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मनुस्मृति की मौलिक मान्यताएँ
डॉ० सुरेन्द्र कुमार-(मनुस्मृति भाष्यकार एवं समीक्षक)
mystic power – भारतीय राजनीति का आचरण बहुत उच्छुंखल है। तटरहित बरसाती नदी के समान निहित स्वार्थों के लिए उसकी धारा किस ओर मुड़ जाये, कुछ कहा नहीं जा सकता। चुनाव जीतने के लिए उसे बस, कोई “मुद्दा” रूपी ब्रह्मास्त्र चाहिए, चाहे उसके प्रक्षेपण का परिणाम देश और समाज के लिए कितना ही विघटनकारी और विनाशकारी हो! इसी लक्ष्य को पाने के लिए कुछ राजनीतिक दलों ने, प्राचीन भारतीय इतिहास के अनुसार, ‘मानवसृष्टि के आरम्भिक काल में जन्मे महर्षि मनु को खोद निकाला है और उसके नाम पर एक झूठा मुद॒दा गढ़ लिया है–‘मनुवाद ‘ |
“मनुवाद’ शब्द हवा में उछाल तो दिया गया है किन्तु उसका अर्थ स्पष्ट नहीं किया गया है। इसका प्रयोग भी उतना ही अस्पष्ट और लचीला है, जितना राजनीतिक शब्दों का। किन्तु जिन सन्दर्भों में इसका प्रयोग किया जा रहा है उससे स्पष्ट होता है कि मनु और मनुवाद के विषय में भ्रान्तियों का बोलबाला है और वे किंवदन्तियों के समान फैल रही हैं। यदि हम मनुस्मृति के निष्कर्ष के अनुसार मनुवाद का अर्थ करें तो सही अर्थ होगा–‘गुण- कर्म-योग्यता के श्रेष्ठ मूल्यों के महत्व पर आधारित विचारधारा ‘, और तर “अगुण-अकर्म-अयोग्यता के अभ्रेष्ठ मूल्यों पर आधारित विचारधारा’ को कहा जायेगा–‘गैर मनुवाद ‘। जो इसके विपरीत अर्थ में *मनुवाद’ शब्द का प्रयोग करते हैं वे स्वयं भ्रमित हैं और अन्यों को भ्रमित कर रहे हैं।
आश्चर्य तो तब होता है जब हम ऐसे लोगों को मनु और मनुस्मृति का विरोध करते हुए पाते हैं, जिन्होंने मनुस्मृति को पढ़ने की बात तो दूर,उसकी आकृति तक देखी नहीं होती। सामान्य व्यक्तियों की बात छोड़ दीजिए, डॉ० अम्बेडकर जैसे व्यापक अध्येता भी मनु-विरोध के प्रवाह में इतने बह गये हैं कि उन्हें प्रत्येक शूद्र-विरोध मनुविहित नजर आता है।
शंकराचार्य द्वारा लिखित शूद्रविरोधी वचनों को भी उन्होंने मनुस्मृति-प्रोक्त कहकर मनु के खाते में जोड़ दिया है। साधारण लेखकों में मनु के नाम पर जो अराजकता पाई जाती है, उसका विवरण लम्बा है। मनुस्मृति-विरोधी सभी लोगों में कुछ एकांगी और पूर्वाग्रहयुक्त बातें समानरूप से पाई जाती हैं–
- वे कर्मणा वर्णव्यवस्था को सिद्ध करने वाले आपत्तिरहित श्लोकों और जिनमें स्त्री-शूद्रों के लिए हितकर और सद्भावपूर्ण बातें हैं, जो कि पूर्वापर प्रसंग से सम्बद्ध होने के कारण मौलिक सिद्ध होते हैं, को उद्धृत ही नहीं करते। केवल आपत्तिपूर्ण श्लोकों, जो कि प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं, को उद्धृत करके निन्दा-आलोचना करते हैं।
- उन्होंने इस शंका का समाधान नहीं किया है कि एक ही पुस्तक में, एक ही प्रसंग में स्पष्टतः परस्पर-विरोधी और प्रसंग-विरोधी कथन क्यों पाये जाते हैं? और आपने दो कथनों में से केवल एक कथन को ही क्यों ग्रहण किया ? दूसरे की उपेक्षा क्यों की ? यदि वे लोग इस प्रश्न पर अपने लेखन में विचार करते तो उनकी आपत्तियों का उत्तर उन्हें स्वयं मिल जाता। न आक्रोश में आने का अवसर आता, न विरोध का, अपितु मनु-सम्बन्धी बहुत-सी भ्रान्तियों से भी बच जाते।
