राष्ट्र की चिति
अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)-
Mystic Power- १. चिति- (१) चित्-विन्दु आकाश चित् है, जिसे दहर भी कहते हैं।
यच्चेतयमाना अपश्यंस्तस्माच्चितयः। (शतपथ ब्राह्मण, ६/२/२/९)
तद्यत्पञ्च चितीश्चिनोत्त्येताभिरेवैनं तत्तनूभिश्चिनोति यच्चिनोति तस्माच्चितयः। (शतपथ ब्राह्मण, ६१/२/१७)
दहरेऽस्मिन् अन्तराकाशः (छान्दोग्य उपनिषद्, ८/१/२)
सभी चित् में अनुभव योग्य पदार्थ सत् है, उसके अतिरिक्त सर्व-व्यापी रस या आनन्द है। विश्व के अनन्त चित् मिल कर सत्-चित्-आनन्द है। कण रूप या सीमित पिण्ड पुरुष है। उसका क्षेत्र स्त्री है। यह मनुष प्रजनन क्रिया के अनुसार भेद है। पुरुष का योग कण-मात्र है। स्त्री का गर्भ क्षेत्र है, जिसमें जनन होता है।
(२) चिति-सभी कणों की उचित स्थान पर व्यवस्था चिति है। यह क्षेत्र रूप में देवी है-
चिति रूपेण या कृत्स्नं एतद् व्याप्य स्थिता जगत्।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो नमः॥ (चण्डी पाठ, ५/७८-८०)
नगर भी भवनों, मार्गों आदि की चिति है अतः इसे चिति (City) कहते हैं।
अग्नि (पिण्ड) की ५ चिति हैं-
पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः (कठोपनिषद्, ३/१/१)
पञ्चह्येतेऽग्नयो यदेताश्चितयः। (शतपथ ब्राह्मण, ६/२/१/१६)
आकाश की ५ चिति ५ पर्व है स्वायम्भुव, परमेष्ठी या ब्रह्माण्ड, सौर, चान्द्र, भू-मण्डल। अव्यक्त तथा शिव-शक्ति (पदार्थ ऊर्जा) रूप मिला कर ७ चिति हैं।
सप्तयोनीः (यजु. १७/३९) इति चितीरेतदाह। (शतपथ ब्राह्मण ९/२/३/४४)
परमाणु दृष्टि से देखने पर (१) परमाणु कणों से परमाणु, (२) उससे अणु, (३) अणु से कलिल या कोषिका, (४) उससे मांस, हड्डी, रक्त आदि, उससे (५) मनुष्य बने-मनुष्य तक ५ चिति हुयी। २ स्तर असत् (अदृश्य, विज्ञान की माप सीमा से परे) हैं, इनको मिला कर कुल ७ चिति होंगी जिनको अग्नि की जिह्वा, प्राण आदि से भी व्यक्त किया जाता है।
(३) चित्र-चिति का रूप चित्र है। मूल पदार्थ एक ही जैसा है, चिति होने से अलग अलग रूप दीखते हैं। अतः चित्र का अर्थ विविधता और निर्माण भी है।
चित्रः प्रकेतो अजनिषट विभ्वा (ऋक्, १/९४/५)
चित्राणि साकं दिवि रोचनानि (अथर्व, १९/७/१)
चित्रं देवानां उद् अगाद् अनीकम् (ऋक्, १/११५/१)
(४) चेतना-चिति निर्जीव द्वारा नहीं हो सकती। चिति करने वाला तत्त्व चेतना है, जो पुरुष रूप है। सांख्य दर्शन में पदार्थ श्री रूप है। माता होने के कारण इसे मातर् (matter) कहते हैं।
प्रजापतिर्वै चित्पतिः। (शतपथ ब्राह्मण ३/१/३/२२)
चेतव्यो ह्यासीत्तस्माच्चित्यः। (शतपथ ब्राह्मण ६/१/२/१६)
(५) चित्त-चेतना का स्थान चित्त है।
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। (योग सूत्र १/२) देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। (योग सूत्र, ३/१)
हृदये चित्तसंवित् । (योग सूत्र ३/३४), प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम्। (योग सूत्र, ३/१९)
बन्ध कारणशैथिल्यात् प्रचार संवेदनाच्च चित्तस्य परकाया प्रवेशः। (योग सूत्र, ३/३८)
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते। (गीता, ६/१८)
