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संध्या के लिये उत्तम देश तथा काल
डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक)-
1-सन्ध्या का काल
2-कर्म लोप का प्रायश्चित्त
3-अशौच में संध्योपासन का विचार
4-अशौच काल निर्णय
संध्या के लिये उत्तम देश तथा काल
संध्या के लिये वही स्थान उपयोगी है, जो स्वभावतः पवित्र और एकान्त हो, अपवित्र या कोलाहल पूर्ण स्थान में मन की वृत्तियाँ चंचल होती हैं और हृदय में दूषित विचार उठते रहते हैं। एकान्त स्थान एकाग्रता में सहायक होता है, पवित्र स्थान मन में पवित्रता लाता है और पवित्र गन्ध तथा पवित्र वायु के संयोग से स्वास्थ्य भी ठीक रहता है, साथ ही सद्विचारों का उद्गम होता है। इसलिये स्थान की पवित्रता के सम्बन्ध में विशेष ध्यान देना चाहिये। शास्त्रों में संध्या के लिये निम्नांकत स्थानों का निर्देश किया गया है-पुण्यक्षेत्र, नदी का तट, पर्वतों की गुहा और शिखर, तीर्थ स्थान, नदी संगम, पवित्र जलाशय, एकान्त बगीचा, बिल्व वृक्ष के नीचे, पर्वत की उपत्य का, देवमन्दिर, समुद्र का किनारा और अपना घर ।
पुण्यक्षेत्रं नदीतीरं गुहां पर्वतमस्तकम्।
तीर्थप्रदेशाः सिन्धूनां सङ्गमः पावनं सरः॥ (शारदातिलक)
उद्यानानि विविक्तानि बिल्वमूलं तटं गिरेः।
देवाद्यायतनं कूलं समुद्रस्य निजं गृहम्॥ (आह्निकसूत्रावली)
सन्ध्याकाकाल
स्थान के ही समान काल की उत्तमता का भी ध्यान रखना चाहिये। प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व और सायंकाल सूर्यास्त से पहले संध्या के लिये उत्तम समय है। श्रुति भी यही कहती है-
अहोरात्रस्य संयोगे संध्यामुपास्ते सज्योतिषि आज्योतिषो दर्शनात्।’
अर्थात् ‘दिन-रात की संधि के समय संध्योपासना करे। सायंकाल में सूर्य के रहते-रहते संध्या आरम्भ करे और प्रातःकाल सूर्योदय के पहले से आरम्भ करके सूर्य के दर्शन होने तक संध्योपासना करे।’
उपर्युक्त काल से देर हो जानेपर गौण काल होता है, मुख्य नहीं रहता। मनुस्मृति के अनुसार प्रातःसंध्या में काल-विभाग यों समझना चाहिये—सूर्योदय से पूर्व जब तक तारे दिखायी देते रहें, उत्तम काल है। ताराओं के छिपने से लेकर सूर्योदय काल तक मध्यम है, सूर्योदय के पश्चात् अधम काल है। इसी प्रकार जब सूर्य दिखायी देते रहें, उस समय की हुई सायं-संध्या उत्तम होती है। सूर्यास्त के बाद ताराओं के उदय से पहले की हुई संध्या मध्यम श्रेणी की है और ताराओं के उदय के पश्चात् की हुई संध्या निम्न श्रेणी की समझी जाती है। यह सायं-संध्या का काल- विभाग है।
१-उत्तमा तारकोपेता मध्यमा लुप्ततारका।
अधमा सूर्यसहिता प्रातःसंध्या त्रिधा स्मृता॥ (मनु०)
२-उत्तमा सूर्यसहिता मध्यमा लुप्तभास्करा।
अधमा तारकोपेता सायंसंध्या त्रिधा स्मृता॥ (मनु०)
प्रातःसंध्या में सूर्योदय के पश्चात् दो घड़ी तक गौणोत्तम काल माना गया है और सायं-संध्या में सूर्यास्त से तीन घड़ी बाद तक गौणोत्तम काल है। इसी तरह प्रातःकाल सूर्योदय के बाद और सायंकाल सूर्यास्त के बाद चार घड़ी तक गौण मध्यम काल माना गया है।
सायंकाले त्रिघटिका अस्तादुपरि भास्वतः।
प्रातःकाले द्विघटिके तत्र संध्या समाचरेत्। (स्मृति-संग्रह)
चतस्रो घटिकाः सायं गौणकालोऽस्ति मध्यमः।
प्रातःकालेऽप्येवमेव संध्याकालो मुनीरितः॥ (स्मृति-संग्रह)