‘मनुविषयक प्रमुख तीन भ्रान्तियाँ: मनु और मनुस्मृति के सम्बन्धमें पाई जाने वाली भ्रान्तियों को मुख्यरूप से तीन वर्गों में बाँठ जा सकता है-
(क) मनु ने जन्म पर आधारित जाति-पांति व्यवस्था का निर्माण किया।
(ख) उस व्यवस्था में मनु ने शुद्रों अर्थात् वर्तमान दलितों के लिए पक्षपातपूर्ण एवं अमानवीय विधान किये हैं, जबकि सवर्णों, उनमें भी ‘विशेषत: ब्राह्मणों को विशेषाधिकार प्रदान किये हैं। इस प्रकार मनुद्रविरोधी थे।
(ग) मनु स्त्रीविरोधी भी थे। उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार नहीं दिये। मनु ने स्त्रियों की निन्दा की है।
इन तीन भ्रान्तियों के समाधान के लिए बाह्य प्रमाणों और मतों की अपेक्षा मनुस्मृति के अन्त:साक्ष्यों को प्रस्तुत करना अधिक प्रामाणिक एवं उपयोगी रहेगा, अत: उन्हीं के आधार पर निष्कर्ष दिये जाते हैं–
मनु वर्णव्यवस्था के प्रवर्तक हैं, जातिव्यवस्था के प्रवर्तक नहीं हैं–महर्षि मनु उस आदियुग के व्यक्ति हैं जब जाति की अवधारणा अस्तित्व में ही नहीं आई थी, अत: मनुस्मृति में जन्म पर आधारित जातिव्यवस्था नहीं है अपितु गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित व्यवस्था है, जो ‘वेदमूलक है। यह मूलतः तीन वेदों ( ऋग्० 0/0/-2; यजु० 3१/0-
47; अथर्व० 9/6/5/6) में पाई जाती है।’
राजर्षि मनु ने इसे वेदों से ग्रहण करके अपने शासन में क्रियान्वित किया तथा अपने धर्मशास्त्र के द्वारा प्रचारित एवं प्रसारित किया। यह समझ लेना आवश्यक है कि वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी दो व्यवस्थाएँ हैं। एक की उपस्थिति में दूसरी नहीं टिक सकती। इनके अन्तर्निहित अर्थभेद को समझकर इनके मौलिक अन्तर को आसानी से समझा जा सकता है। वह यह है– वर्णव्यवस्था में वर्ण प्रमुख हैं और जातिव्यवस्था में जाति अर्थात् “जन्म! प्रमुख है। बालक या व्यक्ति “वर्ण” का अपनी रुचि के अनुसार चयन करता है, जबकि जाति माता-पिता से जन्म होते ही निर्धारित हो जाती है। वर्ण कभी भी उसकी योग्यता को ग्रहण कर बदला जा सकता है जबकि “जाति जो जन्म से निर्धारित हो गयी, वह मृत्युपर्यन्त रहती है। जब तक गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर व्यक्ति इन समुदायों का वरण करते रहे, तब तक ‘वह वर्णव्यवस्था कहलाई। जब जन्म से ब्राह्मण और शूद्र आदि वर्ग माने जाने लगे तो वह जातिव्यवस्था बन गयी। वरण करने अर्थ में “वृज्’ धातु से बने “वर्ण’ शब्द का अर्थ ही यह संकेत देता है कि जब यह व्यवस्था बनी तब यह गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार “वरण’-चयन की जाती थी, जन्म से नहीं थी।’ भारतीय समाज में जन्मना जातिवाद की भावना बौद्धकाल से कुछ शताब्दी पूर्व ही पनपी है। मनु की कर्मणा वर्णव्यवस्था का साधक एक बहुत बड़ा प्रमाण यह है कि प्रथम अध्याय में मनु ने केवल चार वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख किया है, वर्णोत्पत्ति के उस प्रसंग में किन्हीं जातियों अथवा गोत्रों का परिगणन नहीं किया है। यदि मनु के समय जातियाँ होतीं और जन्म के आधार पर वर्ण का निर्धारण होता तो वे