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मानस का केवट प्रसंग
श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)-
mysticpower – १. प्रसंग-गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस, अयोध्या काण्ड, दोहा ९९ से १०२ तक केवट प्रसंग का वर्णन है। वनवास होने पर लक्ष्मण तथा सीता जी सहित श्रीराम को मन्त्री सुमन्त जी ने रथ द्वारा गंगा तट तक पहुंचाया और लौट गये। वहां गंगा पार करने के लिए श्रीराम ने केवट से नाव मांगी तो उसने कहा कि भगवान राम की चरण धूलि के स्पर्श से शिला भी मुनि पत्नी अहल्या बन गयी थी, उसकी काठ की नाव भी बन सकती है। अतः वह बिना पैर धोये नाव पर नहीं बैठायेगा। पैर धोने के बाद नाव से तीनों को गंगा पार किया।
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भगवान राम के पास देने के लिए कुछ नहीं था तो सीता जी की तरफ देखा कि उनकी मुद्रिका दें। केवट ने उतराई लेने से मना कर दिया तथा कहा कि लौटने के समय जो भी देंगे वह स्वीकार करेगा। यहां वर्णन है कि भगवान भवसागर पार कराने वाले हैं, केवट केवल नदी पार कराता है। इस आशय के कई भजन हैं कि दोनों एक ही केवट जाति के हैं, इसलिए वह पैसे नहीं लेगा।इसका वर्णन कवितावली, अयोध्याकाण्ड, छन्द ५-१० में भी है।
अध्यात्म रामायण का केवट प्रसंग बालकाण्ड में है। सिद्धाश्रम में विश्वामित्र के यज्ञ रक्षा में असुरों का वध करने के बाद मुनि के साथ राम-लक्ष्मण मिथिला की तरफ चले। मार्ग में शिला रूप में स्थित गौतम मुनि की पत्नी अहल्या का उद्धार किया। यह गंगा के दक्षिण तट पर हुआ। उसके बादमिथिला जाने के लिए गंगा पार करते समय केवट प्रसंग है। इसमें केवट अपने परिवार वर्ग के साथ उनको नाव से पार कराता है और गुह नाम का उल्लेख है।
क्षालयामि तव पादपङ्कजं नाथ दारुदृषदोः किमन्तरम्।
मानुषीकरणचूर्णमस्ति ते पादयोरिति कथा प्रथीयसी॥३॥
पादाम्बुजं ते विमलं हि कृत्वा पश्चात् परं तीरमहं नयामि।
नो चेत्तरी सद्युवती मलेन स्याच्चेद्विभो विद्धि कुटुम्बहानिः॥४॥
(अध्यात्म रामायण, बाल काण्ड, सर्ग, ६)
अर्थात्, यह कथा प्रसिद्ध है कि आपके चरणों में मनुष्य बना देने वाला कोई चूर्ण है। शिला और काष्ठ में भेद ही क्या है? अतः मैं आपके चरणों को धो कर मल रहित करने के बाद ही पारले चलूंगा। नहीं तो आपके चरण स्पर्श से मेरी नौका सुन्दर युवती हो गयी तो मेरे कुटुम्ब की जीविका ही मारी जायेगी।
गुहस्तान् वाहयामास ज्ञातिभिः सहितं स्वयम्॥२१॥