२. देवी रूप राष्ट्र-अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्। (देव्यथर्वशीर्ष, ७)
(१) संगमन रूप-समन्वित चेतना रूप में लोगों की क्रिया संगमन रूप राष्ट्र है।
संसमिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ। इळस्पदे समिध्यसे स नो वसुन्या भर॥१॥
वृषन् अग्नि = वर्षा करने वाला, उत्पादक (जैसे कृषि के लिए वृषभ), अग्नि = अग्रि = नेता।
वसूनि आभर = सम्पत्ति को भरो (भरत अग्नि)
इळः पदे (भू पृष्ठ पर) समिध्यसे (एक साथ यज्ञ या समन्वय)
सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते॥२॥
एक साथ चलना, बोलना, मन में ज्ञान, देव उपासना।
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि॥३॥
एक समान मन, समिति, मन्त्र, चित्त, एक मन्त्र से प्रेरित, एक साथ भोग या हवि।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः। समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति॥४॥
संकल्प, हृदय, मन-सभी एक समान हों। (ऋक्, १०/१९१/१-४)
(२) देवी भाग-नव दुर्गा- ९ दुर्गा की तरह भारत वर्ष के ९ खण्ड हैं। मुख्य कुमारिका खण्ड अधोमुख त्रिकोण है जिसे शक्ति त्रिकोण कहते हैं। शक्ति का मूल रूप कुमारी होने से इसे कुमारिका खण्ड कहते हैं। इसका मूल विन्दु कन्याकुमारी है।
अन्य ८ भाग हैं-भारतस्यास्य वर्षस्य नव भेदान् निबोधत॥७॥
इन्द्रद्वीपः कशेरुश्च ताम्रपर्णो गभस्तिमान्। नागद्वीपस्तथा सौम्यो गन्धर्वस्त्वथ वारुणः॥८॥
अयं तु नवमस्तेषां द्वीपः सागर संवृतः। योजनानां सहस्रं तु द्वीपोऽयं दक्षिणोत्तरः॥९॥
आयतस्तु कुमारीतो गङायाः प्रवहावधिः। तिर्यगूर्ध्वं तु विस्तीर्णः सहस्राणि दशैव तु॥१०॥
(मत्स्य पुराण, ११४/७-१०)
इन्द्रद्वीप = दक्षिण पूर्व एशिया, जहां आज भी इन्द्र सम्बन्धित ५० वैदिक शब्द प्रचलित हैं। गरुड़ के नाम पर कम्बोडिया का वैनतेय जिला भी है। कशेरु = बोर्नियो, सेलेबीज, फिलीपीन। ताम्रपर्ण= तमिलनाडु के निकटवर्त्ती सिंहल (श्रीलंका)। गभस्तिमान = पूर्वी इण्डोनेसिया। पपुआ न्यूगिनी आस्ट्रेलिया का भी भाग था, जहां की गभस्ति नदी को शक द्वीप में कहा गया है। नागद्वीप = अण्डमान निकोबार से पश्चिमी इण्डोनेसिया तक। नाग का अर्थ हाथी भी है। हाथी की सूंड के आकार में होने के कारण इण्डोनेसिया के पश्चिम-पूर्व भागों को बड़ा तथा छोटा शुण्डा कहते हैं। सौम्य = उतर में तिब्बत। गन्धर्व -अफगानिस्तान, ईरान। वारुण = अरब, ईराक।
(३) त्रिकोण रूप में उत्तर पूर्व में कामाख्या पीठ महाकाली रूप, दक्षिण में शारदा पीठ महा सरस्वती रूप तथा पश्चिमोत्तर में महालक्ष्मी स्वरूप है (विष्णु विटप कश्मीर में वैष्णोदेवी)।
(४) शक्ति पीठ-४९ मरुत् स्वरूप देवनागरी के ४९ वर्ण हैं। इसे इन्द्र-मरुत् ने आरम्भ किया था। इन्द्र पूर्व के तथा मरुत् उत्तर के लोकपाल थे। आज भी यह लिपि असम से अफगानिस्तान सीमा तक प्रचलित है। आकाश में पृथ्वी से क्रमशः २-२ गुणा बड़े ४९ धाम ब्रह्माण्ड सीमा तक हैं, जिसकी माप भूरिक् जगती छन्द है। उसके बाद ५२ धाम तक कूर्म या गोलोक है जिसमें ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ। इन अक्षरों से शब्द रूप विश्व