चार वर्णों के उल्लेख के प्रसंग में उन जातियों का परिगणन अवश्य करते और बतलाते कि अमुक जातियाँ या गोत्र ब्राह्मण हैं और अमुक शूद्र। इसके विपरीत मनु, जन्माधारित महत्ताभाव को उपेक्षणीय समझते हैं, (3/09), यहाँ तक कि आदर-बड़प्पन के मानदण्डों में कुल-गोत्र-जाति का उल्लेख तक नहीं है, केवल विद्वत्ता, सत्कर्म आदि का है। यदि हम मनु को जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक मान लेते हैं तो इससे मनुस्मृतिरचना का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जायेगा, क्योंकि यदि कोई व्यक्ति जन्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र माना जाने लगे, तो वह ‘विहित कर्म करे या न करे, वह उसी वर्ण में रहेगा। उसके लिए कर्मों का विधान निरर्थक है और वर्ण-परिवर्तन का विधान भी व्यर्थ सिद्ध हो जायेगा।
‘वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था में एक बहुत बड़ा अन्तर यह है कि वर्णव्यवस्था में रुचि और योग्यता के अनुसार कभी भी वर्णपरिवर्तन हो सकता है और व्यक्ति का उस वर्णपरिवर्तन की स्वतन्त्रता होती है, जबकि जातिव्यवस्था में जहाँ एक बार जन्म हो गया, जीवनपर्यन्त वही जाति रहती है। मनु की वर्णव्यवस्था में व्यक्ति को वर्ण-परिवर्तन की स्वतन्त्रता थी। इस विषय में मनुस्मृति का एक महत्वपूर्ण श्लोक है, जो सभी सन्देहों को दूर कर देता है-
शूद्रो ब्राह्मणताम्-एति, ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च॥
अर्थात्–‘गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर ब्राह्मण शूद्र बन जाता है और शूद्र ब्राह्मण। इसी प्रकार क्षत्रियों और वैश्यों के कुलों में उत्पन्न बालकों या व्यक्तियों का भी वर्ण परिवर्तन हो जाता है।
इसके अतिरिक्त भी मनुस्मृति में दर्जनों ऐसे श्लोक हैं, जिनमें निर्धारित कर्मों के त्याग से और निकृष्ट कर्मों के कारण द्विजों को शूद्र कोटि में परिगणित करने का विधान किया है। (द्रष्टव्य 2/37, 40, 03, 68; 4/ 245
आदि श्लोक) । और शूद्रों को श्रेष्ठ कर्मों से उच्चवर्ण की प्राप्ति का विधान है (9/335) ।‘ ऋग्वेद से लेकर महाभारत (गीता) पर्यन्त यह कर्माधारित वर्णव्यवस्था चलती रही है। गीता में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है—
‘चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुण-कर्म-विभागश: ‘ (4/3) अर्थात् “गुण-कर्म-विभाग केअनुसार चातुर्वर्णव्यवस्था का निर्माण किया गया है। जन्म के अनुसार नहीं। भारतीय इतिहास में, सैकड़ों ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं, जो कर्म पर आधारित वर्णव्यवस्था की पुष्टि करते हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि किसी भी वर्ण को जन्म के आग्रह से नहीं जोड़ा गया। जैसे
- दासी का पुत्र ‘कवष ‘ऐलूष‘ और शुद्रापुत्र वत्स मन्त्रद्रष्टा होने के कारण दोनों ऋषि कहलाये।
(ऐत्रेय ब्राह्मण 2/9)
(2) क्षत्रिय कुल में उत्पन्न राजा विश्वामित्र ब्रहम्मर्षि ‘बने। (महाभारत, अनुशासन पर्व 3/-2 तथा रामायण बाल काण्ड में)
(3) अज्ञात कुल के सत्यकाम जाबाल ब्रह्मवादी ऋषि बने। (छान्दोग्य उप० 4/4-6)