अध्यात्म रामायण, बालकाण्ड सर्ग ५ में अहल्या की कथा है। इन्द्र से सम्बन्ध होने के कारण इन्द्र को सहस्र भग चिह्न होने का शाप दिया तथा अहल्या को शिला पर स्थित हो कर तप करने का शाप दिया। उस शिला को ही श्री राम ने पैर से छुआ था। वाल्मीकि रामायण में मिथिला के निकट गंगा के उत्तर तट पर अहल्या आश्रम कहा है। (बालकाण्ड, सर्ग ४८)। दोनों कथाओं को मानने से लगता है कि इन्द्र-अहल्या सम्बन्ध गंगा दक्षिण तट पर हुआ, किन्तु गौतम आश्रम गंगा के उत्तर था। वाल्मीकि रामायण, अयोध्या काण्ड, सर्ग ५२ में गुह की नाव से गंगा पार करने का वर्णन है, किन्तु पैर धोने की कथा नहीं है।
२. अहल्या कथा-मनुष्य रूप में अहल्या को ब्रह्मा की पुत्री और गौतम ऋषि की पत्नी कहा है (अध्यात्म रामायण, बालकाण्ड, ५/२०)। अथर्व वेद (२०/१३१/६) में कुश भूमि को अहल कहा है-अहल कुश वर्त्तक। इसके विपरीत कृषि उत्पाद को सीता कहा गया है। इसमें राजा रूप में इन्द्र को भाग (कर) मिलता था। सीता का अर्थ हल की नोक भी है। कथा के अनुसार राजा जनक द्वारा हल चलाने के समय सीता की उत्पत्ति हुई थी, अर्थात् भूसम्पत्ति का रूप सीता हैं।
इन्द्रः सीतां निगृह्णातु तां पूषाभिरक्षतु। सा नः पयस्वती दुहामुत्तरां समाम्॥
(ऋक्, ४/५७/७, अथर्व सं. ३/१७/४, कौशिक सूत्र, ७८/१०)
इन्द्र सीता को ग्रहण करें, पूषा सूर्य उसकी रखवाली करें और सीता पानी से भरी प्रत्येक वर्षा में धान्य प्रदान करती रहे।
सीता कृषि उत्पादन है जिसका भाग कर के रूप में राजा इन्द्र को मिलता है।
सीते वन्दामहे त्वार्वाची सुभगे भव। यथा नः सुमना असो यथा नः सुफला भुवः॥
(ऋक्, ४/५७/६, अथर्व, ३/१७/८, तैत्तिरीय आरण्यक, ६/६/२, कौशिक सूत्र, २०/१०)
हे सीता! हम तुम्हारी वन्दना करते हैं, हे सौभाग्यवती! हमारी ओर अभिमुख हो, जिससे तू हमारे लिए सुन्दर फल देने वाली हो।
गंगा के उत्तर भाग में सबसे अधिक कृषि होती थी। सभी कृषि उत्पाद (धान, गेहूं, यव आदि) दर्भ जाति के हैं। अतः उस क्षेत्र का नाम दर्भंगा हुआ। गंगा के दक्षिण अहल (जिसमें हल नहीं चले) वह कुश क्षेत्र मगध था, जिसे कीकट (बबूल) क्षेत्र भी कहते थे।
कृषि उत्पाद का १/६ अंश ही राजा को कर रूप में मिलता था, पर बिना हल से जोती हुई कुश भूमि या वन पूर्ण रूप से राजा का है (मनुस्मृति, ८/३८-३९)। मनुष्य रूप या सार्वजनिक सम्पत्ति रूप अहल्या का इन्द्र जार है-
(इन्द्र!) अहल्यायै जारेति (शतपथ ब्राह्मण, ३/३/४/१८, षड्विंश ब्राह्मण, १/१, तैत्तिरीय आरण्यक, १/१२/४)।
कुत्सित आचार का प्रदेश भी कीकट कहते थे-साधवः समुदाचारास्ते पूयन्त्यपि कीकटाः। (भागवत पुराण, ७/१०/१९)
शक्तिसंगम तन्त्र में चरणाद्रि (चुनार) से गृध्रकूट (गिद्धौर) तक के भाग को कीकट कहा है जिसमें मगध भी है-
चरणाद्रिं समारभ्य गृध्रकूटान्तकं शिवे ! ।
तावत् कीकटदेशः स्यात् तदन्तर्मगधो भवेत् ॥
(तृतीय सुन्दरी खण्ड, ७/५६)
मगध क्षेत्र में इन्द्र-अहल्या के अवैध सम्बन्ध से दुराचार फैला था, जिसका अन्त भगवान् राम के आगमन से हुआ। इसके पूर्व उन्होंने विश्वामित्र आश्रम से राक्षसों को निर्मूल कर दिया था।
