृथ्वी, मनुष्य शरीर) का अर्थ और परस्पर सम्बन्ध स्पष्ट करता है। कुछ मन्त्रों की व्याख्या दी जा रही है।
१. हिरण्यगर्भ-
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
(ऋक्, १०/१२१/१, वाजसनेयी यजुर्वेद, १३/४, २३/१, अथर्व, ४/२/७)
= हिरण्यगर्भ (तेज-पुञ्ज) सबसे पहले हुआ था, वही भूतों (५ महाभूत) का एक पति था। उसने पृथिवी तथा आकाश को धारण किया। उस क (कर्त्ता) रूपी देवता को हम हवि द्वारा पूजते हैं।
आकाश में हिरण्यगर्भ अर्थात् तेज-पुञ्ज से सृष्टि हुई। उससे ५ महाभूत बने तथा जीवन का विकास हुआ। हमारी पूजा भी इसी क्रम में होती है, जिसका प्रतीक कलश है। उसमें ५ महाभूतों के प्रतीक कलश में हैं। क्षिति का रूप ठोस कलश है, उसमें जल तथा खाली स्थान वायु है, तेज का प्रतीक दीप है। इन सबका स्थान आकाश है। अन्त में जीवन के आरम्भ के रूप में आम का पल्लव रखा जाता है।
तस्मात् वा एतस्मात् आत्मन आकाशः सम्भूतः। आकाशाद् वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी। पृथिव्या ओषधयः। ओषधीभ्यो अन्नम्। अन्नात् पुरुषः (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/१/३)
इन सब का मूल स्रोत हिरण्य-गर्भ है जिसके प्रतीक रूप में ताम्बे का पैसा डालते हैं तथा उस समय यह मन्त्र पढ़ा जाता है। हिरण्य का अर्थ तेज है। उसका प्रतीक चमकदार धातु स्वर्ण है। आधुनिक रसायन विज्ञान में भी स्वर्ण, रजत, ताम्र-एक वर्ग में रखे जाते हैं जिनको पवित्र धातु कहते हैं।
पृथ्वी पर वैदिक सभ्यता का विकास भारत से हुआ, जिसका केन्द्र काशी था। यहां ज्ञान रूपी तेज का केन्द्र होने से इसे काशी कहा गया। काश का अर्थ दीप्ति है (काशृ दीप्तौ-पाणिनीय धातुपाठ, १/४३०, ४/५१) परिधि से बाहर जो निकला वह प्रकाश है। यह हिरण्य-गर्भ क्षेत्र होने से इसकी पूर्व सीमा की नदी (नद) का नाम हिरण्य-बाहु (सोन-शोणो हिरण्यबाहुः स्यात्-अमरकोष) है। यहां भूतों के पति शिव का केन्द्रीय स्थान या आम्नाय भी है। यहां सबसे पहले ज्ञान का समवर्तन हुआ था, अतः वर्तते (बाटे) धातु का प्रयोग यहीं होता है। बाकी विश्व में अस्ति का प्रयोग है। पश्चिमी भाग में अस्ति का (आहे) तथा (है) हो गया है। पूर्वी भाग में यह अछि हो जाता है। अग्रेजी में यह इष्ट (ist) था जो बाद में इज (is) हो गया।
आध्यात्मिक रूप में मेरुदण्ड में मूलाधार से विशुद्धि तक के ५ चक्र ५ महाभूत स्वरूप हैं, तथा आकाश के ५ पर्वों की प्रतिमा हैं। यहां चक्रों का क्रम आकाश की रचनाओं के क्रम में हैं।
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं, स्थितं स्वाधिष्ठाने, हृदि मरुतमाकाशमुपरि।
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्त्वा कुलपथं, सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसे॥
(सौन्दर्य लहरी, ९)
आकाश के ५ पर्वों के चिह्न माहेश्वर सूत्र के ५ मूल स्वरों से हैं। इनके सवर्ण अन्तःस्थ वर्ण मेरुदण्डके ५ चक्रों के बीज मन्त्र हैं। उसके ऊपर के चक्र सृष्टि आरम्भ के अव्यक्त सर्गों की प्रतिमा हैं। माहेश्वर सूत्र के स्वर वर्ण हैं-अइउण्। ऋलृक्। इस क्रम में इनके सवर्ण अन्तःस्थ वर्ण भी बाद के माहेश्व सूत्रों में हैं-हयवरट्। लण्। इनके अनुसार आकाश के पर्व मूल से नीचे की तरफ तथा उनकी प्रतिमा रूप शरीर के चक्रों का क्रम विपरीत वृक्ष है जिसका मूल ऊपर तथा शाखायें नीचे हैं। (अ, ह) का उच्चारण कण्ठ से, (इ, य) का उच्चारण तालु, (उ, व) का ओष्ठ से, (ऋ, र) का मूर्धा से, (लृ, ल) का दन्त से होता है। अतः ये सवर्ण हैं। अन्तःस्थ का उच्चारण भीतर से है, अतः ये भीतरी चक्रों के बीज मन्त्र हैं।
