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वेद में ब्रह्मस्वरूप पुरुष
शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ)
Mystic Power- वेद का एक मन्त्र इस प्रकार है…
योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम् ।
ओ३म् खं ब्रह्म ।
( यजुर्वेद ४० । १७)
यः असौ आदित्ये पुरुषः सः असौ अहम् । ओम् खम् ब्रह्म ।
इस मंत्र का गुरुत्व केन्द्र ‘अहम्’ पद में प्रतिष्ठित है। ‘अहम्’ के अतिरिक्त जितने भी पद हैं, वे सब ब्रह्मवाचक हैं।
असौ (वह) = सः (वह)। यः (जो) पुरुषः (चिद् तत्व)।
आदित्ये (सूर्य में) हृदये ह्रदय में अहम् (मैं) मथि (मुझ में), ओम् प्रणव (त्रिगुणात्मक अ इ उ ) ), ब्रह्म = [ ब्रह्मन् नपुं. प्र. एक व], खम् = [शून्य (गुणरहित)] ।
जब तक कोई सत्पुरुष अपना परिचय स्वयं न बताये, तब तक उसके विषय में कुछ भी कहना यथार्थ नहीं है। इसी प्रकार जब तक मंत्र अपना अर्थ रहस्य स्वयं नहीं बताता, तब तक उसका अर्थ लगाना / समझना अति कठिन वा मिथ्या है। यह मंत्र मुझे अपना अर्थ बता रहा है। वही मैं व्यक्त कर रहा हूँ।
इस मंत्र में कुल ९ पद हैं, (ओ३म् पद नहीं है)। पूर्वार्ध में ७ तथा उत्तरार्ध में २ हैं । ९ पदी होने से यह परिपूर्ण है।
अहम् पद अस्मद् पुं. प्रथमा एक व. है। इसका अर्थ है-मयि, जो कि अस्मद् का पु. सप्तमी एक व. है।
अहम् = मयि। कैसे ? अस्मद् नाम सूर्य का सूर्य किरणों में सात रंग हैं वा सूर्य सात किरणों वाला है। अस्मद् सात विभक्तियों वा रूपों वाला है।
सूर्य त्रिककुप् है। अर्थात् इसकी किरणों का विस्तार तीनों दिशाओं में है। अस्मद् भी त्रिककु-तीन वचनों वाला है। अतः अस्मद् = आदित्य आदित्ये मयि अहम् = लग्न, मयि = सप्तम। दोनों-१,७ पुरुष राशियाँ चर हैं। इसलिये अहम् – मयि दोनों में अभेद है।
भाव १ पुरुष है तो भाव ७ प्रकृति, अथवा
भाव १ प्रकृति है तो भाव ७ पुरुष जो पुरुष है वही विष्णु प्रकृति है। यह आर्य मत है। देखिये श्री वेदव्यास का वाक्य…
‘नमो मूलप्रकृतये अजिताय महात्मने ।’
(वामन पुराणे, गजेन्द्र मोक्ष )
अतः अहम् = मयी।
अतः अहम् = मयि ।
वह पुरुष जो आदित्य में है, वह मुझमें (मेरे हृदय में) है। ऐसा तात्पर्य है।
जो पुरुष आदित्य के भीतर है, वही पुरुष हृदय के अन्दर है। वा, जो पुरुष हृदय में विराजमान है, वही उस आदित्य के मध्य में है।
क्योंकि आदित्य = हृदय, वा हृदय आदित्य आदित्य / सूर्यमण्डल लाल रंग का होता। हृदय भी लाल रंग का होता है। हृदय के भीतर अंधकार है। आदित्य के केन्द्र में भी अन्धकार है। इस अन्धकार को कृष्ण कहते हैं। इसमें कुछ दिखायी नहीं पड़ता। यह रहस्यमय है। अतः अज्ञेय है। इस अन्धकार से प्रकाश की उत्पत्ति होती है। अन्धकार निर्गुण तत्व/ ब्रह्म है। प्रकाश सगुण तत्व/मूल प्रकृति/प्रधान तत्व/ सगुण ब्रह्म है। यहाँ देखा जाता है तथा इसके द्वारा अन्य सब कुछ देखा / जाना जाता है। यह ज्ञेय है। अन्धकार कृष्ण है तो प्रकाश रुक्म प्रकाश की रश्मियाँ ही रुक्मिणी (स्वर्णवत्) हैं। इस प्रकार,
अन्धकार – प्रकाश = कृष्ण-रुक्मिणी = राम-सीता = भैरव-भवानी। यह अन्धकार नारायण ह तो प्रकाश लक्ष्मी है। प्रकाश/लक्ष्मी सब को प्रिय है। नारायण/ अन्धकार के प्रेमी कितने हैं? जितने भी हैं, मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ ।