३. भगवान का केवट रूप – भीष्मद्रोणतटा जयद्रथजला गान्धारनीलोत्पला।
शल्यग्राहवती कॄपेण महता कर्णेन वेलाकुला॥
अश्वत्थामविकर्णघोरमकरा दुर्योधनावर्तिनी।
सोत्तीर्णा खलु पाण्डवै: रणनदी कैवर्तक: केशव:॥
(गीता ध्यान मन्त्र)
भीष्म और द्रोण जिसके दो तट है जयद्रथ जिसका जल है, शकुनि ही जिसमें नीलकमल है, शल्य जलचर ग्राह है कर्ण तथा कॄपाचार्य ने जिसकी मर्यादा को आकुल कर डाला है, अश्वत्थामा और विकर्ण जिस के घोर मगर है, ऐसी भयंकर और दुर्योधन रूपी भंवर से युक्त रणनदी को केवल श्रीकृष्ण रूपी केवट (कैवर्त्त) की सहायता से पाण्डव पार कर गये।
अदो यद्दारु प्लवते सिन्धोः पारे अपूरुषम्।
तदारभस्व दुर्हणो तेन गच्छ परस्तरम्॥ (ऋग्वेद, १०/१५५/३)
= संसार सागर में जो अपौरुषेय दारु (दारु-ब्रह्म जगन्नाथ) तैर रहा है उस दुर्लभ दारु को पाकर ही मनुष्य सागर पार कर सकता है।
भगवान को विश्व पार कराने वाला नौका (प्लव), तारक आदि कहा है।
अनड्वाहं प्लवमन्वारभध्वं स वो निर्वक्षद् दुरितादवद्यात्।
आ रोहत सवितुर्नावमेतां षड्भिरुर्वीभिरमतिं तरेम॥ (अथर्व, १२/२/४८)
सविता या स्रष्टा की नौका पर चढ़ने से ६ ऊर्वी (लोक) पार करतेहैं (सप्तम परम लोक में जाते हैं)। यह भार ढोने में सक्षम (अनड्वाह) प्लव (नौका) है जो कठिनाई और पाप से बचाता है।
बाकी इष्ट कामों के यज्ञों को दुर्बल नाव कहा है-
प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा (मुण्डक उपनिषद्, १/२/७)
भगवान् को जानने पर ही मुक्ति होती है-
मागी नाव न केवट आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
(रामचरितमानस, अयोध्या काण्ड, ९९/२)
स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद, ब्रह्मैव भवति (मुण्डक उपनिषद्, ३/२/९)
संसार पार करने का सेतु-
अथ य आत्मा स सेतुः विधृतिः एषां लोकानां असंभेदाय नैतं सेतुं, अहोरात्रे तरतो न जरा, न मृत्युः, न शोको, न सुकृतं, न दुष्कृतं, सर्वे पाप्मानो अतो निवर्तन्ते, अपहत पाप्मा ह्येष ब्रह्म लोकः॥ (छान्दोग्य उपनिषद्, ८/४/१)
४. चरण धोना-किसी भी अतिथि या पूज्य के घर आने पर उसका चरण धोते हैं। षोडशोपचार पूजा में पैर धोने के लिए पाद्य देते हैं।
गंगा की उत्पत्ति की भी कथा है कि ब्रह्मा ने विष्णु के चरण जिस जल से धोये थे, वही गंगा है (कूर्म पुराण, १/४६ अध्याय, देवीभागवत पुराण, ८/७/१३ आदि)। आकाश में ब्रह्माण्ड का केन्द्रीय चक्र आकाश-गंगा है। पृथ्वी पर कई महाद्वीपों की मुख्य नदियों को पुराणों में गंगा कहा है। विष्णु के प्रत्यक्ष रूप सूर्य के ताप से समुद्र जल मेघ बनता है और वही वर्षा द्वारा नीचे आ कर नदी रूप में बहता है। भारत की गंगा का उद्गम कैलास निकट से है, जहां की पर्वतमाला शिव की जटा है। गंगा का अन्त गंगा सागर (वर्तमान नाम बंगाल की खाड़ी) में होता है, जो ब्रह्मा का कमण्डल है। ब्रह्म देश बर्मा (म्याम्मार = महा अमर) है, उसका क (जल) – मण्डल गंगा सागर हुआ, जिसका पश्चिम भाग (भारत का पूर्व तट) कर-मण्डल है।