(4) चण्डाल के घर में उत्पन्न “मातंग‘ एक ऋषि कहलाये। (महाभारत,अनु० अ० 3)
(5) (कुछ कथाओं के अनुसार वाल्मीकि-रामायण के अनुसार नहीं) निम्न कुल में उत्पन्न वाल्मीकि, महर्षि वाल्मीकि की पदवी को प्राप्त कर गये। (स्कन्द पुराण, वै. 27)
(6) दासीपुत्र विदुर राजा धृतराष्ट्र के महामन्त्री बने और महात्मा कहलाये। (महाभारत आदि पर्व 00, 40॥ अध्याय) इसके विपरीत कर्मों के ही कारण
(7) पुलस्त्य ऋषि का वंशज ‘लंकाधिपति रावण “राक्षस ‘ कहलाया। (वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड)
8) राम के पूर्वज रघु का *प्रवृद्ध” नामक पुत्र नीच कर्मों के कारण क्षत्रियों से ‘बहिष्कृत होकर “राक्षस! बना।
(9) राजा त्रिशंकु चण्डालभाव को प्राप्त हुआ।
(10) विश्वामित्र के कई पुत्र शूद्र कहलाये और कई क्षत्रिय रहे जो बाद में ब्राह्मण बन गये। व्यक्तिगत उदाहरणों के अतिरिक्त, इतिहास में पूरी जातियों का अथवा जाति के पर्याप्त भाग का वर्णपरिवर्तन भी मिलता है। महाभारत और मनुस्मृति में (0/43-44) कुछ पाठभेद के साथ पाये जाने वाले श्लोकों से ज्ञात होता है कि निम्नलिखित जातियाँ (समुदाय) पहले क्षत्रिय थीं किन्तु अपने क्षत्रिय कर्तव्यों के त्याग के कारण और ब्राह्मणों द्वारा बताये प्रायश्चित्त न करने के कारण वे शूद्रकोटि में परिगणित हो गईं। वे जातियाँ हैं–पौण्ड्रक,औड़, द्रविड़, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद, खश।
महाभारत अनु. 35/7-78 में इन समुदायों में इनके अतिरिक्त मेकल, लाट, कान्वशिरा, शौण्डिक, दार्व, चौर, शबर, बर्बर जातियों का भी उल्लेख है। बाद तक भी वर्णपरिवर्तन के उदाहरण इतिहास में मिलते हैं। जे. विलसन और एच.एल. रोज के अनुसार राजपूताना, सिन्ध और गुजरात में पोखरना या पुष्करण ब्राह्मण और उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिला के आमताड़ा के पाठक और महावर राजपूत वर्णपरिवर्तन से निम्न जाति से ऊँची जाति के बने (देखिए हिन्दी विश्वकोश, भाग 4 में वर्ण शब्द) ।
ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और दलित जातियों में समान रूप से पाये जाने वाले अनेक गोत्र भी यह सिद्ध करते हैं कि वे सभी एक ही मूल परिवारों के वंशज हैं क्योंकि गोत्र एक ही रहता है। कालक्रमानुसार व्यवसाय और जन्म के आधार पर उनकी जाति रूढ़ हो गयी।
मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था के आधारभूत तत्त्व हैं–गुण, कर्म, योग्यता। मनु व्यक्ति अथवा वर्ण को महत्व और आदर-सम्मान नहीं देते अपितु व्यक्ति के गुणों को देते हैं। जहाँ इनका आधिक्य है, उस व्यक्ति और वर्ण का महत्व तथा आदर-सम्मान अधिक है, न्यून होने पर न्यून है।
आज तक संसार की कोई भी सभ्य व्यवस्था इन तत्त्वों को न नकार पाई है और न नकारेगी। वर्तमान में निश्चित सर्वसमानता का दावा करने वाली साम्यवादी व्यवस्था भी इन तत्त्वों से स्वयं को पृथक् नहीं रख सकी उसमें भी गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार पद और सामाजिक स्तर हैं। उन्हीं के अनुरूप वेतन, सुविधा और सम्मान में अन्तर है। हमारी आजकल की प्रशासनिक और व्यावसायिक व्यवस्था की तुलना करके देखिए, मनु की बात आसानी से समझ आ जायेगी