गौण मध्यम काल तक यदि संध्या हो जाय तो काल-लोप के लिये प्रायश्चित्त नहीं करना पड़ता। इससे अधिक देर होने पर कालातिक्रमण का प्रायश्चित्त करना चाहिये। प्रायश्चित्त इस प्रकार है-
‘ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ओम् आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम् ॥
यह मन्त्र पढ़कर सूर्य को चौथा अर्घ्य देना चाहिये (तीन अर्घ्य तो नित्य दिये ही जाते हैं)। दिन का पाँच भाग करने पर तीसरा और चौथा भाग मध्याह्न काल की संध्या के लिये मुख्य है।
गायत्रीं शिरसा सार्धमुक्त्वा व्याहृतिभिः सह।
कालातीतविशुद्धयर्थं चतुर्थाय॑ प्रदापयेत्॥ (मदनपारिजात)
मध्याह्ने तु– ‘अध्यर्घयामादासायं संध्या माध्याह्निकीष्यते’ इति दक्षवचनेन विभक्तदिवस्य तृतीयभागादारभ्य पञ्चमभागारम्भपर्यन्तं तत्कालो मुख्यः । (कातीयनित्यकर्मपद्धति)
साधारण तया सूर्योदय के बाद अपराह्न काल तक मध्याह्न – संध्या का समय है। मध्याह्न-संध्या करने वाले को प्रातःसंध्या के पश्चात् तुरंत भोजन नहीं करना चाहिये। ठीक समय पर मध्याह्म-संध्याका नियम पूरा करके ही करना उचित है। स्मृति का वचन है-
स्नानसंध्यातर्पणादि जपहोमसुरार्चनम्।
उपवासवता कार्यं सायंसंध्याहुतीविना॥
‘केवल सायं-संध्या और सायंकालिक अग्निहोत्र के सिवा जो भी स्नान, संध्या, तर्पण आदि तथा जप, होम और देवार्चन आदि कार्य हैं, उनका भोजन के पहले ही अनुष्ठान करना चाहिये।’ -इस वचन के अनुसार मध्याह्न-संध्या भोजन के पहले ही की जानी चाहिये। यदि कभी एकादशीव्रत का पारण द्वादशी में करना हो और द्वादशी सूर्योदय के बाद बहुत ही कम रह गयी हो तो प्रातः और मध्याह्म-संध्या उषःकाल में ही कर लेनी चाहिये।
यदा भवति चाल्पाति द्वादशी पारणादिने।
उषःकाले द्वयं कुर्यात् प्रातर्मध्याह्निकं तदा॥ (मत्स्यपुराण)
कर्मलोपकाप्रायश्चित्त
संध्याकर्म के निश्चित काल का लोप हो जाने पर भी प्रायश्चित्त करना पड़ता है, फिर कर्म का लोप होने पर तो कहना ही क्या है। कर्म का लोप तो कभी होना ही नहीं चाहिये। यदि कभी हो गया तो उसका स्मृति के अनुसार प्रायश्चित्त कर लेना उचित है। प्रायश्चित्त के विषय में जमदग्निका मत इस प्रकार है । यदि प्रमादवश एक दिन संध्याकर्म नहीं किया गया तो उसके लिये एक दिन-रात का उपवास करके दस हजार गायत्री का जप करना चाहिये। शौनकमुनि तो यहाँ तक कहते हैं कि यदि किसी के द्वारा प्रमादवश सात रात तक संध्या-कर्म का उल्लंघन हो जाय अथवा जो उन्माद-दोष से दूषित हुआ रहा हो, उस द्विजका पुनः उपनयन-संस्कार करना चाहिये। यदि निम्नांकित कारणों से विवश होकर कभी संध्या कर्म न बन सका तो उसके लिये प्रायश्चित्त नहीं करना पड़ता। राष्ट्र का ध्वंस हो रहा हो, राजा के चित्त में क्षोभ हुआ हो अथवा अपना शरीर ही रोगग्रस्त हो जाय या जनन-मरणरूप अशौच प्राप्त हो जाय- इन कारणों से संध्या कर्म में बाधा पड़े तो उसके लिये प्रायश्चित्त नहीं है।
१-एकाहं समतिक्रम्य प्रमादादकृतं यदि।
अहोरात्रोषितो भूत्वा गायत्र्याश्चायुतं जपेत्॥ (जमदग्नि)
२-संध्यातिक्रमणं यस्य सप्तरात्रमपि च्युतम्।
उन्मत्तदोषयुक्तो वा पुनः संस्कारमर्हति॥(शौनक)
३-राष्ट्रभङ्गे नृपक्षोभे रोगाते सूतकेऽपि वा।
संध्यावन्दनविच्छित्तिर्न शेषाय कथञ्चन॥ (जमदग्नि)
