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क्या है अग्नि
श्रंगी ऋषि कृष्णदत्त जी-
संसार में हमें अग्नि की पूजा करनी है। अग्नि भी हमारा देवता है। मानो यह पञ्चीकरण है ये जड़ देवता कहलाते हैं। इन देवताओं का पूजन करना है। जिन देवताओं के पूजन करने से मानव के जीवन में एक सार्थकता आती है। मानव का जीवन तेजमय बन जाता है। परमात्मा की प्रतिभा का उसे ज्ञान होता है। परमात्मा के द्वारा उसके समीप विराजमान होने के लिए बेटा! वह योगश्वर, वह अनुसन्धानवेत्ता, वह देव के देवताओं का पूजक मानो परमात्मा के समीप जाने का प्रयास करता है।
मेरे प्यारे! अग्नि देवता कैसा है? बेटा! आयुर्वेदाचार्यो ने तो ८५ प्रकार की अग्नि मानी है। परन्तु यहाँ अग्नियों के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न प्रकार के विचार-विनिमय होते रहते हैं। एक अग्नि वह होती है जिस अग्नि में मानव यज्ञमान बन करके याग करता है। एक अग्नि वह होती है जिस अग्नि में मेरी प्यारी माता भोजन को तपाती हैं। एक अग्नि वह होती है जो ब्रह्मचारियों के हृदय में सदैव प्रदीप्त रहती है। एक अग्नि वह होती है जो ब्रह्मवेत्ताओं के हृदय में प्रदीप्त रहती है। एक अग्नि वह होती है जो गार्हपत्य कहलाती है। जो गृहस्थियों के आसनों पर रहती है। एक अग्नि वह होती है जो वानप्रस्थियों के हृदय में प्रदीप्त रहती है। मानव जब सन्यास को प्राप्त होता है वह अग्नि स्वरूप में परिणत होने वाली है। एक अग्नि वह है जो एक स्थान से दूसरे स्थान को मानव को वस्तु को प्रदान करने वाली है। एक अग्नि वह है बेटा! जो नाना प्रकार के परमाणुओं को गति देती है। एक अग्नि वह है जो नाना प्रकार के लोक-लोकान्तरों की परिक्रमा कराती है। एक अग्नि वह कहलाती है जिस अग्नि के सूत्र में बेटा! सर्वत्र ब्रह्माण्ड पिरोया हुआ है। सर्वत्र ब्रह्माण्ड है। मानो सूर्य उसी के तेज से तेजमय बन रहा है। वही तेजमय मेरे पुत्रो! इन पाँच महाभूतों कों अपने में एक ही सूत्र में चेतना में पिरो रहा है। तो बेटा! ये भिन्न-भिन्न प्रकार का अग्नि मानी जाती हैं। जब अग्नि देवताओं के समीप जाते हैं, हम अग्नि देवता का पूजन करना चाहते हैं।
मेरे प्यारे! एक ब्रह्मचारी देवता का पूजन करना चाहता है वह अग्नि की पूजा करना चाहता है। वह ब्रह्मचारी बेटा! अपनी पोथी को ले करके अग्नि की पूजा करना चाहता है। क्योंकि पोथी के समीप उसमें किसी के विचार हैं। पोथी में किसी को लेखनी है। तो मुनिवरों! देखो, वही लेखनी उस ब्रह्मचारी को अपने में परिणत करती है। वही लेखनी विचारों की अग्नि है, उसके हृदय में एक अग्नि प्रदीप्त हो रही है। जो उस लेखनी को पान कर रहा है, अपने में ग्रहण कर रहा है, मानो लेखनी का अध्ययन करता हुआ मन को उसमें संलग्न कराता है तो विचार आता है कि वह अग्नि की पूजा कर रहा है। वह अग्नि क्या है, मानो दोनों अग्नियों का समन्वय हो रहा है। दोनों अग्नियों का मिलान हो रहा है। द्वितीय को जो उच्चारण करने वाला है जो अध्ययन कर रहा है, प्रश्न कर रहा है, मनन कर रहा है एक वह गार्हपत्य नाम की अग्नि कहलाती है। उसमें रमण करता रहता है। अपने विचारों को बेटा! महान उज्ज्वल बनाता रहता है। कि मैं आज विशाल अग्नि में प्रदीप्त हो गया हूँ। उसी अग्नि से इस बाह्य लेखनी अग्नि से विचार की अग्नि से ब्रह्मचर्य को ऊँचा बना रहा है। जिस ब्रह्माग्नि के द्वारा मेरे प्यारे! ब्रह्मचारी बनते हैं, उस अग्नि को अपने में धारण करते हुए उस अग्नि का स्वतः ही पालन होता रहता है।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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