और ज्ञात होगा कि मनु की और आज की इन व्यवस्थाओं में मूलभूत समानता है। सरकार की प्रशासन व्यवस्था में चार वर्ग हैं–. प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी, 2. द्वितीय श्रेणी राजपत्रित अधिकारी, 3-4 तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी। इनमें प्रथम दो वर्ग अधिकारी हैं, दूसरे कर्मचारी। यह विभाजन गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर है और इसी आधार पर इनका महत्व, सम्मान, वेतन एवं अधिकार हैं।
इन पदों के लिए योग्यताओं का प्रमाणीकरण पहले भी शिक्षासंस्थान (गुरुकुल, आश्रम, आचार्य) करते थे और आज भी शिक्षासंस्थान (विद्यालय, विश्वविद्यालय आदि) ही करते हैं। शिक्षा का कोई प्रमाणपत्र नहीं होने से, अल्पशिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति सेवा और शारीरिक श्रम के ही कार्य करता है और यह अन्तिम कर्मचारी श्रेणी में आता है। पहले भी जो गुरु के पास जाकर विद्या प्राप्त नहीं करता था, वह इसी स्तर के कार्य करता था और उसकी संज्ञा “शूद्र’ थी। शूद्र के अर्थ हैं–‘निम्न स्थिति वाला’, * आदेशवाहक’, ‘सेवक’ आदि। नौकर, चाकर, सेवक, प्रेष्य, सर्वेट, अर्दली, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी आदि संज्ञाओं में कितनी अर्थसमानता है, आप स्वयं देख लीजिए। ‘शुद्र” के निर्वचनाधारित अर्थ हैं–*शु द्रवति इति‘ – जो स्वामी के आदेशानुसार इधर-उधर आने-जाने का कार्य करता है।
“शोच्यां स्थितिमापनन: – जो अपनी निम्नतम स्थिति से चिन्तित रहता है कि मैं सबसे पीछे क्यों रह गया। इन अर्थों में कोई घृणा का भाव नहीं है।
मनुस्मृति में शूद्र सम्मान :
मनुस्मृति के अन्त:साक्ष्यों पर दृष्टिपात करने पर हमें कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं आधारभूत तथ्य उपलब्ध होते हैं जो शुद्रों के विषय में मनु की भावनाओं का संकेत देते हैं। वे इस प्रकार हैं- आजकल की दलित, पिछड़ी और जनजाति कही जाने वाली जातियों को मनुस्मृति में कहीं “शुद्र’ नहीं कहा गया है। मनु द्वारा दी गयी शूद्र की परिभाषा भी आज की दलित और पिछड़ी जातियों पर लागू नहीं होती।
मनुकृत शूद्र की परिभाषा है–जिनका ब्रह्मजन्म – विद्याजन्म रूप दूसरा जन्म होता है, वे “द्विजाति’ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हैं। जिनका किसी भी कारण से ब्रह्मजन्म नहीं होता वह “एकजाति’ रहनेवाला शुद्र है।’ अर्थात् जो बालक निर्धारित समय पर गुरु के पास जाकर संस्कारपूर्वक वेदाध्ययन और अपने वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करता है, वह उसका “विद्याजन्म’ नामक दूसरा जन्म है, जिसे शास्त्रों में “ब्रह्मजन्म’ कहा गया है। जो जानबूझकर या मंदबुद्धि होने के कारण अथवा अयोग्य होने के कारण विद्याध्ययन और उच्च तीन द्विज वर्णों में से किसी भी वर्ण की शिक्षा-दीक्षा नहीं प्राप्त करता,वह अशिक्षित व्यक्ति ‘एकजाति – एक जन्म वाला’ अर्थात् शूद्र कहलाता है, चाहे वह किसी कुल में उत्पन्न हुआ हो। इसके अतिरिक्त उच्च वर्णो में एक बार दीक्षित होकर भी जो धारित वर्ण के निर्धारित कर्मों को नहीं करता,’वह भी शुद्र आदि हो जाता है (मनु० 2/426, 68, 70, ॥72; 4/245; 0/4 आदि) ।इस विषयक एक-दो प्रमाण द्रष्टव्य हैं–
