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मनश्चक्र महात्म्य
श्री सुशील जालान
mysticpower- * सुषुम्ना नाड़ी में तीन सूक्ष्म नाड़ियाँ होती हैं, #चित्रिणी, #वज्रिणी और #ब्रह्म। ये तीनों ही शिवलोक की अभिन्न अंग हैं। किसी सक्षम ब्रह्मगुरु के अनुग्रह से ध्यान-योगी साधक तीनों नाड़ियों को सक्रिय कर सकता है। ब्रह्मनाड़ी तीनों में सबसे कठिन है जो सर्वोच्च शक्ति प्रदान करती है, जिसे #परमेश्वरी के रूप में जाना जाता है, जो भगवान शिव की ही सर्वोच्च शक्ति है।
* त्रेतायुग में महाबली लंकेश रावण ने मुख्य रूप से सिद्धियों और वेद का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपनी चित्रिणी नाड़ी को जाग्रत किया था भगवान् शिव की उपासना से, तप से। यह नाड़ी चंद्ररश्मियों द्वारा दर्शायी जाती है #मनश्चक्र में, जो आज्ञा चक्र के विपरीत, सिर के पीछे के भाग में स्थित है।
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* भगवान् श्रीकृष्ण ने भी 5000 वर्ष पूर्व राधा और गोपियों के साथ अपने दिव्य महारास के लिए मनश्चक्र में अपनी योगमाया का उपयोग किया था। श्रीमद्भागवतम्, 10वाँ स्कंध, अध्याय 29-33, जिसे #रासपञ्चाध्यायी के नाम से भी जाना जाता है, उसी का विवरण देता है। इसका प्रथम श्लोक है,
“भगवान् अपि ता रात्री: शरद उत्फुल्ल मल्लिका:।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायाम् उपाश्रित:॥”
– चित्रिणी नाड़ी में शरद पूर्णिमा के चंद्रमा का शुभ्र आलोक रहता है, शरद ऋतु सम ऋतु है, समनाड़ी सुषुम्ना की द्योतक है, योगमाया योगिनी शक्ति विशेष है जिसके उप-आश्रय से, अर्थात् प्रयोग से, मनश्चक्र जाग्रत कर, भगवान् श्रीकृष्ण ने महारास रचा, अर्थात् अपने आपको स्वयं के अनेक रूपों में, राधा और गोपियों के रूपों में, रच कर अलौकिक रासलीला में रमण किया, स्वयं के आनंद के लिए।
– यह कामेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण और उनकी आह्लादिनी योगमाया कामेश्वरि सखि ललिता की प्रणय लीला है, महिमा महासिद्धि का उपयोग है।
* सक्षम योगी योगारूढ़ होकर अपने शुक्राणुओं को ऊर्ध्व कर मनश्चक्र में योगिनी शक्ति का उपयोग करता है। चौंसठ योगिनियों में छप्पन भगवान् श्रीकृष्ण को प्रिय थीं। इसीलिए अन्नकूट महोत्सव में छप्पन भोग अर्पित किए जाते है भगवान् श्रीकृष्ण को। श्रीविद्या/ब्रह्मविद्या के अंतर्गत चौंसठ योगिनियां प्रकट होती हैं।
* सभी 7 ग्रहों का अपना प्रभाव मूलाधार चक्र से रीढ़ की हड्डी के अंदर गले में स्थित विशुद्धि चक्र/कण्ठ तक होता है। यहां कालकूट विष विद्यमान है, आकाशतत्त्व है। एक बार जब योगी की चेतना विशुद्धि चक्र को पार कर मुंड में प्रवेश कर जाती है, तो योगी इन ग्रहों पर विजय प्राप्त कर लेता है और केवल राहु तथा केतु का खेल रह जाता है। यहां राहु का, सूर्य और चंद्र, क्रमशः पिंगला और इड़ा नाड़ियों का ग्रहण है। राहु, केतु को छोड़कर अन्य सभी ग्रहों के गुणों को धारण कर सकता है।
* ऋग्वेद अस्यवामीय सूक्त की ऋचा 39 स्पष्ट रूप से कहती है कि यह परम व्योम अक्षर(नाश रहित) ऋचाओं से भरा हुआ है,
यथा –
“ऋ॒चो अ॒क्षरे॑ पर॒मे व्यो॑म॒न्यस्मि॑न्दे॒वा अधि॒ विश्वे॑ निषे॒दुः।
यस्तन्न वेद॒ किमृ॒चा क॑रिष्यति॒ य इत्तद्वि॒दुस्त इ॒मे समा॑सते ॥”
