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वैदिक संस्कृति के प्रमाण–‘पुराण’
डॉ.दिलीप कुमार नाथाणी विद्यावाचस्पति-
पुराणों के सन्दर्भ में पाश्चात्यों का प्रथमत: साहस ही नहीं था कि कुछ अनर्गल कह सकें। पुराण ही ऐसे ग्रन्थ हैं जो कि भारतीय सनातन वैदिक हिन्दू संस्कृति की अनादिकालीन होने के प्रकट प्रमाण हैं। भागवत् महापुराण आदि जैसे कई पुराणों में जो सृष्टि के प्रारम्भ से राजाओं की वंशावलियाँ प्राप्त होती हैं उससे पुराणों के ऐतिहासिक ग्रन्थ होने का जो अकाट्य प्रमाण प्राप्त होता है वह ऐसे तथाकथित पाश्चात्यों के लिये असहनीय था। यही नहीं उन पाश्चात्यों के उच्छिष्ट भोजी वेद पाखण्डी भारतीयों ने भी अपने नवीन सम्प्रदायों, परिषदों की स्थापना के लिये सनातन वैदिक संस्कृति के प्रमाण ग्रन्थों पुराणों के सन्दर्भ में अनर्गल प्रलाप कर भारतीय सनातन संस्कृति की अपूरणीय क्षति की है तथा वर्तमान में भी अन्ध अहंकार व मिथ्या कपोल कल्पनाओं व प्रक्षिप्तादि अप्रमाणिक शब्दों के आधार पर पुराणों व पुराण को मानने वालों को गाली गलौच करने का कुत्सित व घृणित कुकर्म में लिप्त हैं। ऐसे ही अतार्किक, अप्रमाणिक वेद विरोधी सनातन संस्कृति द्रोही, वेद पाखण्डियों के लिये पूर्व में महाभारत का ऐतिहासिक विमर्श से आलेखों की धारावाहिक शृंखला चलाई थी तथैव पुराणों के ऐतिहासिक विमर्श पर परिचर्चा आज से प्रारम्भ करने का प्रयास कर रहा हूँ।
यद्यपि धर्म का मूलस्रोत वेद ही है तथापि सनातन धर्म की परम्परा, उत्सव, आदि का स्वरूप पुराणों पर ही आधारित हैं अत: प्राचीन वाङ्मय में पुराणों का अपना एक विशिष्ट स्थान है। वेदों के पठन—पाठन के साथ ही पौराणिक वाङ्मय का भी अध्ययन प्राचीन शिक्षा व्यवस्था में विहित था। विशेषकर लोक—शिक्षा के माध्यम के रूप में पुराणों की उपयोगिता सदैव ही बनी रही। पुराण वाङ्मय को पंचमवेद माना जाता था—इतिहासपुराणं पंचमं वेदानां वेदम् (छान्दोग्योपनिषद् 7.1.2) पुराणें पंचमो वेद इति ब्रह्मानुशासनम् (स्कन्द पुराण रेवाखण्ड) नारद जी ने तो पुराणों की लोकशिक्षा के स्वरूप को देखकर स्पष्ट कह दिया
वेदार्थाधिकं मन्ये पुराणार्थं वरानने।
वेदा: प्रतिष्ठिता सर्वे पुराणे नात्र संशय:।। (नारदीय पुराण 2.24.17)
पुराण हमारे भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान की सरलतम व रुचिकर अभिव्यंजना हैं वेद के ज्ञान का विकास एवं पल्वन पुराणें में ही हुआ है। वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, छ: वेदांग, छ: दर्शन, स्मृतियों आदि में वर्णित सभी तत्त्व पुराणों में प्राप्त होते हैं। पुराण भारतीय शिक्षा पद्धति के सरलतम ग्रन्थ हैं। इसीलिये याज्ञवलक्य ने इन्हें न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, चार वेद, छ: वेदांग ओर पुराण इस तरह चौदह प्रकार की विद्याओंमें स्थान दिया है। अत: भारतीय अध्यात्म और चिन्तन के निरूपक उपादानों में पुराएणें का असंदिग्ध महत्त्व है। विश्व की सर्वश्रेष्ठ आर्यजाति की मनीषा एवं प्रज्ञा का महत्त्वपूर्ण निक्षेप पुराणों में प्राप्त होता हेै। स्मृति, सूत्र, महाभाष्य, न्यायभाष्य, आदि प्राचीन ग्रन्थों में पुराणों का उल्लेख प्राप्त होता है। वेद, आरण्यक, ब्राह्मण, स्मृति आदि सभी में पुराण शब्द को ग्रन्थ के रूप में प्रकट किया है।
- पुराण शब्द का निर्वचन, लक्षण, विषय, प्रयोजन, वर्गीकरण,
पुराण शब्द का निर्वचन
संस्कृत साहित्य में प्रत्येक शब्द का निर्वचन किया गया है। इस प्रकार के निर्वन के लिये व्याकरण एवं निरुक्त की अनुपालना की गई है। पुराण यह नाम ही इसकी प्राचीनता को सिद्ध करता है। पण्डित गिरधर चतुर्वेदी जी के अनुसार दोवेद हैं यज्ञ—वेद व पुराण—वेद इसमें पुराणवेद हमें यह बताता है कि सृष्टि कैसे बनी? इसमें जड़—चेतनात्मक जितने प्राणी अथवा तत्त्व हैं, उनकी उत्पत्ति का क्रम क्या है? उनके विषय में ज्ञातव्य बातें कितनी हैं, अन्त में यह सृष्टि कहाँ लीन होती है ओर इस उत्पाि तथा लय के अन्तराल में कितना समय लगता है? इन्हीं पांच बातों को सृष्टि, प्रतिसृष्टि, वंश, वंशानुचरित ओर मन्वन्तर नाम से पुराणों में कहा गया है। यही पाँ लक्षण पुराणें के माने गये हैं इससे सिद्ध होता है कि प्रकृति जिस ढंग से कार्य कर रही हैे, उसका सम्पूर्ण ज्ञान हमें पुराण वेद के द्वारा प्राप्त होता है। न्यायकोश में पुराणम्—पुरातनम् कहा है यहां ‘पुरातन’ शब्द से ‘पुराभवम्’ ‘पुरानमव’ अर्थ ध्वनित होता है।
भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधिस्वरूप संस्कृत वाङ्मय का वह गरिमायुक्त व्यापक भाग ‘पुराण’ शब्द सेअभिहित है, जो प्राचीन काल में होने वाला, प्राचीन होकर भी नूतन रहने वाले वृत्तान्त, उपाख्यान और इतिहास से परिपूरित है। श्रेय और प्रये को मर्यादित करते हुये जो आत्मतत्तव का प्रबल प्रक्षधर है पाणिनि सूत्र, निरुक्त तथा स्वयं पुराणें में उपलब्ध पुराण शब्द की व्युत्पत्ति से भी उक्त अभिप्राय परिपुष्ट होता है। यथा— पूर्वकालैक—सर्व—जरत्—पुराण—नव—केवला: सामानाधिकारण्येन (पा.सू. 2.1.49) अथवा
यस्मातृ पुरा ह्यनतीदं पुराणं तेन तत् स्मृतम्।
निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापै: प्रमुच्यते।। (पद्मपुराण् 5.2.43)
क्रमश:
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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