अयोध्या तथा परिवार वर्ग के त्याग से श्रीराम आदि शान्त गम्भीर मुद्रा में थे। अतः उनको केवट ने हास्य की बातें की-
सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहंसे करुणा ऐन, चितइ जानकी लखन तन॥ (अयोध्या काण्ड, १००)
जिस मित्र और पूज्य के पास देने के लिए केवल पत्नी का गहना हो, वह लेना किसी प्रकार उचित नहीं है। अतः केवट ने कुछ नहीं लिया।
५. राम का काल-राम का काल पुराणों में कई प्रकार से कहा है-
(१) वैवस्वत मनु के बाद १२००० वर्ष के ऐतिहासिक युग में सत्य, त्रेता, द्वापर (४८०० + ३६०० + २४०० = १०८००) का अन्त ३१०२ ईपू में हुआ जब कलि का आरम्भ हुआ था। इसमें ३६० वर्षों के ३० युग हुए जिनमें २ जल प्रलय के थे। अतः कलि आरम्भ तक २८ युग हुए, जिनमें २४वें युग में राम हुए। अतः उनका युग आरम्भ ३१०२ + ४ x ३६० = ४५४२ ईपू में हुआ और ४१८२ईपू तक रहा।
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/९)-स वै स्वायम्भुवः पूर्वम् पुरुषो मनुरुच्यते॥३६॥ तस्यैक सप्तति युगं मन्वन्तरमिहोच्यते॥३७॥
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९)-त्रीणि वर्ष सहस्राणि मानुषाणि प्रमाणतः।
त्रिंशदन्यानि वर्षाणि मतः सप्तर्षिवत्सरः॥१७॥
षड्विंशति सहस्राणि वर्षाणि मानुषाणि तु। वर्षाणां युगं ज्ञेयं दिव्यो ह्येष विधिः स्मृतः॥१९॥
चत्वारि भारते वर्षे युगानि कवयोऽब्रुवन्। कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुष्टयम्॥२३॥
चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां च कृत युगम्।तस्य तावच्छती सन्ध्या सन्ध्यांशः सन्ध्यया समः॥२५॥
इतरेषु ससन्ध्येषु ससन्ध्यांशेषु च त्रिषु। एकन्यायेन वर्तन्ते सहस्राणि शतानि च॥२६॥
त्रीणि द्वे च सहस्राणि त्रेता द्वापरयोः क्रमात्। त्रिशती द्विशती सन्ध्ये सन्ध्यांशौ चापि तत् समौ॥२७॥
कलिं वर्ष सहस्रं तु युगमाहुर्द्विजोत्तमाः। तस्यैकशतिका सन्ध्या सन्ध्यांशः सन्ध्यया समः॥२८॥
मत्स्य पुराण अध्याय २७३-अष्टाविंश समाख्याता गता वैवस्वतेऽन्तरे। एते देवगणैः सार्धं शिष्टा ये तान् निबोधत॥७६॥
चत्वारिंशत् त्रयश्चैव भविष्यास्ते महात्मनः। अवशिष्टा युगाख्यास्ते ततो वैवस्वतो ह्ययम्॥७७॥
वायु पुराण अध्याय, ९८-
त्रेतायुगे तु दशमे दत्तात्रेयो बभूव ह। नष्टे धर्मे चतुर्थश्च मार्कण्डेय पुरःसरः॥८८॥
पञ्चमः पञ्चदश्यां तु त्रेतायां सम्बभूव ह। मान्धातुश्चक्रवर्तित्वे तस्थौ तथ्य पुरः सरः॥८९॥
एकोनविंशे त्रेतायां सर्वक्षत्रान्तकोऽभवत्। जामदग्न्यास्तथा षष्ठो विश्वामित्रपुरः सरः॥९०॥
