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वेद में मूर्ति तत्त्व
अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)
१. मूर्त-अमूर्त का समन्वय- परात्पर निर्विशेष ब्रह्म निराकार है। उसे देखना, जानना सम्भव नहीं है। उसके द्वारा सृष्ट जगत् साकार है। उसका वर्णन जिन शब्दों में किया जाता है वे भी साकार तथा विशेष या भिन्न भिन्न रूपों वाले हैं। ४ स्तर की ध्वनि में भी परा-वाक् निर्विशेष है, उसका विशेष रूपों में वर्गीकरण विशिष्ट है। मूर्त रूप वाक् के ३ पद वेदों में हैं-पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी।
अपरिमिततरमिव हि मनः परिमिततरमेव हि वाक्। (शतपथ ब्राह्मण, १/४/४/७)
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥ (ऋग्वेद, १/१६४/४५)
परायामङ्कुरीभूय पश्यन्त्यां द्विदलीकृता॥१८॥
मध्यमायां मुकुलिता वैखर्या विकसीकृता॥ (योगकुण्डली उपनिषद्, ३/१८, १९)
अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते। मूलाधारगता शक्तिः स्वाधारा बिन्दुरूपिणी॥२॥
तस्यामुत्पद्यते नादः सूक्ष्मबीजादिवाङ्कुरः। तां पश्यन्तीं विदुर्विश्वं यया पश्यन्ति योगिनः॥३॥
हृदये व्यज्यते घोषो गर्जत्पर्जन्यसंनिभः। तत्र स्थिता सुरेशान मध्यमेत्यभिधीयते॥४॥
प्राणेन च स्वराख्येन प्रथिता वैखरी पुनः।
शाखापल्लवरूपेण ताल्वादिस्थानघट्टनात्॥५॥ (योगशिखोपनिषद्, ३/२-५)
२, मूर्त के वर्ग- परात्पर का कोई वर्णन नहीं हो सकता है, उसका अनुभव शून्य वेद कहा गया है। शब्द रूप में जो वर्णन है वह साकार विश्व का है। मूल वेद का परा-विद्या (विद्या) तथा अपरा विद्या (अविद्या) में विभाजन हुआ। अविद्या के दोनों अर्थ हैं-अपरा विद्या अर्थात् विज्ञान, या विद्या का अभाव। अपरा विद्या से ही मूल अथर्व वेद का ३ अन्य खण्डों में विभाजन हुआ।
ब्रह्मा देवानां प्रथमं सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।
स ब्रह्म विद्यां सर्व विद्या प्रतिष्ठा मथर्वाय ज्येष्ठ पुत्राय प्राह॥१॥
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्मा ऽथर्वा तां पुरो वाचाङ्गिरे ब्रह्म-विद्याम्।
स भरद्वाजाय सत्यवहाय प्राह भरद्वाजो ऽङ्गिरसे परावराम्॥२॥
द्वे विद्ये वेदितव्ये- … परा चैव, अपरा च। तत्र अपरा ऋग्वेदो, यजुर्वेदः, सामवेदो ऽथर्ववेदः, शिक्षा, कल्पो, व्याकरणं, निरुक्तं, छन्दो, ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।
(मुण्डक उपनिषद्, १/१/१-५)
३. पलास प्रतीक- एक मूल अथर्ववेद से ३ शाखा ऋक्, यजुः साम निकली, मूल भी बचा रहा। अतः त्रयी का अर्थ ४ वेद होता है, एक मूल तथा ३ शाखा। इसका प्रतीक पलास दण्ड है जिससे ३ पत्र निकलते हैं। अतः पलास ब्रह्मा का प्रतीक है तथा वेदारम्भ संस्कार में प्रयोग होता है।
यस्मिन् वृक्षे सुपलाशे देवैः संपिबते यमः।
अत्रा नो विश्पतिः पिता पुराणां अनु वेनति॥ (ऋक्, १०/१३५/१)
सर्वेषां वा एष वनस्पतीनां योनिर्यत् पलासः। (स्वायम्भुव ब्रह्मरूपत्त्वात्) तेजो वै ब्रह्मवर्चसं वनस्पतीनां पलाशः-ऐतरेय ब्राह्मण २/१)
ब्रह्म वै पलाशस्य पलाशम् (= पर्णम्)। (शतपथ ब्राह्मण, २/६/२/८)
ब्रह्म वै पलाशः। (शतपथ ब्राह्मण, १/३/३/१९)
यह अग्निरूप ब्रह्म के ४ विभाग हैं-
पाहि नो अग्न एकया पाह्युत द्वितीयया।
पाहिगीर्भिस्तिसृभिरूर्जां पते पाहि चतसृभिर्वसो। (ऋक्, ८/६०/९)
४. मूर्ति, गति, साम- शब्द रूप में वेदों के विभाजन का आधार है-मूर्ति या रूपों का वर्णन ऋक् है, गति का वर्णन यजु है, तेज (प्रभाव क्षेत्र, महिमा) साम है, तथा सबका आधार या स्रोत अविभक्त ब्रह्म है।
ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्।
सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण,३/१२/८/१)
गति दो प्रकार की है-शुक्ल तथा कृष्ण। अतः यजुर्वेद के भी २ भेद हैं-शुक्ल, कृष्ण। शुक्ल गति बाह्य है, जो दीखती है, कृष्ण गति आन्तरिक है जो नहीं दीखती।
आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥
(ऋक्. १/३५/२, वाज. यजु, ३३/४३, ३४/३१, तैत्तिरीय सं. ३/४/११/२, मैत्रायणी सं ४/१२/६)
यहां केन्द्र में कृष्ण (अदृश्य, आकर्षक, काला) द्वारा रजः (लोक, विश्व) स्थित है। इसमें अमृत (विष्णु पुराण, २/७/१९ का अकृतक, अधिक स्थायी) तथा मर्त्य (कृतक- भू, भुवः, स्वः लोक) दोनों स्थित हैं। इनको प्रकाशित रथ (सौरमण्डल, जिसमें ब्रह्माण्ड से अधिक प्रकाश है) पर सूर्य चलते हुए दोनों प्रकार के भुवनों को देखता है। यह दृश्य गति शुक्ल है। अदृश्य कारण या गति कृ्ष्ण है। गीता के अध्याय ८ में आत्मा की शुक्ल-कृष्ण गति का वर्णन है-जब पृथ्वी के भीतर ही रह जाये वह कृष्ण है जब बाहर अन्य लोकों तक जाये, वह शुक्ल है।
विश्व के दोनों रूप हैं, कारण रूप अमूर्त है, निर्मित रूप मूर्त है। देवी अथर्वशीर्ष-
शून्यं च अशून्यं च॥२॥ दृश्य रूप-वसु, रुद्र, आदित्य, ब्रह्मा, विष्णु, राष्ट्र आदि हैं।
५. पुरुष सूक्त- पुरुष सूक्त में भी पुरुष के ४ पदों में मूल स्रोत के सभी ४ पद थे-वह दीर्घ स्वर का पूरुष है। उसका एक ही पद संसार के निर्माण में लगा-वह एक पाद पुरुष मूर्त तथा मर्त्य है। बाकी ३ पाद यथावत् रह गये, वे अमृत तथा अमूर्त हैं।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि। (पुरुष सूक्त, ३)
पुरुष के दृश्य रूपों का अधिष्ठान अदृश्य तथा बड़ा है, उसे भी पूरुष कहा है। पुरुष का बाकी सभी वर्णन मूर्त है, जिसकी माप तथा गिनती है-सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः (पुरुष सूक्त, १५) आदि।
६. गीता- गीता में हर सजीव निर्जीव पुरुष के ४ रूप कहे गये हैं। बाह्य दृश्य रूप क्षर है, जिसका सदा क्षर होता है। उसका क्रिया या नाम रूप परिचय अदृश्य या कूटस्थ है। विराट् के अंश रूप में अव्यय है, जो वर्णन योग्य पुरुषों में उत्तम है। भेद रहित परात्पर है जिसका वर्णन नहीं हो सकता (भागवत पुराण, ३/११/२-३)।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१६॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥१७॥ (गीता, अध्याय १५)
७. वेद में साकार पूजा- अतः स्पष्ट है कि वेद में जो कुछ भी वर्णन है वह दृश्य साकार ब्रह्म का ही वर्णन है। अदृश्य का वर्णन नहीं हो सकता। जिन शब्दों में यह वर्णन है वे भी मूर्त हैं, अक्षरों का स्वरूप तथा जिस कागज पर लिखे गये वे भी मूर्त हैं। यह समझाने की आवश्यकता नहीं है, पर जड़ बुद्धि के लोगों के लिए कुछ अन्य उदाहरण भी दिये जाते हैं।
पूजा का अर्थ ही है कि हम मूर्त जगत् का २ भाग कर रहे हैं-आत्मा-परमात्मा, व्यक्ति-ईश्वर। भाग से भक्ति हुआ है, अंग्रेजी में डिविजन (division) से डिवोशन(Devotion)।
(१) यजुर्वेद में महावीर मूर्ति के लिये मिट्टी ग्रहण-
देवी द्यावा पृथिवी मखस्य त्वामद्य शिरो राध्यासं देवयजने।
पृथिव्या मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे॥ (वाजसनेयि सं. ३७/३)
(२) ऋग्वेद में काष्ठप्रतिमा-कनीनकेव विद्रधे नवे द्रुपदे अर्भके।
बभ्रू यामेषु शोभते। (४/३२/२३) -यास्क निरुक्त (४/१५ में व्याख्या)
(३) इन्द्र प्रतिमा-क इमं दशभिर्ममेन्द्रं क्रीणाति धेनुभिः।
यत्रा वृत्राणि जंघनदथैनं मे पुनर्ददुः॥ (४/२४/१०)
-महर्षि वामदेव इन्द्र मूर्ति की उपासना करते थे। वामदेव बाहर जाने लगे तो लोगों से पूछा कि कौन १० धेनु (स्वर्ण मुद्रा) में इन्द्र प्रतिमा लेगा तथा मेरे लौटने पर मुझे लौटा देगा?
