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प्रज्ञा
श्री सुशील जालान
mystic power- मानव शरीर पंचमहाभूत, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, से बना है। इस शरीर में ही चैतन्य आत्मा का वास है, जिसका दर्शन करना ही सभी मानव सभ्यताओं का ध्येय रहा है, सभी स्थान व काल में।
एकमात्र साधन है ध्यान-योग जो स्थान, काल व पात्र के अनुसार विभिन्न मत मतान्तरों में विभक्त हो गया है।
मूल योगक्रिया है पांच बहिर्मुखी ज्ञानेन्द्रियों के विषयों, गंध, रस, रूप, स्पर्श और स्वर, से मन को अंतर्मुखी करना। यह योगक्रिया कई तरह के योगासनों और प्राणायामों से सम्पन्न की जाती है।
विषयों से विमुख होने पर भी उनमें आसक्ति बनी रहती है मानसिक स्तर पर। वैराग्य ही एकमात्र साधन है आसक्ति के त्याग का।
ओंकार, गायत्री महामंत्र, देवी नवार्ण, महामृत्युंजय आदि मंत्रों के सतत् जाप से चेतना का ऊर्ध्वगमन सम्भव होता है योगासन व प्राणायाम के साथ करने से और चेतना आसक्ति के बंधन से मुक्त होकर शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित होती है।
यह चैतन्य आत्मा ही समस्त परा व अपरा ज्ञान को धारण करता है। इसके लिए ही कहा गया है –
“तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता”
श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 57, 58, 61.
आत्मवान होने के लिए प्रज्ञावान होना आवश्यक है। यह ध्यान-योग से निर्गुण व निराकार आत्मा के स्वयं प्रकाशमान चैतन्य आत्म-बोध में होता है, हृदयस्थ अनाहत चक्र में।
मानव के स्मृति कोष में सृष्टि के आदि से ही समस्त ज्ञान संचित है। ध्यान-योग के अनुशीलन से आत्मबोध के पश्चात् आदित्य ब्रह्म का उदय होता है ध्यान में ही जो सूर्य के समान तेजस्वी है।
यह आदित्य ही कल्प के आदि से कल्प के अंत तक का ज्ञान अपने में संजोये हुए है। श्रीराम और श्रीकृष्ण, भगवान् श्रीविष्णु के पूर्ण अवतार व प्रज्ञ, इसी आदित्य को धारण करते हैं।
आदित्य की शक्ति है संज्ञा जिसका उपयोग प्रज्ञावान वैदिक महर्षियों ने ध्यान में किया और विश्व वांग्मय में 33 कोटि भावों को संज्ञाओं से विभूषित किया है। प्रत्येक भाव संज्ञा किसी एक देवता को समर्पित की गई है, उपासना एवं आवाहन हेतु।
यद्यपि भावना एक ही है, लेकिन सृष्टि संरचना, विकास और संचालन के लिए उसे जगज्जननी देवी रूप में प्रतिष्ठित कर वर्णमाला और शब्दों में व्यवहृत किया जाता है। उन भाव देवताओं को जागृत करने के लिए मंत्रों का सृजन किया गया है। वहीं शब्द में संज्ञा – उपाधि के अंतर्गत उनके गुण धर्म कर्म को संयोजित किया गया है।
देवी उपनिषद्/अथर्वशीर्ष का कथन है,
“मंत्राणां मात्रिका देवी, शब्दानां ज्ञानरूपिणी”
अर्थात्,
देवी स्वयं मात्रिका/स्वर है तथा व्यंजनों के सहयोग से शब्द भी देवी स्वयं ही है जिनमें, शब्दों में, गुण धर्म रूपी ज्ञान निहित है। प्रज्ञा में समस्त संज्ञाएं संयोजित हैं और प्रज्ञा को प्रकट करने के लिए ध्यान-योग ही विशिष्ट विद्या है।
इसलिए ध्यान-योग सर्वोच्च है, सर्वोत्तम है और वैदिक संस्कृति का मुख्य स्तम्भ है, जिससे प्रज्ञाविहित सभी वांक्षित लौकिक, अलौकिक कर्म संपन्न किए जाते है।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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