चतुर्विंशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा। सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः॥९१॥
अर्थात् १०वें युग में दत्तात्रेय, १५वें में मान्धाता, १९वें में परशुराम तथा २४वें में राम हुए।
(२) दो प्रकार के बार्हस्पत्य संवत्सरों में प्रभव वर्ष मत्स्य तथा राम अवतार के समय हुआ था (विष्णु धर्मोत्तर पुराण, ८२/७-८, ८१/२३-२४)। दक्षिण भारत में पितामह मत से सौर वर्ष को ही बार्हस्पत्य वर्ष कहते हैं। उत्तर भारत में सूर्य सिद्धान्त मत से १ राशि में बृहस्पति के मध्यम गति के समय प्रायः ३६१ दिन ४ घण्टे का वर्ष मानते हैं। इस मत से ८५ सौर वर्ष में ८६ बार्हस्पत्य वर्ष होते हैं। दोनों मत से ६० वर्ष का चक्र ८५ x ६० = ५१०० वर्ष में पूर्ण होगा। अतः मत्स्य अवतार ९५३३ ईपू तथा राम अवतार ४४३३ ईपू में हुआ। मत्स्य अवतार का यह काल आधुनिक जल प्रलय के अनुमानित समय का भी है। दोनों अवतारों के समय प्रभव वर्ष का अर्थ है कि उस समय बृहस्पति कर्क राशि में थे। अतः मेष के बदले कर्क राशि में बृहस्पति रहने पर ही ६० वर्ष चक्र आरम्भ होता है।
(३) वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड सर्ग १८ में राम जन्म समय की ग्रह स्थिति दी है-
ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतूनां षट् समत्ययुः। ततश्च द्वादशे मासे चैत्रे नावमिके तिथौ॥८॥
नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु। ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह॥९॥
प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतम्। कौशल्याजनयद् रामं सर्वलक्षण संयुतम्॥१०॥
= (पुत्र कामेष्टि= अश्वमेध) यज्ञ के ६ ऋतु बाद १२वें मास में चैत्र नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र (जिसका देवता अदिति है) में जन्म हुआ जब ५ ग्रह स्व (स्थान) या उच्च के थे। जब कर्क लग्न, बृहस्पति और चन्द्र का एक साथ उदय हो रहा था, सभी लोकों से वन्दित जगन्नाथ का भी उदय हुआ तथा कौशल्या ने सभी लक्षणों से युक्त राम को जन्म दिया।
अतः राम जन्म के समय सूर्य ९० अंश पर, चन्द्र, गुरु, लग्न ९०अंश ०’१”, तथा चैत्र नवमी (सौर मास की) थी। गुरु और सूर्य प्रायः उच्च पर थे (इनके उच्च ९५अंश, १०अंश हैं), अन्य ५ ग्रह पूर्ण उच्च के थे-मंगल २९८ अंश, शुक्र ३५७ अंश, शनि २०० अंश। चन्द्र का उच्च ५८ अंश है पर उसका स्थान ९०अंश दिया है जो उसका अपना स्थान है। है। बुध का उच्च १६५ अंश है पर यह सूर्य से २८ अंश से अधिक दूर नहीं हो सकता। अतः बुध राहु-केतु की गणना करनी होगी। राम की ३५ पीढ़ी बाद बृहद्बल महाभारत में मारा गया। अतः राम का काल महाभारत (३१३८ ई.पू.) से प्रायः १३०० वर्ष पूर्व होगा। ३५०१-४७०० ई.पू. के सभी वर्षों की गणना करने पर केवल ४४३३ ई.