ब्राह्मण: क्षत्रियो वैश्य:, त्रयो वर्णा: द्विजातय:।
चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्र: नास्ति तु पंचम: ॥ (मतु० 70442
अर्थात् आर्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीन वर्णों को “द्विजाति! ‘कहते हैं, क्योंकि इनका दूसरा विद्याजन्म होता है। चौथा वर्ण एकजाति – केवल माता-पिता से ही जन्म प्राप्त करने वाला और विद्याजन्म न प्राप्त ‘करने वाला *शुद्र’ है। इन चारों वर्णों के अतिरिक्त आर्यों में पाँचवाँ कोई वर्ण नहीं है।’ इस श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि मनु ने शूद्र सहित चारों वर्णों को *सवर्ण’ और आर्य माना है, चारों से भिन्न को ‘*असवर्ण’। किन्तु ‘परवर्ती समाज मनुविरुद्ध रूप से शूद्र को असवर्ण कहने लग गया। मनु ने शिल्प, कारीगरी आदि के कार्य करने वाले लोगों को वैश्य वर्ण के अन्तर्गत माना है (3/64; 9/329; 0/99; 0/20), किन्तु परवर्ती समाज ने उन्हें भी शुद्रकोटि में ला खड़ा कर दिया। दूसरी ओर, मनु ने कृषि, पशुपालन को वैश्यों का कार्य माना है (/90), किन्तु सदियों से ब्राह्मण और क्षत्रिय भी ‘कृषि-पशुपालन कर रहे हैं। उन्हें वैश्य घोषित नहीं किया। इनको मनु की व्यवस्था कैसे माना जा सकता है ? ये सब जातिवादी समाज की अपनी व्यवस्थाएँ हैं, इनको मनु पर थोपना अनुचित है।
अनेक श्लोकों से ज्ञात होता है कि शूद्रों के प्रति मनु की मानवीय ‘सद्भावना थी और वे उन्हें अस्पृश्य, निन्दित अथवा घृणित नहीं मानते थे। मनु ने शृद्रों के लिए “उत्तम’, ‘उत्कृष्ट’, ‘शुचि’ जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है, ‘ऐसे विशेषणों से प्रयुक्त व्यक्ति कभी *अस्पृश्य” या *घृणित” नहीं माना जा सकता (9/335) ‘ ।
शुद्रों को द्विजाति वर्णों के घरों में पाचन, सेवा आदि श्रमकार्य करने का निर्देश दिया है (/9; 933-335) # किसी द्विज के यहाँ यदि कोई शुद्र अतिथिरूप में आ जाये तो उसे भोजन कराने का आदेश है (3/442)’ द्विजों को आदेश है कि वे अपने भृत्यों को, जो कि शुद्र होते थे, पहले भोजन कराने के बाद फिर स्वयं भोजन करें (3/6)।’ क्या आज के वर्णरहित कथित सभ्य समाज में भृत्यों को पहले भोजन कराया जाता है ? और उनका इतना ध्यान रखा जाता है? आप स्वयं देखिए कि शुद्रों के प्रति कितना मानवीय, सम्माननीय और कृपापूर्ण दृष्टिकोण था मनु का!
वैदिक वर्णव्यवस्था में परमात्मा पुरुष अथवा त्रह्मा के मुख, बाहु,जंघा, पैर की समानता से क्रमश: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र की आलंकारिक उत्पत्ति बतलाई है (/34)[ इससे तीन निष्कर्ष निकलते हैं। ‘
एक, चारों वर्णों के व्यक्ति परमात्मा की एक जैसी सन्तानें हैं। दूसरा, एक जैसी सन्तानों में कोई अस्पृश्य और घृणित नहीं होता। तीसरा, एक ही शरीर का अंग “पैर” अस्पृश्य या घृणित नहीं होता है और भारतीय परम्परा में तो वैसे भी घर-समाज में चरण-स्पर्श की परम्परा है। ऐसे श्लोकों के रहते ‘कोई तटस्थ व्यक्ति क्या यह कह सकता है कि मनु की अथवा वैदिक वर्ण-व्यवस्था में शुद्रों को अस्पृश्य और घृणित माना जाता था?