बना, अतः इनको मातृका कहते हैं। शरीर विश्व की प्रतिमा है, अतः उसमें भी अक्षरों की स्थिति या न्यास विभिन्न विन्दुओं पर माने गये हैं। अ से ह तक वर्णमाला है, अतः शरीर का क्षेत्र अहं है। इसे जानने वाला आत्मा क्षेत्रज्ञ है (गीता, अध्याय १३) अतः ४९ अक्षरों के बाद क्ष, त्र, ज्ञ जोड़ कर ५२ अक्षर हैं जिसे सिद्ध क्रम कहते हैं। केवल क्ष जोड़ने पर ५० अक्षर रूप काली की मुण्डमाला है जिसे अक्ष माला भी कहते हैं। ५२ अक्षरों के स्वरूप भारत भूमि में ५२ शक्ति पीठ हैं, जो शिव पत्नी सती के अंग हैं। इनकी सूची तन्त्र चूड़ामणि, देवी पुराण के अध्याय ३९ में है।
१६ स्वर वर्णों के उदात्त-अनुदात्त-स्वरित, ह्रस्व-दीर्घ-प्लुत, अल्पप्राण-महाप्राण बेदों से १०८ रूप होते हैं। या क्रान्तिवृत्त के १२ राशि तथा २७ नक्षत्र विभाजन के मिलन से १०८ भाग हैं जो नक्षत्र पाद हैं। इनके प्रतिरूप १०८ शक्तिपीठों की सूची देवी भागवत पुराण, अध्याय (७/३०) में है।
(५) सैन्य क्षेत्र- सैन्य क्षेत्रों के अनुसार कार्त्तिकेय ने भारत को ६ भागों में बांटा था जिनको कार्त्तिकेय की ६ माता कहते हैं (तैत्तिरीय संहिता, ४/४/५/१, तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१/४/४, ब्रह्माण्ड पुराण, ३/४/३२/२९)-दुला (बंगाल, ओड़िशा, दुला देवी मन्दिर, दुलाल = कार्त्तिकेय), अभ्रयन्ती
(२) मॉनसून का सारम्भ-आन्ध्र, महाराष्ट्र), मेघयन्ती (गुजरात, राजस्थान, जहां मेघ कम किन्तु मेघानी उपाधि है), वर्षयन्ती (अधिक वर्षा असम), नितत्नि (नीचे फैलने वाली लता-तमिलनाडु), चुपुणिका (पंजाब-चोपड़ा)।
३. शिव रूप- (१) ज्योतिर्लिंग-पिण्ड या अग्नि रूप में शिव ८ वसु हैं, वायु रूप में ११ रुद्र तथा तेज रूप में १२ आदित्य है। सौर मण्डल के ये ३३ धाम हैं, अग्नि-वायु तथा वायु-तेज सन्धियों पर दो नासिक्य या अश्विन हैं। पृथ्वी पर १२ मासों में सूर्य के १२ प्रकार की ज्योति १२ आदित्य हैं। इनके स्वरूप १२ ज्योतिर्लिंग हैं।
(२) लिंग परिभाषा- लिंग (बाह्य चिह्न) रूप में ३ प्रकार के विभाग हैं-स्वयम्भू लिंग जिसमें विश्व की उत्पत्ति तथा लय होता है, बाण लिंग गति की ३ दिशा हैं, जो आकाश के ३ आयाम हैं। इतर लिंग अनन्त प्रकार के रूप हैं जिनका १२ ज्योति में विभाजन है। लिंग का अर्थ है-
लीनं गमयति यस्मिन्।
मूल स्वरूप लिङ्गत्वान्मूलमन्त्र इति स्मृतः । सूक्ष्मत्वात्कारणत्वाच्च लयनाद् गमनादपि ।
लक्षणात्परमेशस्य लिङ्गमित्यभिधीयते ॥ (योगशिखोपनिषद्, २/९, १०)
(३) भौतिक रूप-आकाश मे अव्यक्त या व्यक्त दृश्य जगत् स्वयम्भू लिंग है। अव्यक्त स्वयम्भू लिंग भुवनेश्वर का लिंगराज (जगन्नाथ धाम की सीमा) तथा व्यक्त स्वयम्भू लिंग मेवाड़ का एकलिंग (पुष्कर के ब्रह्म धाम की सीमा) है।
आकाश के ३ आयाम त्रिलिंग हैं, जिसका भौतिक रूप त्रिलिंग (तेलांगना) है, जहां के ३ पीठों को ३ प्रकार के आराम कहते हैं। ये शिव के ३ नेत्रों के प्रतीक हैं-द्राक्षारामम् (सूर्य), सोमारामम् (चन्द्र), कुमारारामम् (कुमार अग्नि या पृथ्वी)। पञ्चमुख रूप में २ और आराम हैं-क्षीराराम (विष्णु), अमराराम (अमरावती, इन्द्र)।