पू. में ही अयोध्या की सूर्योदय कालीन तिथि नवमी थी (चैत्र शुक्ल) जो अगले सूर्योदय तक थी। इस गणना से राम का जन्म ११-२-४४३३ ई.पू., रविवार, १०-४७-४८ स्थानीय समय पर हुआ। सूर्योदय ५-३५-४८, सूर्यास्त १८-२८-४८ था। अयनांश १९-५७-५४, प्रभव वर्ष था। अन्य ग्रह बुध २१ अंश, राहु १२अंश ४’४६”। श्री नरसिंह राव की पुस्तक- Date of Sri Rama, १९९०, १०२ माउण्ट रोड, मद्रास के अनुसार अन्य ८८ तिथियां दी हैं।
(४) मान्धाता १५ वें त्रेता में हुये थे जो ९१०२-४ x ३६० = ७६६२ ई.पू.में शुरु हुआ तथा ७३०२ ई.पू. तक चला। उसके १८ पीढ़ी बाद राजा बाहु यवन आक्रमण में मारा गया था। यह काल मेगास्थनीज, सोलिनस, एरियन ने सिकन्दर के ६४५१ वर्ष ३ मास पूर्व, अर्थात् अप्रैल, ६७७७ ई.पू. कहा है। १८ पीढ़ी में प्रायः ८०० वर्ष का अन्तर ठीक है। परशुराम को बाहु या डायोनिसस के १५ पीढ़ी बाद कहा है। उनके निधन के बाद ६१७७ ई.पू. से कलम्ब संवत् चला जो अभी भी केरल में प्रचलित है। उस काल में ग्रीक लेखकों ने १२० वर्ष तक गणतन्त्र कहा है, जो २१ बार क्षत्रियों का विनाश था। यह १९ वें त्रेता अर्थात् राम से प्रायः १८०० वर्ष पूर्व थे।
६. राम काल की परिस्थिति-रावण शक्तिशाली था किन्तु भारत को प्रत्यक्ष युद्ध में हराने में असमर्थ था। दशरथ ने भी असुरों को हराया था जिस युद्ध में कैकेयी उनके साथ गयी थी। प्रत्यक्ष युद्ध में असमर्थ होने के कारण रावण ने पाकिस्तान की तरह अपने घुसपैठिए और आतंकवादी भेज रखे थे। दक्षिण भारत के किष्किन्धा राजा बाली से भी वह पराजित हुआ था, अतः उससे सन्धि कर मैत्री कर ली थी और उसकी सहायता से दण्डकारण्य में अपनी सेना खर-दूषण के नेतृत्व में रखी थी। समाज में घुसे आतंकवादियों से प्रत्यक्ष युद्ध सम्भव नहीं था। उसके लिए समाज में घूम घूम कर उनको समाप्त करना आवश्यक था। अतः विश्वामित्र ने दशरथ की सेना के बदले केवल राम लक्ष्मण को साथ लिया था। रावण के घुसपैठियों को उन्होंने आततायी कहा है तथा कहा कि बालक, वृद्ध, स्त्री कोई भी आततायी हो, उसे देखते ही मार देना चाहिए। यही से रावण के विरुद्ध युद्ध का आरम्भ हो गया था।
रावण का राज्य काफी बड़ा था। लंका केवल राजधानी थी। स्वर्णभूमि आस्ट्रेलिया थी। अफ्रीका के माली, सुमालिया उसके राज्य या संघ में थे। माली-सुमाली को रावण का नाना कहा गया है। अतः उस पर आक्रमण करने के लिए वानर (वननिधि समुद्र में चलने वाले, बन्दरगाह के नियन्त्रक) तथा शृङ्गवेरपुर (सिंगापुर) की सहायता आवश्यक थी। भारत के नक्शे में सिंगापुर सींग (शृङ्ग) की तरह दीखता है, अतः उसे शृङ्गवेरपुर कहते थे। उस पर नियन्त्रण रखने वाला ही आस्ट्रेलिया तथा लंका के समुद्रों पर प्रभुत्व रख सकता है। अतः राक्षसों के विरुद्ध युद्ध के आरम्भ में ही शृङ्गवेरपुर के राजा की सहायता ली (अध्यात्म रामायण के अनुसार ताड़का वध के बाद ही)। भारत का शृङ्गवेरपुर राम से सम्पर्क के लिए उसके दूतावास जैसा होगा। वाल्मीकि रामायण में स्पष्ट रूप से १८ सेनापतियों का नाम सहित वर्णन किया है, जो १८ क्षेत्रों में युद्ध के दायित्व में थे (युद्धकाण्ड, अध्याय २६, २७)।