मनु ने सम्मान के विषय में शूद्रों को विशेष छूट दी है। मनुविहित सम्मान-व्यवस्था में प्रथम तीन वर्णों में अधिक गुणों के आधार पर अधिक सम्मान देने का कथन है जिनमें विद्यावान् सबसे अधिक सम्मान्य है (2/47, १72, 30) ।’ किन्तु शुद्र के प्रति अधिक सद्भाव प्रदर्शित करते हुए उन्होंने विशेष विधान किया है कि द्विज वर्ण के व्यक्ति नब्बे वर्ष के शूद्र को पहले सम्मान दें, जबकि शूद्र अशिक्षित होता है। यह सम्मान पहले तीन वर्णों में किसी को नहीं दिया गया है-
मानाई: शूद्रोडपि दशर्मी गत:। (2037)
अर्थात् नब्बे वर्ष के शूद्र को सभी द्विज पहले सम्मान दें। शेष तीन वर्णों में अधिक गुणी पहले सम्मान का पात्र है।’ इसी प्रकार “न धर्मात्प्रतिषेघनम्‘ (0/26) अर्थात् “शुद्रों को धार्मिक कार्य करने का निषेध नहीं है” यह कहकर मनु ने शुद्र को धर्मपालन की स्वतन्त्रता दी है। इस तथ्य का ज्ञान उस श्लोक से भी होता है जिसमें मनु ने कहा है कि “शुद्र से भी उत्तम धर्म को ग्रहण कर लेना चाहिए! (2/273) ।
वेदों में शुद्रों को स्पष्टत: यज्ञ आदि करने और वेदशास्त्र पढ़ने का अधिकार दिया है (यजुर्वेद 26/2;ऋगू्० 0/53/4; निरुक्त 3/8 आदि) मनु की प्रतिज्ञा है कि उनकी मनुस्मृति वेदानुकूल है, अत: वेदाधारित होने के कारण मनु की भी वही मान्यताएँ हैं। यही कारण है कि उपनयन प्रसंग में कहीं भी शूद्र के उपनयन का निषेध नहीं किया है; क्योंकि शूद्र तो तब कहाता है, जब कोई उपनयन नहीं कराता। इसी प्रकार शूद्र से दासता कराने अथवा जीविका न देने का ‘कथन मनु के निर्देशों के विरुद्ध है। मनु ने सेवकों, भृत्यों का वेतन, स्थान और पद के अनुसार नियत करने का आदेश राजा को दिया है और यह सुनिश्चित किया है कि उनका वेतन अनावश्यक रूप से न काटा जाये।
(7/25-726; 8276)‘
मनु की यथायोग्य एवं मनोवैज्ञानिक दण्डव्यवस्था–यह कहना नितान्त अनुचित है कि मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दण्डों का विधान किया है और ब्राह्मणों को विशेषाधिकार एवं विशेष सुविधाएँ प्रदान की हैं। मनु ‘की दण्डव्यवस्था के मानदण्ड हैं–गुण-दोष, और आधारभूत तत्त्व हैं– बौद्धिक स्तर, सामाजिक स्तर, पद, अपराध की प्रकृति और उसका प्रभाव।
मनु की दण्डव्यवस्था यथायोग्य है, जो लोकतान्त्रिक और मनोवैज्ञानिक है। यदि मनु वर्णों में गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर ब्राह्मण आदि उच्च वर्णों ‘को अधिक सम्मान और सामाजिक स्तर प्रदान करते हैं तो अपराध करने ‘पर उन्हें उतना ही अधिक दण्ड भी देते हैं। इस प्रकार मनु की यथायोग्य दण्ड-व्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मण को सबसे अधिक; राजा को उससे भी अधिक। मनु की यह सर्वसामान्य दण्डव्यवस्था का यह मानदण्ड है, जो सभी दण्डस्थानों पर लागू होता है–
अष्टापाद्य॑ तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्।
‘षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्थ च॥
ब्राह्मणस्य चतु:षष्टि: पूर्ण बाउपि शतं भवेत्।
द्विगुणा वा चतु:षष्टि:, तददोषगुणविद्द्धि सः ॥
(839-338)
