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श्रीकृष्ण-धारणा
(श्री परमहंस परिव्राजकातार्यवर्य श्री १०८ गोस्वामी श्रीमद्धक्तिसिद्धान्तजी सरस्वती महाराज)
mysticpower- श्रीरूपानुगों के चरणों का आश्रय न लेने के कारण जगत में श्री कृष्ण के सम्बन्ध में अगणित आध्यक्षिक मनःकल्पनाएँ उत्पन्न होकर श्रीकृष्ण की आलोचना के नाम पर अत्यन्त ही कृष्ण-बहिर्मुखता के भाव बढ़ा रही
हैं।
श्रीचैतन्यदेव ने कहा है-
“जेड़ कृष्णतत्त्ववेत्ता, सेइ गुरु हय”
“जो श्रीकृष्ण के तत्त्व को जानता है, वही गुरु हो सकता है, श्रीराय रामानन्द, श्रीस्वरूप दामोदर, श्रीरूप सनातन, श्रीरघुनाथ और श्रीजीव आदि गोस्वामी महानुभावों द्वारा उपदिष्टं श्रीकृष्णतत्व की आलोचना करने पर इन आध्यक्षिक ‘मतवादियों की कल्पनाओं के कारखाने में श्रीकृष्ण के नाम पर बनी हुई, श्रीकृष्ण-गुणमाया की पुतलियों की कृष्ण-बहिर्मुख मनोहारी चमक-दमक की कीमत एक कानी ‘कौड़ी से भी कम प्रतीत होने लगती है; कोई-कोई ग्राम्य औपन्यासिक और ग्राम्य कवि कहलाने वाले लोग श्रीकृष्णचरित्र और श्रीकृष्णलीला आदि लिखने जाकर श्रीकृष्ण के चरण-नख से करोड़ों योजन दूर श्रीकृष्ण की महामाया के द्वारा निर्मित अन्धकूप में जा पड़ते हैं।
वे यह नहीं समझ सकते कि जैसे रावण चिच्छक्ति सीता को हरण नहीं कर सकता और माया-सीता के हरण को ही वास्तविक “सीता-हरण’ मान लेता है; जैसे मूर्ख मक्खी स्वच्छ ‘काच की शीशी के अन्दर रखे हुए मधु को स्पर्श नहीं कर सकती और शीशी के बाहर बैठकर ही “मुझे मधु मिल गया है’ ऐसा मान लेती है वैसे ही जो श्री रूपानुगों के चरणों का आश्रय नहीं लेते, सम्पूर्ण भाव से सर्वस्व समर्पणकर सर्वात्मा से श्रीरूपानुगों के पद-पकज-पराग का सेवन नहीं करते, वे सब ग्राम्य कवि, ग्राम्य साहित्यिक, ग्राम्य औपन्यासिक, देशनेता, समाजनेता, विद्याभिमानी, जागतिक रूप-गुण-कुल-शील-पाण्डित्य में श्रेष्ठता के अभिमानी लोग, दुनिया के लोगों द्वारा चाहे जितनी प्रतिष्ठा प्राप्त कर लें परन्तु अप्राकृत श्रीकृष्णतत्त्व के सम्बन्ध में वे कुछ भी हृदयज्ञम नहीं कर सकते; उनकी श्रीकृष्णतत्त्व- सम्बन्धिनी आलोचना केवल आंशिक और असम्यक् ही नहीं होती परन्तु सम्पूर्ण रूप से विकृत और विपरीत होती है।
इसी श्रेणी के लोग श्रीकृष्ण जो कभी राजनैतिक नेता, कूटबुद्धिसम्पन्न व्यक्तिविशेष, कभी सांसारिक लम्पट मनुष्यों के आदर्श, कभी श्रीकृष्ण की लाम्पटय-ककालिमा (?) को धोने के लिये कोई रूपकतत्त्वविशेष और कभी उन्हें सांसारिक अभ्युदय और उन्नति के उपदेशक, आदि न मालूम क्या-क्या बतलाते हैं।
परन्तु श्रीकृष्ण इन सारे प्राकृत विचारोंस बिलकुल परे हैं। श्रीकृष्ण तो बात ही क्या है, श्रीकृष्ण के पदनख से प्रकाशित असंख्य अवतार एवं उनके सेवकानुसेवक मण्डली पर भी इन सब लौकिकताओं का आरोप नहीं हो सकता। आजकल कुछ लोग किसी-किसी लौकिक देश नेता आदि को श्रीकृष्ण सजाने की चेष्टा करते हुए जीव में परमेश्वर बुद्धि का आरोपण कर जगत में भयानक मायावाद-हलाहल का प्रचार कर रहे हैं।
इस प्रकार के अपराध द्वारा जगज्जजाल बढ़ रहा है और देश विनाश की ओर जा रहा है। जीव में कृष्णबुद्धि करने के समान और अपराध नहीं। जीव में कृष्ण का अधिष्ठान है, किन्तु जीव कृष्ण नहीं है। जो निर्विशेषवाद को चरम लक्ष्य मानकर श्रीकृष्ण पूजा की सामयिक छलना प्रदर्शित करते हैं, वे श्रीकृष्ण पूजक नहीं, प्रत्युत श्रीकृष्ण से सर्वथा विमुख और अपराधी हैं। अभिन्न श्रीकृष्ण श्रीकृष्णचैतन्यदेव के पद रेणु गणों के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण करने से ही यह सारी बातें जानी जाती हैं।