७. काव्य नाटक परम्परा-नाट्य का अर्थ है-नृत्य, गीत, वाद्य का समन्वय। इसे तौर्यत्रिक भी कहा है। त्रिक = ३ का समन्वय। तौर्य या तुरीय का अर्थ है चतुर्थ। ३ के समन्वय से वाक्य का अर्थ और भाव रूप चतुर्थ तत्त्व आता है।
तौर्यत्रिकं नृत्तगीतवाद्यं नाट्यमिदं त्रयम् (अमर कोष, १/७/३०)
गीतं गानमिति प्रोक्तं वाद्यमातोद्यमिष्यते।
नृत्यं तु ताण्डवं लास्यं त्रितयं नाट्यमुच्यते॥९३॥
तालः कालक्रियामानं लयः साम्यमुदाहृतम्।
अङ्गहारोङ्गविक्षेपः सूच्योऽर्थोऽभिनयः स्मृतः॥९४॥(हलायुध कोष)
कालक्रिया या लय के साथ वाक्य कथन गीत है। उसी लय में यन्त्र का शब्द वाद्य है। वाद्य के साथ शरीर की गति नृत्य है। नृत्य का समरूप लय और भाव के साथ समन्वय लास्य है। बार बार लय तोड़ना ताण्डव है। लास्य या रास से सृष्टि होती है, ताण्डव से प्रलय।
केवल ताल और लय के अनुसार अंग संचालन नृत्त है। इसके साथ भाव प्रदर्शन नृत्य है। वाक्य और कथा के अनुसार पूर्ण भाव प्रदर्शन नाट्य है।
भावाभिनय हीनन्तु नृत्तमित्यभिधीयते। रसभावव्यञ्जनायुक्तं नृत्यमित्यभिधीयते। नाट्यं तन्नाटकं चैव पूज्यं पूर्वकथायुतम्। (अभिनय दर्पण, १५-१६)
शार्ङ्गदेव के संगीत रत्नाकर के अनुसार नाट्यशास्त्र की परम्परा है-
सदाशिव, शिव, ब्रह्मा, भरत, कश्यप, मतंग, याष्टिक, दुर्गा, शक्ति, शार्दूल, कोहल, विशाखिल, दत्तिल, कम्बल, अश्वतर, वायु, विश्वावसु, रम्भा, अर्जुन, नारद, तुम्बुरु, आञ्जनेय (हनुमान्), मातृगुप्त (श्रीहर्ष के राजकवि), नन्दिकेश्वर, स्वाति, राहुल, विन्दुराज, क्षेत्रराज, रुद्रट।
इसके अतिरिक्त व्याख्याकाअहैं-उद्भट, लोल्लट, शङ्कुक, भट्टतौत, अभिनवगुप्त, कीर्त्तिधर, मातृगुप्त, हर्ष, भट्टयन्त्र, राहुल, नान्यदेव आदि।
इनमें हनुमान और मतंग रामायण काल के हैं। इसके अतिरिक्त वाल्मीकि ने काव्य और नाटक दोनों की परम्परा आरम्भ की।
वाल्मीकि को आदि कवि कहा गया है। क्रौञ्च वध के बाद वाल्मीकि द्वारा अनुष्टुप् छन्द में दुःख व्यक्त करने के बाद रामायण की रचना का उल्लेख रामायण अध्याय (१/२) में है।
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीं समाः। यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥१४॥
पादबद्धोऽक्षरसमस्तन्त्रीलयसमन्वितः। शोकार्तस्य प्रवृत्तो मे श्लोको भवतु नान्यथा॥१७॥