अर्थात्—‘ किसी चोरी आदि के अपराध में शूद्र को आठ रुपये दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलह गुणा, क्षत्रिय को बत्तीस गुणा, ब्राह्मण को चौंसठ गुणा, अपितु उसे एक सौ गुणा अथवा एक सौ अट्ठाईस गुणा दण्ड करना चाहिए क्योंकि उत्तरोत्तर वर्ण के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भलीभांति समझने वाले हैं। इसके साथ ही मनु ने राजसभा को आदेश दिया है कि उक्त दण्ड से किसी को छूट नहीं दी जाये, चाहे वह स्वयं ‘राजा, आचार्य, पुरोहित और राजा के पिता-माता ही क्यों न हों अपितु राजा को ‘एक हजार गुणा दण्ड देने का कथन है।’ राजा दण्ड दिये बिना मित्र को भी न छोड़े और कोई समृद्ध व्यक्ति शारीरिक अपराध दण्ड के बदले में विशाल धनराशि देकर छूटना चाहे तो उसे भी न छोड़े। (8/335, 347)
देखिए, मनु की दण्डव्यवस्था कितनी यथायोग्य मनोवैज्ञानिक, न्यायपूर्ण, व्यावहारिक और प्रभावशाली है। इसकी तुलना आज की दण्डव्यवस्था से करके देखिए, दोनों में अन्तर स्पष्ट हो जायेगा। आज की दण्डव्यवस्था का नारा है–‘कानून की दृष्टि में सब समान हैं।” पहला विरोध तो यही हुआ कि पदस्तर और बौद्धिक स्तर के अनुसार सम्मान-व्यवस्था तो पृथक्-पृथक् हैं और दण्ड एक जैसा। दूसरा, विरोध यह हुआ कि आज का दण्ड यथायोग्य दण्ड नहीं। इसे यों समझिये कि खेत चर जाने पर मेमने को भी एक डण्डा लगेगा, भैंसे, हाथी को भी। इसका प्रभाव क्या होगा ? बेचारा मेमना डण्डे के प्रहार से मिमियाने लगेगा, भैंसे में कुछ हलचल होगी, हाथी को दण्ड की कुछ ही अनुभूति होगी, शेर उलटा खाने को दौड़ेगा। क्या यह वास्तव में समान दण्ड हुआ ? समान दण्ड तो वह है, जो लोकव्यवहार में प्रचलित है। मेमने को डण्डे से, भैंस को लाठी से, हाथी को अंकुश से और शेर को हण्टर से वश में किया जाता है।
दूसरा उदाहरण लीजिए–एक अत्यन्त गरीब एक हजार रुपयों के दण्ड को कर्ज लेकर चुका पायेगा, मध्यवर्गीय थोड़ा कष्ट अनुभव करके और समृद्ध-सम्पन्न जूती कौ नोक पर रख देगा। इसी अमनोवैज्ञानिक दण्डव्यवस्था का परिणाम है कि दण्ड की पतली रस्सी में आज गरीब तो ‘फंस जाते हैं, धन-पद-सत्ता-सम्पन्न शक्तिशाली लोग उस रस्सी को तोड़कर निकल भागते हैं। आंकड़े इकट्ठे करके देख लीजिए, स्वतन्त्रता के बाद कितने गरीबों को सजा हुई है, और कितने धन-पद-सत्ता-सम्पन्न लोगों को। आर्थिक अपराधों में समृद्ध लोग अर्थदण्ड भरते रहते हैं, अपराध करते रहते हैं। मनु की यथायोग्य दण्ड-व्यवस्था में ऐसा असन्तुलन नहीं है। मनु की दण्डव्यवस्था अपराध की प्रकृति पर निर्भर है। वे गम्भीर अपराध में यदि कठोर दण्ड का विधान करते हैं तो चारों वर्णों को ही, और यदि सामान्य अपराध में सामान्य दण्ड का विधान करते हैं, तो वह भी चारों वर्णों के लिए सामान्य होता है। शुद्रों के लिए जो कठोर दण्डों का विधान मिलता है वह जन्मना जातिवादियों द्वारा प्रक्षिप्त श्लोकों में है। निष्कर्ष यह है कि उपर्युक्त दण्डनीति के विरुद्ध जो श्लोक मिलते हैं, वे मनुरचित नहीं हैं।
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