आकाश के ५ पर्व हैं-(१) स्वायम्भुव मण्डल-१०० अरब ब्रह्माण्डों का समूह, (२) परमेष्ठी मण्डल-सबसे बड़ी ईंट, ब्रह्म रूप जगत् का एक अण्ड, या आकाशगङ्गा, जिसमें १०० अरब तारा हैं । (३) सौर मण्डल-जहां तक सूर्य प्रकाश ब्रह्माण्ड से अधिक है। (३) चान्द्र मण्डल-चन्द्र कक्षा का गोल, (५) भूमण्डल-पृथिवी ग्रह। इनके अधिदेवता हैं-ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, सोम, अग्नि। इनके अक्षर हैं मूल स्वर-अ, इ, उ, ऋ,लृ।
मनुष्य शरीर में इनकी प्रतिमा रूप चक्र हैं-कण्ठ मूल में विशुद्धि, हृदय स्थान में अनाहत, नाभि चक्र में मणिपूर (आकाश क्रम में स्वाधिष्ठान), मेरु मूल में स्वाधिष्ठान (आकाश क्रम में मणिपूर), गुदा-लिंग के बीच मूलाधार। इनके बीज मन्त्र आकाश के मूल स्वरों के अन्तःस्थ वर्ण हैं-ह, य, व, र, ट।
दृश्य जगत् के पूर्व २ अव्यक्त स्तर थे-रस रूप परब्रह्म, स्फोट केन्द्र हिरण्यगर्भ से शिव-शक्ति या पुरुष प्रकृति द्वैत हुआ। इनके प्रतिरूप हैं-मस्तिष्क के ऊपर सहस्रार चक्र, उसके पीछे विन्दु चक्र, भ्रूमध्य के पीछे इड़ा-पिंगला का मिलन आज्ञा चक्र। विन्दु हिरण्यगर्भ की प्रतिमा है जिससे अमृत स्राव होता है।
२. पुरुष सूक्त-
इसकी अनेक व्याख्या भिन्न भिन्न प्रकार से हैं।
पुरुष की १६ कला का कई प्रकार से वर्णन है-
षोडशकलो वै पुरुषः (जैमिनीय ब्राह्मण, १/१३१)
षोडशकलः प्रजापतिः (शतपथ ब्राह्मण, ७/२/२/१७)
(१) प्रश्नोपनिषद् (६/४) की १६ कला-१. प्राण, २. श्रद्धा, ३. आकाश, ४. वायु, ५. ज्योति = अग्नि, ६. जल, ७. पृथिवी, ८. इन्द्रिय, ९. मन, १०. अन्न, ११. वीर्य, १२. तप, १३. मन्त्र, १४. कर्म, १५. लोक, १६. नाम।
जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण (४/११/४/२) में ८ युग्म हैं-१. सत्-असत्, २. असत्-सत्, ३. वाक्-मन, ४. मन-वाक्, ५. चक्षु-श्रोत्र, ६. श्रोत्र-चक्षु, ७. श्रद्धा-तप, ८. तप-श्रद्धा।
(२) जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण (१/५/१-३) में प्रजापति की १६ व्याकृति (रूपान्तर) दी गयी हैं-१. भद्रम्, २. समाप्ति, ३. आभूति, ४. सम्भूति, ५. भूत, ६. सर्व, ७. रूप, ८. अपरिमित, ९. श्री, १०. यश, ११. नाम, १२. अग्र, १३. सजाता, १४. पय, १५. महीषा, १६. रस।
(३) बृहदारण्यक उपनिषद् (१/५/३) अर्थात् शतपथ ब्राह्मण (१४/४/३) में मन की १६ कला हैं, या यह मन की परिभाषा है कि इसमें इतनी क्रिया हैं। १. काम, २. संकल्प, ३. विचिकित्सा, ४. श्रद्धा, ५. अश्रद्धा, ६. धृति, ७. अधृति, ८. ह्रीः, ९. धीः, १०. भीः। प्राण की ५ कला-११. प्राण, १२. अपान, १३. व्यान, १४. उदान, १५. समान। वाक् की केवल १ कला है-शब्दमयी।
(४) शतपथ ब्राह्मण (१०/४/१/१७) में शरीर की अष्ट धातुओं में प्रत्येक के २-२ अक्षर मान कर १६ कलायें गिनी हैं-१. सोम, २. त्वक्, ३. असृक्, ४. मांस, ५. स्नायु, ६. अस्थि, ७. मेद, ८. मज्जा।
प्रत्येक की २-२ कला के कई अर्थ हो सकते हैं-आरम्भ तथा अन्त, स्रोत-फल, स्थिति-क्रिया।