पद्मपुराण अध्यायों (५/१०, ५/५४, ५/६६/१५०) में भी यह कथा है। यदि उनके व्यक्त विचार को अनुष्टुप् छन्द में कहा गया है, तो इसका अर्थ है कि काव्य तथा छन्द पहले से थे। वेद भी पहले से थे जिनमें छन्दों में सूक्त हैं। यह आदि-काव्य कैसे है? इसका एक उत्तर पद्म पुराण, पाताल खण्ड, अयोध्या माहात्म्य में कहा गया है-
शापोक्त्या हृदि सन्तप्तं प्राचेतसमकल्मषं। प्रोवाच वचनं ब्रह्मा तत्रागत्य सुसत्कृतः॥
न निषादः स वै रामो मृगयां चतुर्मागतः। तस्य संवर्णनेन सुश्लोक्यस्त्वं भविष्यसि॥ यहां-मा निषाद = मायां लक्ष्मीं निषीदति, इति रामः।
क्रौञ्च मिथुन = रावण+ मन्दोदरी। अगमः = आगम + निगम।
क्रौञ्च मिथुन जैसे सभी काममोहित दुःख पाते हैं। रावण जैसा सर्वविजयी भी नष्ट हो गया। यह गाथा शाश्वत है।
ईशावास्योपनिषद् में भी कहा है कि मन के भीतर परा वाक् को ज्यों का त्यों बाहर व्यक्त करने पर वह शाश्वत रहता है-
स पर्यगात् शुक्रम् अकायम् अव्रणम् अस्नाविरम् शुद्धम् अपापविद्धम् कवि मनीषी परिभूः स्वयम्भूः याथातथ्यतो अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः।
शाश्वत होना ही काव्य का लक्षण है। किसी घटना का वर्णन वाक्य (फारसी में वाकया) है। उसके शाश्वत रूप का वर्णन काव्य (वाक्य का वर्ण विपर्यय) है।
भगवान् राम के पुत्र लव-कुश का जन्म भी वाल्मीकि आश्रम में हुआ था। रामायण की रचना के अतिरिक्त लव-कुश को इसके गायन और अभिनय की शिक्षा दी थी। इस कला को कुशीलव कहा गया है। ये लोग घूम घूम कर गाते हुए कथा का प्रचार करते हैं। नृत्य द्वारा कथा प्रचार कथक है।
८. कुछ भक्ति गीत-राम-केवट संवाद के आधार पर कई भक्ति गीत हैं। सूरदास के कुछ भजन उद्धृत हैं-ले भैया केवट उतराई। रघुपति महाराज इत ठाढ़े तैं कत नाउ दुराई। जबहिं सिला ते भई देवगति जबही चरन छुआई। हौं कुटुम्ब कैसे प्रतिपालौं वैसी यह ह्वै जाई। जाके चरन रेनु की महिमा सुनियत अधिक बड़ाई। सूरदास प्रभु अगनित महिमा वेद पुराननि गाई॥
नवका नाही हौं लौ आऊँ। प्रगट प्रताप चरन को देख्यौं ताहि कहाँ लौं गाऊँ। कृपासिन्धु पै केवट आयो कंपत करत जु बात। चरन परसि पाषान उड़त है मम बेरी उड़ि जात। जौ यह बधू होइ काहू की दार सरूप धरै। छूटत देह जाइ सरिता तजि पग सों परस करै। मेरी सकल जीविका यामें रघुपति मुक्ति न कीजै। सूरदास चढ़ियौ प्रभु पीछे रेनु पखारन दीजै।
मेरी नवका जिन चढ़ो त्रिभुवनपति राइ। मो देखत पाहन उड़े मेरी काठ की नाइ। मैं खेबी ही पारको तुम उलटी मँगाइ। मेरो जिय यौंही डरै मत होइ सिलहाइ। मैं निरबा मेरे बल नहीं जौ और गढ़ाउँ। मम कुटुम्ब याही लग्यो ऐसी कहाँ पाउँ। मैं निरधन मेरे धन नहीं परिवार घनेरा। सेमर ढाक पलास काटि तुम बान्धो खेरा। बार बार श्रीपति कहैं झीवरा नहीं मानै। मन परतीति न आवहि उडतिहि जानै। नेरे ही जल थाह है चलो तुम्हें बताउँ। सूरदास की बेनती नीके पहुँचाउँ।
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