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नाड़ियों की बात
योगी गुरु परमहंस देव –
mystic power – सार्द्धतक्षत्रयं नाडयः सन्ति देहान्तरे नृणाम।
प्रघानभूता नाड्यस्तु तासु मुख्याश्चतुर्दशः ॥
-शिवसहिता, 273
भौतिक शरीर को कार्यक्षम रखने के लिए मूलाधार से मुख्यतः साढ़े तीन लाख नाड़ियाँ उत्पन्न होकर जिस प्रकार पीपल या कमल के सूखे गले पते पर शिराओं का जाल दिखाई देता है, ठीक वैंसे ही ये अस्तिपंजर पूर्ण शरीर के ऊपर चारों ओर फैलकर अंग और प्रत्यंग के समस्त कार्य संपन्न करा रही हैं। इन साढ़े तीन लाख नाड़ियों में चौदह नाड़ियाँ मुख्य हैं-
जैसे-
“शमुषुम्नेड़ा पिंगला च गांधारी हस्तिजिहिवका,
कुहूः सरस्वती पूषा शंखिनी च पयस्विनी,
वारुण्यलम्बुषा चैव विश्वोदरी यशस्विनी,
एतासु ज़िस्नो मुख्याः स्थुः पिंगलेड़ासुषुम्निका:?
-शिवसोहिता, 24-75
इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, गांधारी, हस्तिजिहवा, कूहू, सरस्वती, पूषा,शांखिनी, पयस्विनी, वारुणी, अलंबुषा, विश्वोदगी और यशस्विनी, इन चौदह नाड़ियों में से इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना-ये तीन नाड़ियाँ मुख्य हैं। सुषुम्ना नाड़ी मूलाधार से निंकलकर नाभिमण्डल में अण्डे के आकार में जो नाड़ी चक्र है, उसके ठीक बीच से होकर ऊपर आते हुए ब्रहमरन्ध्र तक गई है। सुषुम्ना की बाईं तरफ से इड़ा और दाईं तरफ से पिंगला निकल कर स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, और विशुद्ध चक्र को धनुष के आकार में घेर कर इड़ा दायें नासापुट और पिंगला बायें नासपुट तक गई है। सुषुम्ना नाड़ी मेरुवण्ड के भीतर के रन्ध्र और इड़ा और पिंगला नाड़ियाँ मेरुदण्ड के बाहर होकर गई है।
इड़ा चन्द्र स्वरूप, पिंगला सूर्य स्वरूप, और सुषुम्ना चन्द्र, सूर्य और अग्नि स्वरूप सत्व, रजः और तमः-इन तीन गुणों से युक्त और खिले हुए धतूरे के फूल की तरह श्वेत वर्ण है। पहले बताई गई अन्य मुख्य नाड़ियों में कूहू नाड़ी सुषुम्ना की बाई तरफ से निकल कर मेढ्रक्षेत्र तक गई है। वारुणी नाड़ी शरीर के ऊपर और नीचे पूरे शरीर में फैली हुई है। यशस्विनी दायें पैर के अंगूठे के अग्रभाग तक, पूषा नाड़ी दायें नेत्र, पयस्विनी दायें कान, सरस्वती जीभ के अग्रभाग, शंखिनी बायें कान, गांधारी बायें नेत्र, हस्तिजिहवा बायें पैर के अंगूठे, अलम्बुषा मुहं और विश्वोदरी उदर तक गई है। इस तरह समूचा शरीर नाड़ियों द्वारा आवृत है। नाड़ियों की उत्पत्ति और विस्तार के संबंध में मन को स्थिर करके सोचने पर पता चलेगा कि कन्दमूल जिस प्रकार पदूमबीजकोष के चारों ओर स्थित केसर की तरह नाड़ियों द्वारा घिरा हुआ है और बीजकोष के बीच से इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी पराग केसर की तरह उठकर पहले बताई गई जगहों तक गई है। क्रमशः इन नाड़ियों से शाखाएँ और प्रशाखाएं निकलकर कपड़े के ताने-बाने की तरह सिर से पैर तक पूरे शरीर में फैली हुई हैं। योगीजन इन मुख्य चौदह नाड़ियों को पुण्यनदी कहते हैं। कुहू नामक नाड़ी को नर्मदा, शंखिनी को ताप्ती, अलंबुषा को गोमती, गांधारी को कावेरी, पुषा को ताम्रपर्णी और हस्तिजिहवा को सिन्धु कहते हैं।