परंतु ऐसे समयमें भी मन-ही-मन मन्त्रों का उच्चारण करके यथासम्भव कर्म करना आवश्यक है। अभिप्राय यह कि मानसिक संध्या कर लेनी चाहिये। संध्या नित्यकर्म है, अतः उसका अनुष्ठान जैसे भी हो, होना ही चाहिये। अकारण उसका त्याग किसी भी तरह से क्षम्य नहीं है। यदि परदेश में यात्रा करने पर किसी समय प्रातः-सायं या मध्याह्म-संध्या नहीं बन पड़ी तो पूर्वकाल के उल्लंघन का प्रायश्चित्त अगले समय की संध्या में पहले करके फिर उस समय का कर्म आरम्भ करना चाहिये। दिन में प्रमादवश लुप्त हुए दैनिक कृत्य का अनुष्ठान उसी दिन की रात के पहले पहर तक अवश्य कर लेना चाहिये।
१-कालातीतेषु सर्वेषु प्राप्तवत्सूत्तरेषु च।
कालातीतानि कृत्यैव विदध्यादुत्तराणि तु॥
२-दिवोदितानि कृत्यानि प्रमादादकृतानि वै।
शर्वर्याः प्रथमे भागे तानि कुर्याद्यथाक्रमम्॥ (नागदेव)
अशौच में संध्योपासन का विचार
जननाशौच अथवा मरणाशौच में मन्त्र का उच्चारण किये बिना ही प्राणायाम करना चाहिये तथा मार्जन मन्त्रों का मन ही मन उच्चारण करते हुए मार्जन कर लेना चाहिये। गायत्री का स्पष्ट उच्चारण करके सूर्य को अर्घ्य दे। मार्जन करे या न करे, परंतु उपस्थान तो नहीं ही करना चाहिये। मानसिक संध्या का भी स्वरूप यही है। यह आरम्भ से अर्घ्य के पहले तक ही की जाती है, इसमें कुश और जल का उपयोग नहीं होता। गायत्री मन्त्रका उच्चारण करके जो अर्घ्य देने की बात कही गयी है, उसमें जल का उपयोग आवश्यक है अर्थात् अशौचावस्था में भी सूर्य को जल से अर्घ्य देना ही चाहिये।
१-सूतके मृतके वापि प्राणायामममन्त्रकम्।
तथा मार्जनमन्त्रांस्तु मनसोच्चार्य मार्जयेत्॥
गायत्रीं सम्यगुच्चार्य सूर्यायायं निवेदयेत्।
मार्जनं तु न वा कार्यमुपस्थानं न चैव हि। (आह्निकसूत्रावली)
२.अर्ध्यान्ता मानसी संध्या कुशवारिविवर्जिता। (निर्णयसिन्धु)
३-सूतके तु सावित्र्याञ्जलंप्रक्षिप्य प्रदक्षिणं कृत्वा सूर्य ध्यायन्नमस्कुर्यात्। (मिताक्षरामें पैठीनसिका मत)
जल के अभाव में धूलि से अर्घ्य करना चाहिये। जल के अभाव में या बहुत लम्बी यात्रा के समय अथवा कैद में पड़ जानेपर या अशौच-अवस्था में दोनों कालों की संध्या के समय धूलि से भी अर्घ्य देना बताया गया है। संध्याकाल में आपत्तिग्रस्त या अशौचयुक्त पुरुष को भी कम-से-कम दस-दस बार गायत्री-मन्त्रका जप करना चाहिये।
अशौच काल निर्णय
१-जलाभावे महामार्गे बन्धने त्वशुचावपि।
उभयोः संध्ययोः काले रजसा वाऱ्यामुच्यते॥
(आह्निकसूत्रावली)
२-आपन्नश्चाशुचिः काले तिष्ठन्नपि जपेद्दश।
(आचारमयूख)
यदि बालक उत्पन्न होकर नालच्छेद के बाद गतायु हो जाय तो उसका मरणाशौच तो नहीं रहता, किन्तु जननाशौच निवृत्त नहीं होता अर्थात् पूरे १० दिन का सूतक रहता है। जो बालक दाँत निकलने के पहले देह त्याग कर दे, उसका मरणाशौच तत्काल निवृत्त हो जाता है। दाँत निकलने से लेकर चूडाकर्म के पहले तक एक रात तक अशौच रहता है, चूडाकर्म के बाद जनेऊ के पहले तक तीन रात और जनेऊ के बाद दस रात तक अशौच रहता है।
यावन्न छिद्यते नालं तावन्नाप्नोति सूतकम्।
छिन्ने नाले ततः पश्चान्मृतकं तु विधीयते॥ (मिताक्षरामें जैमिनिका मत)
आदन्तजन्मनः सद्य आचूडान्नैशिकी स्मृता।
त्रिरात्रमात्रतादेशाद्दशरात्रमतः परम्।। (याज्ञवल्क्यस्मृति ३। २३ । २३)
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