अब मैं सूर्यमण्डल में स्थित भगवान् नारायण का ध्यान करता हूँ
‘ध्येय सदा सविमण्डलमध्यवर्ती
नारायणः सरसिजासनसंनिविष्टः ।
केयूरवान् मकरकुण्डलवान् किरोटी
हारी हिरण्यमयवपुर्धृतशंखचक्रः ॥
(भविष्यपुराण आ. हृदय । )
यही नारायण अंगुष्ठ मात्र है, हृदयस्थ है।
“अंगुण्ठ मात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा
सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः ।
(कठोपनिषद् २। ३ । १७)
“अंगुष्ठमात्रो रवितुल्यरूपः संकल्पाहंकारसमन्वितो यः ।’
( श्वेताश्वतरोपनिषद् ५८)
जो पुरुष सूर्यमण्डल के मध्य में नारायण रूप से विद्यमान है, वही पुरुष मुझ में/ मेरे हृदय में अंगुष्ठमात्र/ लभ्वाकार हो कर वर्तमान है।
‘ओऽम् खं ब्रह्म’ का अर्थ है- त्रिगुणात्मक प्रकृति/ प्रणव रूप ब्रह्म शून्य वा निर्गुण ब्रह्म से प्रकटायमान है। शून्य का तात्पर्य प्रपच के अभाव से है। वास्तव में परमतत्व शून्य और निर्वाचन के अयोग्य है। निर्गुण से सगुण का प्राकट्य अन्धकार से प्रकाश के प्राकट्य के सदृश है। जैसे दीपक की लौ के मूल में अन्धकार होता है, वैसे ही सूर्य के केन्द्र (मूल) में अन्धकार है। जैसे तैलाक्त वर्तिनी से ज्योतिर्मय लौ फूटती है, वैसे अन्धकार से उसके चतुर्दिक् जाज्ज्वत्यमान प्रकाश उत्पन्न होता है शब्दों में इसका वर्णन करना शक्य नहीं है, पर यह सत्य है और प्रकटतः सिद्ध है। यह प्रकाश श्वेतवर्ण होने से सीता है। [सित= श्वेत। सिता = सित टाप् । सिता= सीता । ] यह प्रकाश हेम/ रुक्मवर्ण होने से रुक्मिणी है। रुक्मिणी का = अर्थ-हिरण्यमयी / हेमाभ/ स्वर्ण सदृश / पीतवर्ण। यह प्रकाश (ज्योति) उज्ज्वल गौर वर्ण होने से गौरी है। यह ज्योति लोल एवं लालिमामय होने से लक्ष्मी है। इस ज्योति को मेरा सतत प्रणाम ।
अन्धकार का रंग / लक्षण, नील/ कृष्ण है, प्रकाश का श्वित/ रुक्म है। अन्धकार का प्रकट रूप प्रकाश है, प्रकाश का अप्रकट रूप अन्धकार प्रकाश का बीज अन्धकार है। तत्वतः दोनों एक हैं, व्यवहारतः दो हैं। पुरुष को भूषियों ने रुद्र, यम, शिव, कृष्ण, राम प्रभूति नाम दिया है। इन्हें नील वा काले रंग वाला कहा गया है। प्रकृति को अषियों ने गौरा गौरी, रुक्मा/ रुक्मिणी, लोहिता/ लक्ष्मी, श्विता / सीता प्रभृति नाम दिया है। इन्हें हरिण्यवर्ण उज्ज्वला श्वेता कहा गया है। जैसे काले रंग के काष्ठ / कोयले में अग्नि ज्वाला प्रसुप्तावस्था में पड़ी रहती है, वैसे ही पुरुष के अन्दर प्रकृति विद्यमान रहती हैं।
जो पुरुष सूर्य में है, वही पुरुष हृदय में भी विराजमान है। जो वहाँ है, वह यहाँ है। अर्थात् पुरुष यहाँ-वहाँ वा सर्वत्र है, सर्वव्यापी है, विश्व है, विष्णु है। वह कहाँ नहीं है ? मैं, ऐसे पुरुष को राम कहते हुए स्मरण करता हूँ। कोई कृष्ण कहता है, कोई शिव कहता है, कोई शक्ति कहता है। एक के अनेक नाम हैं। जल एक है। उससे अनेक लहरें उठती हैं। इन लहरों को अनेकता के कारण जल अनेक नहीं होता। ऐसे ही अनेक नामों वाला विष्णु एक है। मैं इसकी शरण में हूँ।
वेद मंत्रों का अर्थ करना समुद्र को पार करने के समान है। कोई भी समुद्र को अपने बाहुबल से पार नहीं कर सकता। नाम रूपी पोत पर बैठ कर ईशकृपा के सहारे पार करना सरल है।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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