इड़ा गंगा, पिंगला यमुना और सुषुम्ना सरस्वती स्वरूप हैं। ये तीन नाड़ियाँ आज्ञाचक्र के ऊपर जिस जगह मिलती हैं, उसका नाम त्रिकूट या त्रिवेणी है। लोग इलाहाबाद के पास स्थित त्रिवेणी में कष्ट से अर्जित धन का व्यय कर अथवा शारीरिक तकलीफ उठाकर स्नान करने जाते हैं। यदि इन सब नदियों में स्थूल स्नान करने से मुक्ति हो जाती तो त्रिवेणी के अन्तर्गत आने वाले जल में जलचर प्राणी नहीं रहते, सब का उद्धार हो जाता। शास्त्र में भी बताया गया है-
“अन्तःस्नानविहीनस्य वहिः स्नानेन कि फलम् ?”
अन्तः स्नान रहित व्यक्ति का बाहय स्नान से कोई लाभ नहीं है। श्रीगुरु की कृपा से आत्मतीर्थ को ज्ञात होकर जो व्यक्ति आज्ञाचक्र के ऊपर स्थित तीर्थराज त्रिवेणी में मानस स्नान या यौगिक स्नान करता है, वह अवश्य ही मुक्ति प्राप्त करता है-इस शिववाक्य में सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं है।
इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना-इन तीन मुख्य नाड़ियों में से सुषुम्ना सब से मुख्य है। इसके भीतर वज़ाणी नामक एक नाड़ी है। यह नाड़ी शिश्न स्थान से आरम्भ होकर शिरः स्थान तक गई हुई है। वज़नाड़ी शरीर के भीतर आदि से अन्त तक प्रणव से युक्त है अर्थात इस का आदि और अन्त चन्द्र, सूर्य और अग्नि रूपी ब्रहमा, विष्णु और शिव द्वारा आवृत है। मकड़ी के जाल की तरह चित्राणी नामक एक और बहुत ही सूक्ष्म नाड़ी है। इस चित्राणी नाड़ी में पदूम या चक्र सब गूथें हुए हैं। चित्राणी नाड़ी के भीतर बिजली के वर्ण जैसी और एक नाड़ी है जिसका नाम ब्रहमनाड़ी है। यह मूलाधार पदूम में रह रहे महादेव के मुख से निकल कर सिर पर स्थित सहस्रदल तक गई हुई है। जैसे
““तन्मध्ये चित्राणी सा प्रणवविलसिता योगिनां योगगम्या,
लूतातन्तुपमेया सकलसरसिजान मेरुमध्यान्तरस्थान।
भिक्त्वा देवीप्यते तदग्रथनरचनया शुद्धवुद्धिप्रवोधा,
तस्थान्तब्रहमनाड़ी हरमुखकुहरादादिदेवान्तसंस्था॥
पूणानिन्द पतमहत्कृत ‘षटचक्र/
यह ब्रहमनाड़ी दिन रात योगियों द्वारा परिचिन्तनीय है। क्योंकि योगसाधना का चरम फल इस ब्रहमनाड़ी से प्राप्त होता है। इस ब्रहमनाड़ी के भीतर होकर जा सकने से आत्मसाक्षात्कार होता है और योग का उद्देश्य पूरा होकर मुक्ति मिलती है। अब किस नाड़ी में किस तरह वायु का संचरण होता है, वह जानना आवश्यक है।
योगीगुरु पुस्तक से साभारः
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