“श्रीकृष्ण” शब्द-पूर्ण, शुद्ध, नित्यमुक्त, चिन्तामणिस्वरूप है। ‘ श्रीकृष्ण’ शब्द स्वयंसिद्ध और स्वयंपूर्ण होनेके कारण उसको परिपूर्ण करनेके लिये किसी अन्य शब्द या नामान्तरकी आवश्यकता नहीं है।
*ब्रह्म’, ‘परमात्मा’, ‘ अन्तर्यामी’, ‘जगत्स्रष्ट’, ‘विश्वविधाता’ आदि शब्दों को पूर्ण करनेके लिये ‘ कृष्ण’ शब्द की आवश्यकता होती है। क्योंकि इन शब्दोंमें पूर्ण, परात्पर वस्तु का सम्पूर्ण भाव प्रकाशित नहीं होता। परन्तु ‘कृष्ण’ शब्द श्रीकृष्ण के समान ही अखण्ड स्थान, अखण्ड काल, अखण्ड पात्र एवं सम्पूर्ण अखण्ड भावराशि की समग्रता को सिद्ध करता है। इसीलिये श्रीकृष्णभक्तराज शम्भु कहते हैं–
“तारकाज्जायते मुक्ति: प्रेमभक्तिस्तु पारकादिति।‘
“पूर्वमत्र मोचकत्व प्रेमदत्वाभ्यां तारकपारकरसंल्ञे
रामकृष्णनाम्नोर्हिं बिहिते। तत्र चर रामनाम्ति
मोचकत्वशक्तिरेवाधिका अश्रीकृष्णनाम्नि तु
मोक्षसुखतिरस्कारिप्रेमानन्ददातृत्वशक्ति: समधिकेति भाव:।
इत्थमेवोक्त विश्ुधर्मोत्तरे यच्छक्ति राम यत् तस्य तस्मिन्नेव
च वस्तुनि साथकं पुरुषव्याप्र सौम्यक्रेषु वस्तुष्विति।
‘किश्ठ श्रीकृष्णनाम्तो माहात्म्यं निगदेनैव श्रूयते प्रभासपुराणे
श्रीनारदकुशध्वजसंबादे श्रीभगवदुक्तो–‘ नाम्तां मुख्यतमं
नाम कृष्णाख्यं मे पल्तपेति। तदेवं गतिसामान्येन नाममहिमद्वारा
तन्महिमातिशय: साधित:।‘ ( श्रीकृष्णसन्दर्भ:)
मुक्तिदाता होनेके कारण राम-नामको “तारक’ एवं प्रेमदाता होने के कारण “कृष्ण’ नाम को “पारक’ कहते हैं। तारक से मुक्ति एवं पारक से प्रेमभक्ति की प्राप्ति होती है। “राम’ नाम में मोचकता शक्ति अधिक है और “कृष्ण! नाम में मोक्ष-सुख-तिरस्कारी प्रेमानन्द-दातृत्वशक्ति अधिक है। श्रीविष्णुधर्मोत्तर में ऐसा ही कहा गया है– हे पुरुषव्याप्र ! कोई शान्त हो या दुर्जन हो, श्रीनारायण के नामकी शक्ति अपनी शक्ति के अनुरूप फल प्रदान करती ही है। जिस नाम में प्रेमदान की प्रचुर शक्ति है, वह नाम आश्रित व्यक्ति के अपराध को दूर कर प्रेमदान करता है और जिस नाम में मोचकता शक्ति की प्रचुरता है, वह नाम मुक्तिप्रदान करता है। परन्तु मोक्ष प्रेम के समान साध्य फल नहीं है। नीरोगता या रोगरूप दुःखका अभावमात्र ही सुख नहीं है। रोगमुक्ति के पश्चात् स्वास्थ्यवान के समान आहार-विहारादि रूप क्रिया ही सुखसाधक है और फिर मुक्ति तो श्रीकृष्ण के नामाभास से अनायास ही हो जाती है। इसीलिये श्रीकृष्ण नाम-महिमा की अधिकता का वर्णन स्पष्ट रूप से सुना जाता है। प्रभासपुराण में श्रीनारद कुशध्वज-संवाद में श्रीभगवान् कहते हैं-‘हे परन्तप!
सब नामों में मेरा “कृष्ण” नाम ही सर्वश्रेष्ठ है, अतएव श्रीकृष्ण-नाम के माहात्म्याधिक्य से ही समान गतिकी भाँति यानी नाम के श्रेष्ठत्व प्रतिपत्तिक समान स्वरूप के श्रेष्ठत्व की भी प्रतिपत्ति होती है-इसी समान गतिद्वारा श्रीकृष्ण की सर्वश्रेष्ठ महिमा सिद्ध होती है। श्रीकृष्ण का स्वरूप, रूप, गुण, लीला, परिकरवैशिष्टय प्रभृति में प्रवेश ‘करने का अधिकार प्राप्त करना हो तो श्रीकृष्णचैतन्य देव द्वारा प्रदर्शित भजन-पथ से श्रीकृष्ण नाम संकीर्तन और सदगुरु के चरणों का आश्रय ग्रहण करना ही जीवमात्र का कर्तव्य है।
चेतोदर्पणमार्जन भवमहादावाग्निनिर्वापनम्
श्रेयः कैरबचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्॥
आननन्दाम्बुधिवर्द्धन प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादन
सर्वात्मस्तपन पर विजयते श्रीकृष्णसंकीर्तनम्॥
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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