(५) छान्दोग्य उपनिषद् (४/५/८) में चतुष्पाद ब्रह्म के प्रति पाद की ४-४ कलायें कही हैं-
(क) प्रकाशवान्-१. प्राची, २. प्रतीची, ३. दक्षिणा, ४. उदीची।
(ख) अनन्तवान्-१. पृथिवी, २. अन्तरिक्ष, ३. द्यौ, ४. समुद्र।
(ग) ज्योतिष्मान्-१. अग्नि, २. सूर्य, ३. चन्द्र, ४. विद्युत्।
(घ) आयतनवान्-१. प्राण, २. चक्षु, ३. श्रोत्र, ४. मन।
(६) पुरुष सूक्त व्याख्या पुस्तक में १६ मन्त्रों की श्रीमती कुसुमलता आर्य ने १६ कला मानी हैं-१. कामना, २. ईक्षण, ३. तप, ४. विभुता, ५. देशातीत-कलातीत, ६. ईशत्व, ७. महिमा, ८. ज्यायान्, ९. विक्रम, १०. अत्यरिच्यत, ११. अग्रजातम्, १२. सर्वहुत, १३. सम्भरण, १४. ज्ञानमयी, १५. यज्ञमयी, १६. आनन्दमयी।
(७) गीताके चतुष्पाद पुरुष की १६ कला हैं। इनमें परात्पर अव्यक्त तथा वर्नन से परे है, अतः उसकी १ ही कला है-वर्णनातीत। बाकी ३ पादों की ५-५ कला हैं। इस प्रकार कुल १६ कला हैं।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१६॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥१७॥
(गीता, अध्याय १५)
अव्यय पुरुष-आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण, वाक्। (प्रश्नोपनिषद्)
अक्षर पुरुष-ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, सोम, अग्नि। ये ५ विश्व पर्वों के देवता या क्रिया रूप हैं।
क्षर पुरुष-स्वयम्भू, परमेष्ठी, सौर, चान्द्र, भू मण्डल।
(८) सृष्टि क्रम-मन्त्र अनुसार सृष्टि क्रम है-
१. सहस्र स्रोत, क्रिया तथा पल रूप में अनन्त है।
२. स्थूल रूप-इससे आरंभ कर उसका ज्ञान।
३. चतुष्पाद पूरुष के १ पाद से सृष्टि (४ पाद मिला कर पूरुष कहा है)।
४. अमृत ३ पाद आकाश में, निर्मित विश्व में व्याप्त।
५. विराट् दृश्य रूप, उसके अधिष्ठान रूप पूरुष।
६. विरल (गैस-घृत), तरल (द्रव-मधु) तथा ठोस पदार्थ (दधि) रूप-वायव्य (फैले हुए पदार्थ), आरण्य (सक्रिय किन्तु अनुपलब्ध), ग्राम्य (निर्माण के लिए उपलब्ध( पशु या पदार्थ।
७. सर्वहुत यज्ञ द्वारा ऋक् (मूर्त्ति), उसका क्षेत्र (साम), उनका आधार(अथर्व) बनने के बाद यजु (यज्ञ) चलता रहता है।
८. गति के लिए शक्ति (अश्व), यज्ञ का स्थान और साधन (गौ), समष्टि अव्यय (अज) सीधी क्रिया (अवि)।
९. यज्ञ स्थान से बाधक याअनुपयोगी पदार्थ की सफाई-देव (निर्माता प्राण), साध्य (विधि), ऋषि (ज्ञान तथा कार्य परम्परा)।
१०. प्रश्न तथा ११. उत्तर-सृष्टि के ४ वर्ण या प्रकार-ब्राह्मण (मुख या स्रोत), क्षत्रिय (रक्षक), वैश्य (पालक), शूद्र (कार्य में दक्षता)।
१२. आकाश में चन्द्र, सूर्य, वायु, प्राण, अग्नि तथा उनका मनुष्य रूप।
१३. आकाश में नाभि (केन्द्र), सिर, मध्य भाग, पद,कान, लोक-उनके मनुष्य रूप।
१४. ऋतु या ३ प्रकार की स्थितियों द्वारा निर्माण।
१५. ७ परिधि (लोक या सीमा), ३ x ७ समिधा (निर्माण सामग्री।
१६. यज्ञ द्वारा यज्ञ का साधन-परस्पर निर्भरता।
नारायण रूप (वाज सं., ३१/१७-२२)
१. अप् या नार से उत्पत्ति तथा उसका धारण।
२. अनन्त रूप के ज्ञानसे मृत्यु पर विजय।
३. प्रति निर्माण के भीतर प्रजापति की क्रिया।
४. देवों को शक्ति देने वाला।
५. ब्रह्म या उसके ज्ञाता के अधीन देव।
६. ब्रह्म द्वारा रचित सम्पत्ति के दृश्य-अदृश्य रूप-उसके द्वारा मुक्ति।
३. प्रोक्षण मन्त्र-
