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श्रीयन्त्र का शब्दार्थ
पण्डित राजेश दीक्षित-
Mystic Power– ‘श्रीयन्त्र’ का सरल शब्दार्थ है-
श्री का यन्त्र अर्थात् श्री का घर । चूंकि गृह में ही सब वस्तुओं का नियन्त्रण होता है, अतः श्रीविद्या को ढूंढने के लिए उसके गृह ‘श्रीयन्त्र’ की ही शरण लेनी होती है। यह विश्व ही श्री विद्या का गृह है। यहाँ विश्व’ शब्द में ‘ब्रह्माण्ड’ तथा ‘पिण्डाण्ड’ -दोनों का ग्रहण है। ‘मायाण्ड’ तथा ‘प्रक्रत्पण्ड’ भी स्थूल-मूक्ष्म रूप से इन्ही के अन्तर्गत आ जाते हैं। ‘श्री’ शब्द का अर्थ है- ‘श्रयते या सा श्रीः’- अर्थात् जो श्रयण की जाय,वही श्री है। श्रयणार्यक धातु सकर्म है, अतः वह कर्म की अपेक्षा रखता है। आगम के अनुसार श्री का श्रमण-कर्म हरि (ब्रह्म) के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हो सकता। अतः जो नित्य परब्रह्म का आश्रयण करती है, वही श्री है।
जिस प्रकार प्रकाश या उष्णता अग्नि से अभिन्न है, ओर उसके बिना नहीं ठहर सकती। उसी प्रकार ब्रह्म से उसकी शक्ति श्री भी अभिन्न है और उससे कभी अलग नहीं हो सकती ।
यह श्रीयन्त्र स्वरूप त्रिपुर सुन्दरी का गृह जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति तया प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण रूप से ‘त्रिपुरात्मक’ तथा सूर्य, चन्द्र, अग्नि भेद से त्रिखण्डात्मक कहलाता है।
इस प्रकार जैसे ‘श्रीचक्र’ विश्वमय है, उसी प्रकार शब्द-सृष्टि में मातृ- कामय है। इससे सिद्ध हुआ कि श्रीयन्त्र ब्रह्माण्ड एवं पिण्डाण्ड स्वरूप है। इसको रचना दो-दो त्रिकोणों के परस्पर श्लेष से होती है। इस प्रकार इसमें ६ त्रिकोण होते हैं। ऐसी रचना से पिण्डाण्ड के भीतर ब्रह्माण्ड एवं ब्रह्माण्ड के भीतर पिण्डाण्ड का समावेश सूचित होता है।
इसमें बिन्दु-चक्र शेष आठ चक्र त्रितयात्मक है। ‘श्रीयन्त्र’ को सृष्टि, स्थिति, प्रलयात्मक माना गया है। शिव की मूल प्रकृति से बना होने के कारण प्रकृति स्वरूप है। प्रकृति-विकृति उभयात्मक हैं। सम्पूर्ण श्रीचक्र इस प्रकार भी विन्दु, त्रिकोण, अष्टार ‘सृटि चक्र’ हैं’ दशारद्वय तथा चतुर्दशार ‘स्थित चक्र’ हैं एवं अष्टदल’ षोडशदल, तथा भूपुर (चतुरस्त्र) ‘संहार चक्र’ है। अर्थात बिन्दु से आरंभ कर भूपुरान्त चक्र को ‘सृष्टि-क्रम’ एवं भूपुर से प्रारंभ कर विन्दु-अन्त नक चक्र को ‘संहार-क्रम’ कहते हैं। इसके प्रत्येक खण्ड में आदि-मध्य-अन्त अथवा इच्छा-ज्ञान-किया रूप से त्रिपुरी समझनो चाहिए। सामान्यतः यही श्रीचक्र’ का संक्षिप्त परिचय है।
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