आध्यात्मिक रूप में मूलाधार में स्वयम्भू लिंग (उसके अंगों से मनुष्य जन्म), अनाहत चक्र में बाण लिंग (श्वास, रक्त सञ्चार केन्द्र) तथा आज्ञा चक्र में इतर लिंग। इतर का अर्थ है भिन्न रूप (other)। इनको आंख से देखते हैं तथा मस्तिष्क से पहचानते हैं। १२ रूपों के अनुसार मीमांसा दर्शन में १२ प्रकार की शब्द शक्ति हैं। (शिव संहिता, पटल ५)
(४) शब्द लिंग-वाक् का व्यक्त रूप भी लिंग (Lingua, language) है। लिंग पुराण (१/१७/८३-८८) में कई प्रकार के शब्द लिंग या लिपियों के उल्लेख हैं-
गायत्री के २४ अक्षर-४ प्रकार के पुरुषार्थ के लिये।
कृष्ण अथर्व के ३३ अक्षर-अभिचार के लिये।
३८ अक्षर-धर्म और अर्थ के लिये (मय लिपि के ३७ अक्षर = अवकहडा चक्र + ॐ)
यजुर्वेद के ३५ अक्षर-शुभ और शान्ति के लिये-३५ अक्षरों की गुरुमुखी लिपि।
साम के ६६ अक्षर-संगीत तथा मन्त्र के लिये।
(५) गुरु रूप- गुरु-शिष्य परम्परा रूप मस्तिष्क में आज्ञा चक्र के ऊपर त्रिकूट या कैलास है, जहां इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना का मिलन होता है। यहां मस्तिष्क के वाम-दक्षिण भाग के वार्त्तालाप से १८ प्रकार की विद्या उत्पन्न होती है (द्वा सुपर्ण सूक्त- मुण्डक उप. ३/१/१, श्वेताश्वतर उप. ४/६, ऋक्, १/१६४/२०, अथर्व, ९/९/२०)।
समुन्मीलत् संवित्-कमल मकरन्दैक रसिकं, भजे हंस-द्वन्द्वं किमपि महतां मानसचरम्।
यदालापादष्टादश गुणित विद्या परिणतिः, तदादत्ते दोषाद् गुणमखिल-मद्भ्यः पय इव॥
(शंकराचार्य, सौन्दर्य लहरी, ३८)
इसके भौतिक रूप हैं-हिमालय में कैलास, मध्य में काशी तथा दक्षिण में काञ्ची।
(६) सिख मत- सिख मत में भी गुरु को शिव रूप माना गया है। गुरु गोविन्द सिंह जी की उक्ति है-देहु शिवा वर मोहि इहै, शुभ कर्मन तें कबहूं न टरौं। भारत को गुरु रूप मान कर विभिन्न स्थानों में गुरु की कल्पना की गयी है। मंझी साहब की कथा है वहां गुरु नानक मंझी (खाट) पर बैठे थे। कटक में दान्तन साहब की कथा है कि वहां दातून किया था। अन्य स्थानों पर भी वे यह काम करते थे, पर सती के अंगों की तरह पूरा भारत उनका स्वरूप मानने की यह विधि है। शरीर में कण्ठ स्थान में जालन्धर बन्ध किया जाता है। उसके ऊपर मस्तिष्क के चोटी स्थान में विन्दु चक्र या अमृत-सर है। पंजाब में भी जालन्धर के उत्तर पश्चिम अमृतसर है।
४. एकमात्र पूर्ण राष्ट्र-(१) प्राचीन राष्ट्र-भारत प्राचीन काल से राष्ट्र के रूप में विख्यात है।
महाभारत, भीष्मपर्व, अध्याय ९-
अत्र ते कीर्तयिष्यामि वर्षं भारत भारतम्। प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोर्वैवस्वतस्य च॥५॥
पृथोस्तु राजन् वैन्यस्य तथेक्ष्वाकोर्महात्मनः। ययातेरम्बरीषस्य मान्धातुर्नहुषस्य च॥६॥
तथैव मुचुकुन्दस्य शिवेरौशीनरस्य च। ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा॥७॥
कुशिकस्य च दुर्द्धर्ष गाधेश्चैव महात्मनः। सोमकस्य च दुर्द्धर्ष दिलीपस्य तथैव च॥८॥
अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम्। सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारतम्॥९॥