आपो हि ष्ठा मयो भुवः, ता न ऊर्जे दधात न, महे रणाय चक्षसे॥१॥
यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयते ह नः, उशतीरिव मातरः॥२॥
तस्मा अरं गमाम वो, यस्य क्षयाय जिन्वथ, आपो जनयथा च नः॥३॥
(ऋक्, १०/९/१-३, वाज सं, ११/५०-५२, ३६/१४-१६, अथर्व सं, १/५/१-३ आदि)
प्रोक्षण का अर्थ है पोंछना। यह मन्त्र पढ़ कर जल शरीर पर फेंकते हैं। स्नान आदि में जल द्वारा शुद्धि होती है। यहां भीतरी शुद्धि का भी संकेत है। शरीर के भीतर ७२ मुख्य नाड़ी या नाली हैं (दक्षिण भारतीय ब्राह्मी लिपि में नाळी का उच्चारण नाड़ी जैसा है)। जैसे घर की अशुद्धता को जल से धो कर नाली में बहा देते हैं, उसी प्रकार शरीर की अशुद्धता को भी नाड़ी में प्राण वायु रूपी जल के सञ्चार से साफ कर निकालते हैं। मुख्य प्राणायाम को भी नाड़ी शोधन कहते हैं। इस मन्त्र में गायत्री छन्द के ३ श्लोकों के २४ x ३ = ७२ अक्षर ७२ नाड़ियों के प्रतीक हैं।
त्रिपाद गायत्री छन्दों के ३ मन्त्रों में ९ पाद हैं। ये सृष्टि के ९ सर्गों के अप् या जल जैसे फैले विरल पदार्थ हैं।
स्वयम्भू मण्डल में १. रस से सरिर्, सलिल। परमेष्ठी मण्डल में अप्, अम्भ, साम्भ (या साम्ब) शिव,। सौर मण्डल मंथ मर के ३ रूप-शिव, शिवतर, शिवतम। पृथ्वी पर जल।
यद्वै तत्सुकृतं रसो वै सः। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/७)
समुद्राय त्वा वाताय स्वाहा,सरिराय त्वा वाताय स्वाहा । (वाज यजुर्वेद, ३८/७)
द्यौर्वाऽअपां सदनं दिवि ह्यापः सन्नाः। (शतपथ ब्राह्मण, ७/५/२/५६)
विभ्राजमानः सरिरस्य मध्य उप प्र याहि दिव्यानि धाम ।(वा॰ यजुर्वेद, १५/५२)
आापो वा अम्बयः । (कौषीतकि ब्राह्मणउपनिषद्, १२/२)
अम्भो मरीचीर्मरमापोऽदोऽम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं मरीचयः पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः । (ऐतरेय उपनिषद्, १/१/२)
नमः शिवाय च, शिवतराय च (वाज. यजु, १६/४१)
इसके अतिरिक्त आधिभौतिक रूप में पृथ्वी पर जल के विविध उपयोगों, शरीर की पाचन तथा शुद्धि क्रियाओं का उल्लेख विभिन्न टीकाओं में है।
संक्षेप में ९ पादों के संकेत हैं-१. विश्व के सभी स्तरों का स्रोत, २. ऊर्जा देने वाला, ३. भूमि को रमणीय बनाने वाला, ४. सबसे कल्याणकारी रस, ५. उसके भाग रूप जीव, ६. माता समान पालन करने वाला (उसकी शुद्धि से पृथ्वी पर सभी जीव स्वस्थ रहेंगे), ७. जल या जलवायु के अनुसार चलना, ८. जिसके क्षय या उपभोग द्वारा जीवन है, ९. यह निर्माण शक्ति देता है (जैसे कृषि के लिए पर्जन्य या वर्षा)।
"मिस्टिक पावर में प्रकाशित सभी लेख विषय विशेषज्ञों द्वारा लिखे जाते हैं। लेख में उल्लेखित तथ्यों व सूचनाओं का सम्पादन मिस्टिक पावर के अनुभवी एवं विशेषज्ञ सम्पादक मण्डल द्वारा किया जाता है। मिस्टिक पावर में प्रकाशित लेख पाठक को जानकारी देने तथा जागरूकता बढ़ाने के लिए तैयार किया जाता है। मिस्टिक पावर लेख में प्रदत्त जानकारी व सूचना को लेकर किसी तरह का दावा नहीं करता है और न ही जिम्मेदारी लेता है।"
:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
![](https://mysticpower.in/wp-content/uploads/2023/02/DONATION.jpeg)
![](https://mysticpower.in/wp-content/uploads/2023/10/contact-us-.png)