– अस्य वामीय सूक्त वाम नाड़ी चित्रिणी के संदर्भ में कहता है कि इस परम् व्योम में वेद की सभी ऋचाएं अक्षर रूप में, अर्थात् अमिट रूप से विद्यमान हैं। महर्षि वेदव्यास ने भी इसी मनश्चक्र में स्थित चित्रिणी नाड़ी का आलम्बन कर एक वेद को चार भागों में विभाजित किया था, उपयोग कीदृष्टि से, 5000 वर्ष पूर्व।
मनश्चक्र जाग्रत करने की विधि –
* सर्वप्रथम अनुलोम विलोम प्राणायाम से इड़ा और पिंगला नाड़ियों को ‘सम’ कर सुषुम्ना नाड़ी को जाग्रत किया जाता है। इसके साथ मूलाधार चक्र का स्वाधिष्ठान चक्र के साथ योग कर, मूलबंध, उड्डीयानबंध और जालंधर बंध लगाए जाते हैं।
* शक्तिचालिनी व खेचरी मुद्राओं के उपयोग से नाभिस्थ मणिपुर चक्र जाग्रत किया जाता है जहां से सुषुम्ना नाड़ी का उद्गम होता है। योगी की चेतना कंठ में स्थित विशुद्धि चक्र तक उठ जाती है। यहां कालकूट विष विद्यमान है, आकाशतत्त्व है, योगी के लिए सृष्टि का लोप है।
* कालकूट पार करना, अर्थात् काल पर विजय प्राप्त करना है। इससे ऊर्ध्व है मुण्ड में स्थित मनश्चक्र, जहां सुषुम्ना नाड़ी में सुषुप्तावस्था का बोध होता है। सुषुप्ति में ही चित्रिणी नाड़ी प्रकट होती है जहां योगी वेदों में निहित विज्ञान का उपयोग करने में समर्थ हो जाता है।
* योग का सिद्धांत है, जहां प्राण, वहीं मन। प्राणायाम से, सूक्ष्म हुए प्राण (वायु) से, अंत:करण जाग्रत होता है, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त। मनश्चक्र को अनाहत चक्र भी कहते हैं। यह हृदयाकाश में है और मुण्ड में दृष्टिगोचर होता है।
* चित्रकूट, चित्रिणी नाड़ी को, चित्त को कहते हैं। यहां बुद्धि तत्त्व का उपयोग, अर्थात् ऋचाओं का बोध/ऋत् किया जाता है पश्यन्ती वाणी में और अहंकार तत्त्व से सिद्धियों का उपयोग किया जाता है। अहंकार का यहां अर्थ है स्वेच्छा से, स्वात्मा से।
* पश्यन्ती वाणी में चैतन्य तत्त्व उपलब्ध होता है आत्मा को जब आत्मा जीव भाव का त्याग कर निर्गुण और निराकार स्वरूप में प्रकट होता है हृदयाकाश में। यह प्राणजय सिद्धि है, श्वास पर निर्भरता नहीं रहती है योगी की।
* सक्षम आध्यात्मिक योगी गुरु के सान्निध्य में यह साधना संपन्न की जा सकती है। बारह वर्षों के एकाधिक चक्रों में यह साधना होती है ब्रह्मचर्य और मंत्र-योग से। गायत्री महामंत्र पुरश्चरण भी उपयोगी होता है। इष्टदेव के अनुग्रह से, बाह्य केवल कुंभक प्राणायाम और खेचरी आदि योग विद्याओं के सतत् अभ्यास से, भौतिक विषयों में मानसिक त्याग व वैराग्य से, मनश्चक्र जाग्रत हो सकता है।
* जब वैराग्य घनीभूत हो जाता है और मनश्चक्र की सिद्धियों से भी उपराम होता है योगी तपश्चर्या में, तब आत्मचेतना कपाल में स्थित आज्ञा चक्र – सहस्रार में प्रवेश करती है ब्रह्मनाड़ी का आलंबन कर। यहां योगी परमेश्वरी शक्ति का बोध करता है, ब्रह्म-ऋषि हो जाता है। वसिष्ठ और विश्वामित्र सहस्रार जाग्रत करते थे, भगवान् श्रीराम, श्रीकृष्ण और गौतम बुद्ध भी। रावण और हनुमान नहीं पहुंच सके सहस्रार में।
* मनश्चक्र जाग्रत कर योगी अनेक रूप धारण कर सकता है, काल और स्थान के प्रभाव से मुक्त रहता है। अष्ट महासिद्धियां, अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, ईशित्व, वशित्व और प्रकाम्य, उसके अधीन हो जाती हैं। आज्ञा चक्र – सहस्रार में भी अष्टमहासिद्धियों का उपयोग किया जा सकता है।
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