पुराण विद्या का औचित्य
डॉ. दिलीप कुमार नाथाणी- विद्यावचस्पति-
पुराणों को वेद के समान ही बताते हुये पण्डित गिरधर शर्मा चतुर्वेदी जी कहते हैं कि वेद-विद्या और पुराण्-विद्या में इतना ही भेद है, सृष्टि का सिलसिला जिस प्रकार होता है जिस क्रम से सृष्टि होती है, सृश्टि की प्रक्रिया जिस प्रकार होती है, इन सब प्रकृति के नियमों को पुराण-विद्या बता देती है, जबकि वेद-विद्या हमारे प्रतिकूल जानेवाले प्रकृति के नियमों को अनुकूल बना लेने का प्रकार बताती है। इसीलिये वेद यज्ञ-वेद कहा जाता है यज्ञ ही वह विद्या है, जिससे हम भी नये-नये पदार्थ पेदा कर सकते हैं और प्रकृति को अपने अनुकूल बना सकते हैं। जैसे, किसी समय यह विदित हो जाय कि प्रकृति इस बार उपयुक्त वृष्टि नहीं करेगी, यानि सूखा पडे़गा या अधिक जल-प्रलय होगा, उस समय हम यज्ञ-विद्या यज्ञ-वेद के द्वारा प्रकृति को अनुकूल बनाकर उपयुक्त वृष्टि को प्राप्त या अनुपयुक्त वृष्टि का निवारण कर सकते हैं। यों, समाज के और व्यक्ति के सभी हितसाधक निमसों को या-वेद बताता है। यो, समाज के और व्यक्ति के सभी हितसाधक नियमों को यज्ञ-वेद बताता है। किन्तु परिवर्तन करने की प्रक्रिया या यज्ञ-वेद से पूर्व प्रकृति के नियमों का जानना अत्यावश्यक है। जब तक प्रकृति के नियमों केा ही ज्ञान न हो, तबतक परिवर्तन की प्रक्रिया किस आधार पर चलाई जा सकेगीं? इस विचार के अनुसार यज्ञ-वेद से पुराण वेद प्राचीन सिद्ध होता है, यही पुराणों ने बताया भी है।
इस प्रकार, इस अनादि पुराण-विद्या को, जो पहले अत्यन्त विस्तृत रूप में थी, संक्षिप्त कर कलियुग के आरम्भ में सर्वबोध्य सरल भाषा में भगवान् वेदव्यास परिवर्तित, सम्पादित या प्रकाशित किया करते हैं। इस युग के मनुष्यों के लिये जितना ज्ञान वे आवश्यक समझते हैं, उतना ही ज्ञान अपने रचित पुराण-ग्रन्थों में रखते हैं।
यज्ञ-वेद के मन्त्रों का यज्ञ में उच्चारण करना होता है, और ब्राह्मण-भाग में कर्म की पूराी विधि रहती है, इसलिय उसमें शब्द-विन्यास की भी पूराी रक्षा की गई है। जहाँ जो पद है, या पदों को जैसा क्रम है, उसमें बिन्दु-विसर्ग का भी परिवर्तन न होने पाये, इसका पूर्ण प्रयत्न है। जिस प्रकार के शब्दों में , जिस आनुपूर्वी में वह प्रकट हुआ था, उसी में आज भी उपस्थित है। उसे अक्षरश: कण्ठगत रखा गया है। किन्तु, पुराण वेद में शब्दो पर इतना बल नहीं दिया जाता । अर्थ वही रखा जाताहै, किन्तु शब्दों में परिवर्तित भी होता है। अनादि पुराण को भगवान् व्यास अपने शब्दों में परिवर्तित कर देेते हैं। आगे उनकी शिष्य परम्परा में भी नई नर्ह पुराण-संहिताएँ बनती हैं और उनमें वक्ता और श्रौता के संवाद के अनुसार शब्दों में परिवर्तन या घटा-बढ़ी होती है। इसीलिये पुराा संहिता को स्मृति रूप माना जाता है । स्मृतियों में शब्दों की आनुपूर्वी पर बल नही दिया जाता केवल अर्थ पर बल रहता है। अर्थ वही रहना चाहिये। उसके प्रकाशनार्थ शब्दों में सुविधाानुसार परिवर्तन भी होता रहे तो कोई हानि नहीं। इस शब्द विन्यास का कर्तृत्त्व होने के कारण ही भगवान् व्यास पुराणों के कत्र्ता कहे जाते हैं। किन्तु प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से पुराण-संहिता भी वेद के समान ही अनादि है।
दुःख की बात है कि इस प्रकार की यह अनादि विद्या मध्यकाल में भारतवर्ष में अर्द्धशिक्षित मनुष्यों के हाथ में पड़कर दुर्दशाग्रस्त हो गई। अपने शरीर का शृंगार कर स्त्रियों आदि के मध्य भिन्न-भिन्न प्रकार के हाव-भाव प्रदर्शित करना ही पुराण कथा का एकमात्र स्वरूप रह गया। उसी अवस्था में केवल शास्त्रार्थ या वाद-विवाद को ही शास्त्र समझनेवाले भारतीय विद्वानों ने ऐसे श्लोक भी गढ़ डाले इस प्रकार कुछ वेद के पाखण्डी विद्वानों ने कवि शब्द तक को अपमानित कर दिया। जबकि वेद के अर्थज्ञान में भी पुराण से अत्यन्त सहायता मिलती है जैसा कि कहा गया है कि-