(२) विविधता की रक्षा-१९२३ में अविनाश चन्द्र दास ने ऋग्वेदिक भारत (अंग्रेजी) में लिखा था कि भारत में सभी प्रकार की जलवायु है, अतः सर्वाङ्गीण ज्ञान तथा वेद का केन्द्र यही देश हो सकता था।
वेद केन्द्र रूप में भारत विश्व का हृदय है। दक्षिण भारत के त्रिकोण के ऊपर अर्ध चन्द्राकार हिमालय मिलाने से जो आकार बनता है उसे हृदय या प्रेम चिह्न कहते हैं। वास्तविक हृदय वैसा नहीं है, यह भारत का ही प्रतीक है।
विश्व के वनों का विस्तृत वर्गीकरण श्यामकिशोर सेठ ने १९५८ में किया था जो चैम्पियन द्वारा पुराने वर्गीकरण का संशोधन था। उसके १६ मुख्य तथा ६४ गौण वर्ग हैं। केवल भारत में ही सभी ६४ प्रकार के वन आज भी हैं।
(३) पूर्ण वर्ष-वर्ष पर्वत से घिरा हुआ भाग वर्ष कहलाता है। भारत हिमालय से घिरा होने के कारण एक ही वर्षा (मॉनसून) क्षेत्र है। अन्य किसी देश की वैसी सीमा नहीं है। केवल पुष्कर द्वीप (दक्षिण अमेरिका) के २ भाग एण्डीज पर्वत से विभाजित हैं-पूर्व भाग प्रचुर जल वाला धातकि खण्ड तथा पश्चिम शुष्क महावीर खण्ड है।
(४) हिमालय से रक्षा (क) -हिमालय सशक्त प्राकृतिक दुर्ग है।
(ख) हिमालय के कारण भारत में नियमित वर्षा होती है।
(ग) हिम युग में कनाडा, रूस, उत्तर यूरोप आदि पूरी तरह हिम से ढंक कर नष्ट हो जाते हैं। उत्तर के शीत युग से हिमालय के कारण भारत बच जाता है। अतः यहां की सभ्यता २२,००० वर्षीय हिमयुग चक्र से नष्ट नहीं हुई।
(५) विश्व का भरण-असुर संस्कृति असु या बल द्वारा अपहरण पर आधारित है। भारत के साध्य यज्ञ उत्पादनों के समन्वय से देव पद तक उन्नत हुए थे।
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः तानि धर्माणि प्रथमानि आसन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्तः यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥ (पुरुष सूक्त, १६)
भारत का मनु (स्वायम्भुव से वैवस्वत तक देश के मन स्वरूप) विश्व का भरण करते थे, अतः उसे भरत कहते थे, और इस देश को भारत।
अथाहं वर्णयिष्यामि वर्षेऽस्मिन् भारते प्रजाः। भरणच्च प्रजानां वै मनुर्भरत उच्यते॥
(मत्स्य पुराण, ११४/५)
निरुक्त (८/१३) में भारती नाम का अर्थ है, भरत (भरण करने वाले आदित्य) का क्षेत्र, या भा = ज्ञान के प्रकाश में रत।
आ नो यज्ञं भारती तूयम् एतु (ऋक्, १०/११०/८, अथर्व, ५/१२/८, वाज. यजु, २९/३३)
देवयुग के बाद ३ भरत और थे-ऋषभ पुत्र भरत (प्रायः ९५०० ई.पू.), दुष्यन्त पुत्र भरत (७५०० ई.पू.), राम के भाई भरत जिन्होंने १४ वर्ष (४४०८-४३९४ ई.पू.) शासन सम्भाला था।
अग्नेर्महाँ ब्राह्मण भारतेति । एष हि देवेभ्य हव्यं भरति । (तैत्तिरीय संहिता, २/५/९/१, तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/५/३/१, शतपथ ब्राह्मण, १/४/१/१)
= ब्रह्मा ने अग्नि (अग्रि = नेता) को महान् तथा भारत कहा था क्योंकि यह देवों को भोजन देता है।
विश्व भरण पोषण कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥(रामचरितमानस, १/१९६/७)
भारत के बारे में यही विचार सभी ग्रीक लेखकों के भी हैं, पर उन लोगों को इसका आकार का पता नहीं था (जैसे मेगास्थनीज, इण्डिका, ३६)। यूरोप के लोग इसे १७५० ई तक चौकोर लिखते थे।
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