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पाशुपत सिद्धान्त की पाँच विभक्तियाँ
श्री परमहंस निरंजनानन्द-
Mystic power – पाशुपत सिद्धान्त सर्वाधिक प्राचीन शैव सिद्धान्त माना जाता है । पर न तो, इस दर्शन का कोई ग्रन्थ उपलब्ध है और न इसकी प्राचीनता के सम्बन्ध में ही कुछ कहा जा सकता है, लेकिन इसका प्रभाव भारतीय दर्शनों पर पड़ा है । अनेक चिन्तकों का मत है। कि भारतीय षड्दर्शनों के अंग, न्याय और वैशेषिक दर्शन, पाशुपत सिद्धान्त से प्रभावित हैं या उनमें पाशुपत सिद्धान्त की विचार धाराओं का समावेश हुआ है । वैसे पाशुपत सिद्धान्त की दार्शनिक विचार धाराओं के विषय में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है । अन्य चिन्तकों एवं व्याख्याकारों के अनुसार इसके कुछ संभावित मुख्य बिन्दु हैं जिनके अनुसार शिव-तत्त्व या पति को सक्षम कारण के रूप में स्वीकार किया गया है, और भौतिक कारण को शिव-तत्त्व से भिन्न माना गया है। ये दोनों अलग हैं।
इन दोनों को अलग करने से ही द्वैतवाद का विषय शुरू होता है । दूसरे विचारधाराओं के अनुसार सक्षम कारण और भौतिक कारण अभिन्न हैं। किसी तत्त्व को सक्षम मानने से स्वीकार करना होगा कि उसमें ज्ञान, क्रिया और शक्ति की अवस्थाएँ निहित हैं। लेकिन पाशुपत सिद्धान्त के अनुसार अभिव्यक्ति या भौतिक क्षमता मूल कारण से भिन्न है। इसमें क्रिया को शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है, जो प्रधान है। शिव भी प्रधान है, लेकिन शिव तत्त्व अलग और शक्ति तत्त्व अलग हैं। सम्भवतः दोनों की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में परिणति होने से दोनों एक दूसरे से अभिन्न हो जाते हैं। अभिन्न तत्त्व अद्वैत की अवस्था है ।
पाँच प्रमुख विभक्तियाँ
पाशुपत सिद्धान्त की पाँच प्रमुख विभक्तियाँ हैं । कारण, कार्य, योग, विधि और दुःखान्त । कारण का सम्बन्ध पति या शिव-तत्त्व से है; कार्य का शक्ति से और योग का दोनों की मिलन की अवस्था से है। ऐक्य की अवस्था प्राप्त करने के लिये कोई विधि या उपाय होना चाहिए, जो दो मित्र तत्त्वों को एक करे। दो तत्वों के साथ होने पर दुःख का अन्त होता है। यह भी माना जा सकता है कि दुःखान्त की अवस्था मोक्षावस्था है।
इस दृष्टि से सांख्य भी द्वैतवाद का समर्थक है। सांख्य में बताया गया है कि मनुष्य को तीन प्रकार के दुःख होते हैं और उन दुःखों से मुक्ति पाना मनुष्य का अंतिम लक्ष्य होता है। द्वैत में दो तत्त्वों के भिन्न होने से दुःख या क्लेश की उत्पत्ति होती है। कहीं दो तत्त्वों में विरोध भी होगा, क्योंकि एक का स्वभाव है शान्त और दूसरे का स्वभाव है चंचल । शान्ति और चंचलता की अवस्था में सामंजस्य कभी हो नहीं सकता । सामंजस्य तभी संभव है जब शान्त अवस्था में चंचलता हो या चंचलता में शान्ति हो । जहाँ ये भेद हैं, वहाँ द्वन्द्व का होना स्वाभाविक है या किसी तीसरे तत्त्व की उत्पत्ति स्वाभाविक है। इस तीसरे तत्त्व को दुःख माना गया है, जिससे मुक्ति पाना पाशुपत सिद्धान्त का लक्ष्य है।
योग की चर्चा में योग का तात्पर्य योगाभ्यास से नहीं वरन् ऐक्य या मिलन की अवस्था से है । यह सम्बन्ध किससे जुड़ेगा ? दुःख और कारण से या दुःख या कार्य से ? नहीं, योग का अभिप्राय है कार्य और कारण की क्षमता को एक करना । शिव और शक्ति के योग हेतु सायुज्य विधि के अन्तर्गत चर्या की व्याख्या की गई है। चर्या में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक अनुशासनों का समावेश है। इसमें माया या शक्ति को प्रधान भौतिक कारण माना गया है। इस प्रकार, माया या शक्ति को कार्य की संज्ञा दी गई है। प्रधान से पृथ्वी की अवस्था तक उत्पत्ति, विकास और बन्धन पायेंगे, माया में भ्रान्ति और बन्धन की अवस्था रहेगी और शक्ति में उसी अवस्था की विभिन्नताओं से सामना होगा। अतः मूलतत्त्व एक ही है।
आत्मा को शक्ति और शिव से अभिन्न माना है। पहले कहा गया है कि शिव अलग, और शक्ति अलग हैं, दोनों की कार्य-सीमायें अलग हैं, लेकिन आत्मा की चर्चा करते हुए कहते हैं कि आत्मा में प्रधान और पति दोनों का समावेश है, शिवतत्त्व और शक्ति-तत्त्व का । लेकिन इन दोनों के बीच एक आवरण है, जिसके कारण शक्ति तत्त्व शिव-तत्त्व को नहीं पहचान सकता और शिव-तत्त्व शक्ति-तत्त्व को नहीं पहचान सकता । इसका क्या कारण हो सकता है ? प्रधान से पृथ्वी तत्व की अभिव्यक्तियों गौण कारण है। मूल रूप में परिवर्तन के कारण मूल रूप या मूल स्वभाव को भूल जाते हैं, जिसके कारण आत्मा पर कर्मों का आचरण पड़ता है और शिव और शक्ति के बीच कर्मों का वही आवरण जा जाता है।
विधि के द्वारा, शारीरिक, मानसिक और आध्यामिक अनुशासन के द्वारा दोनों के बीच से कर्मों के आवरण को हटाने का प्रयास किया जाता है । आवरण के हट जाने से योग की प्राप्ति होती है ।
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