इतिहासपुराणाभ्यां वेंदं समुपबृह्येत्।
बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदों मामयं प्रहरिष्यति।
अर्थात् इतिहास और पुराणों के द्वारा ही वेदों के अर्थ का अनुशील करना चाहिये। जो पुरुष अल्पुश्रुत होते हैं, अर्थात् इतिहास-पुराणादि को नही जानते, उनसे वेद डरता रहता है। कि ये पुरुष कहीं मुझ पर प्रहार न कर दें। इसका निदर्शन आज स्पष्ट रूप से देखने में आ रहा है कि केवल 4 मन्त्र संहिताओं को वेद समझकर उनपर मनमानी कल्पनाएँ की जा रही है। भारतीय परम्परा तो यही है कि मन्त्रों का अर्थ ब्राह्मणग्रन्थेां द्वारा समझाा जा सकता है और उनका भी स्पष्टीकरण पुराण एवं इतिहासों के द्वारा होता है। तभी वेद की गम्भीरता जिज्ञासुओं के हृदय में प्रकट होती है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि पुराणों में जो अर्थ कहे गये हैं, वे वेदार्थ के ही विस्ताररूप हैं। पुराणों में वेदार्थ के विरुद्ध कुछ भी नहीं कहा गया । पुराण वेद के विरोध के लिये ही बने हैं। यह यूरोपीय विद्वानों की एवं ऐसे ही पुराणों विरोधी सभी भारतीयो की सर्वथा निस्सार कल्पना है। इसी प्रकार पुराणों के औचित्य को प्रकाशित करते हुये कहा है-अथर्ववेद इतिहास वेदो च वेदाः पश्चिमं अहभागं इतिहासश्रवणे। पुराणमिति वृत्तमाख्यायिकोदाहरण धर्मशास्त्रंचेतिहासः।। (अर्थशास्त्र 2.4)
इस प्रकार पुराण को इतिहास का अंश माना है। वामन पुराण में पुराणाों को गंगा के समान पापों का विनाशकर्ता कहा गया है। षतपथब्राह्मण में इसे वेद मानते हुए अध्वर्यु ने कहा है, कि पुराण वेद ही हैं, वह यहीं हैं-पुराणं वेदः सोऽयमिति किंचित पुराणमाचक्षीत।। (शतपथ ब्राह्मण 13.4.3.13)इसी प्रकार वैदिक धर्म को प्रतिष्ठित करने में पुराणों का विस्तृत आयाम अपनी सार्थकता को बनाये हुए है, पौराणिक वाङ्मय निःसन्देह वैदिक सिद्धान्तों के बृहद् व्याख्यान के रूप में मननीय है।
वेदार्थादधिकं मन्ये पुराणार्थंवरानने।
वेदाः प्रतिष्ठिताः सर्वे पुराणे नात्र संशयः।। ( नारदीयपुराण 2.24.17)
कहा गया है, पुराणो के अर्थ निर्णय मे वेदार्थ का निर्णय ही प्रतिभासित होता है।भक्ति के माध्यम से प्रतिपादित ज्ञान राशि की व्यापकता पुराणो को भारतीय धर्म,संस्कृति एवं साहित्य के प्रत्येक अंग का उपजीव्य बनाने में हाथ बँटाया है।
यत्र दृष्टं हि वेदेषु न दृष्टं स्मृतिषु द्विजाः।
उभ्योर्यत्र दृष्टं हि तत् पुराणैः प्रतीयते।। (स्कन्दपुराण, प्रभासखण्ड 2.92)
श्रीमद्भागवद् पुराण साहित्य कोे पंचम वेद की संज्ञा दी गयी है।
ऋग्यजुःसामथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः।
शास्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्चितंव्यधात्।।
इतिहासपुराणानि पंचमंवेदमीश्वरः।
सर्वेभ्यः एव वक्त्रेभ्यः ससृजे सर्वदर्शनः। (भागवत् महापुराण 3.12.37-39)
मनुस्मृति मे कहा है-
स्वाध्यायं श्रावयेत् पित्रये धर्मशास्त्राणि चैव हि।
आख्यानानीतिहासाश्च पुराणानि खिलानि च।। ( मनुस्मृति 3.232)
न्याय दर्शन में पुराणो की परिभाषा इस प्रकार दी है।वेद का मार्ग शुष्क है, जबकि पुराणो का सरस एव रोचक है, वेद के ऋषि मंत्रों के दृष्टा हैं, पुराणों के ऋषि धर्मशास्त्र के प्रवक्ता हैं-य एव मंत्र ब्राह्मणस्य द्रष्टारः प्रवक्तारः च ते खलु इतिहास पुराणस्य धर्मशास्त्रस्य। ( न्यायदर्शन 4.11 ) तथा वेद के मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने ही धर्मशास्त्र की रचना की है।
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