(४) अथर्व वेद-पाषाण प्रतिमा-एह्यश्मानमातिष्ठाश्मा भवतु ते तनुः।
कृण्वन्तु विश्वे देवा आयुष्टे शरदः शतम्॥ (अथर्व २/१३/१४)
८. रामायण में मन्दिर, मूर्ति- वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, सर्ग ७७-
देवायतनान्याशु सर्वास्ताः प्रत्यपूजयन्। अभिवाद्याभिवाद्यांश्च सर्वा राजसुतास्तदा॥१३॥
-देवायतन = देव मन्दिर
सर्ग ५-दुन्दुभीभिर्मृदङ्गैश्च वीणाभिः पणवैस्तथा। नादितां भृशमत्यर्थं पृथिव्यां तामनुत्तमाम्॥१८॥
-मन्दिरों में मृदङ्ग तथा अन्य वाद्य।
विमानमिव सिद्धानां तपसाधिगतं दिवि। सुनिवेशित वेश्मान्तां नरोत्तमसमावृतम्॥१९॥
-सिद्ध तथा देवों के वेश्म या मन्दिर।
रावण द्वारा जाम्बूनद स्वर्णात्मक शिव लिङ्ग की उपासना-वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग ३१-
यत्र यज्ञ यातिस्म रावणो राक्षसेश्वरः। जाम्बुनदमयं लिङ्गं तत्र तत्र स्म नीयते॥४२॥
९. ऋक् संहिता में प्रतिमा पूजन–
(१) कासीत् प्रमा, प्रतिमा, किं निदानमाज्यं, किमासीत्, परिधिः क आसीत्।
छन्दः किमासीत् प्रौगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वम्॥ (ऋक्, १०/१३०/३)
देवों ने विश्व (पुरुष सूक्त का विराट्, सीमाबद्ध पिण्डों का समूह, अधिपूरुष उसका अधिष्ठान है) की पूजा या यज्ञ कैसे किया? (यज देवपूजासंगतिकरण दानेषु, धातुपाठ १/७२८)। उस समय विश्व पुरुष की प्रमा (माप) क्या थी, प्रतिमा (उसी जैसा छोटा या बड़ा प्रतिरूप) क्या थी? किस निदान के लिए हवि दी गयी (निदान = निर्दिष्ट वस्तु, उसका संकेत)? प्रउग क्या था? (प्रउग का अर्थ शस्त्र किया गया है। सृष्टि निर्माण की विधि है। निर्माण ३ गुणों से हुआ है अतः इसका अर्थ त्रिकोण भी है)। उक्थ क्या था? (उक्थ = निर्माण से बचा भाग, भोजन के बाद जूठन)।
(२) अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान।
वृष्णो वध्रिः प्रतिमानं बुभूषन् पुरुत्रा वृत्रो अशयद् व्यस्तः॥ (ऋक्, १/३२/७)
यहां प्रतिमान् का अर्थ समकक्ष है। वृत्र ने अपने को इन्द्र के समान मान कर युद्ध किया मानों बिना हाथ पैर का व्यक्ति हाथ पैर वाले योद्धा से युद्ध करे।
(३) त्वमस्य पारे रजसे व्योमनः स्वभृत्योजा अवसे धृषन्मनः।
चकृषे भूमिं प्रतिमानमोजसोऽपः स्वः परिभूरेष्या दिवम्॥ (ऋक्, १/५२/१२)
यहां भी प्रतिमान का अर्थ है बराबर।
(४) ऊपर के दो मन्त्रों में इन्द्र का अर्थ शून्य में व्याप्त तेज है, जिससे रिक्त कोई स्थान नहीं है। नेन्द्रात् ऋते पवते धाम किं च न (ऋक्, ९/६९६)। यही निराकार तेज विभिन्न वस्तुओं में प्रवेश कर रूप बनाता है।
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय।
इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दश॥ (ऋक्, ६/४७/१८)
गोस्वामी तुलसीदास ने इसका कई स्थानों पर अनुवाद किया है-
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि उरान बुध बेदा॥
अगुन अरूप अलख अज सोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
जो गुन रहित सगुन सोई कैसे। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसे॥
(रामचरितमानस, बालकाण्ड, ११५/१-३)
(५) गोजिता बाहू अमितक्रतुः सिमः कर्मन् कर्मञ्छतमूतिः खजङ्कर।
अकल्प इन्द्रः प्रतिमानमोजसाथा जना वि ह्वयन्ते सिषामवः॥ (ऋक्, १/१०२/६)
(६) त्रिविष्टि धातु प्रतिमानमोजसस्तिस्रो भूमीर्नृपते त्रीणि रोचना।
अतीदं विश्वं भुवनं ववक्षिथा शत्रुरिन्द्र जनुषा सनादसि॥ (ऋक्, १/१०२/८)
(७) यस्मान्न ऋते विजयन्ते जनासो यं युध्यमाना अवसे हवन्ते।
यो विश्वस्य प्रतिमानं बभूव यो अच्युतच्युत् स जनास इन्द्रः॥ (ऋक्, २/१२/९)
(८) सतः सतः प्रतिमानं पुरोभूर्विश्वा वेद जनिमा हन्ति शुष्णम्।
प्र णो दिवः पदवीर्गव्युरर्चन्त्सखा सखीरमुञ्चन्निरवद्यात्॥ (ऋक्, ३/३१/८)
(९) किं स ऋधकृण्णवद्यं सहस्रं मासो जभार शरदश्च पूर्वीः।
नही न्वस्य प्रतिमानमस्त्यन्तर्जातेषूत ये जनित्वाः॥ (ऋक्, ४/१८/४)
(१०) प्र तुविद्युम्नस्य स्थविरस्य घृष्वेदिवो ररप्शे महिमा पृथिव्याः।
नास्य शत्रुर्न प्रतिमानमस्ति न प्रतिष्ठिः पुरुमास्य सह्योः॥ (ऋक्, ६/१८/१२)
(११) इन्द्रो दिवः प्रतिमानः पृथिव्या विश्वा वेद सवना हन्ति शुष्णम्।
महीं चिद्द्यामातनोत् सूर्येण चास्कम्भं चित्कम्भनेन स्कभीयान्॥ (ऋक्, १०/११५/५)
(१२) वि सूर्यो मध्ये अमुचद्रथं दिवो विदद्दासाय प्रतिमानमार्यः।
दृळ्हानि पिप्रोरसुरस्य मायिन इन्द्रो व्यास्यच्चकृवाँ ऋजिश्वना॥ (ऋक्, १०/१३८/३)
(१३) स्तुषेय्यं पुरुवर्पसमृभ्वमिनतममाप्त्यानाम्।
आ दर्षते शवसा सप्त दानृन् प्र साक्षते प्रतिनामानि भूरि॥ (ऋक्, १०/१२०/६)
१०. माध्यन्दिन वाजसनेयि शाखा-
(१) आदित्यं गर्भं पयसा समङ्घि सहस्रस्य प्रतिमाँ विश्वरूपम्।
परिवृङ्घि हरसा माभिमं स्थां शतायुषं कृणुहि चीयमानम्॥ (१३/४१)
(२) सहस्रस्य प्रमासि। सहस्रस्य प्रतिमासि। सहस्रस्योन्मासि ।
साहस्रो ऽसि। सहस्राय त्वा॥ (१५/६५)
११. अथर्व शौनक संहिता-
(१) वैश्वानरस्य प्रतिमोपरि द्यौर्यावद्रोदसी विबबाधे अग्निः।
ततः षष्ठादामुतो यन्ति स्तोमा उदितो यन्त्यभि षष्ठमह्नः॥ (अथर्व, ८/९/६)
(२) अपां यो अग्रे प्रतिमा बभूव प्रभूः सर्वस्मै पृथिवीव देवी।
पिता वत्सानां पतिरघ्न्यानां साहस्रे पोषे अपि नः कृणोतु॥ (अथर्व, ९/४/२)
(३) यस्मान्न ऋते विजयन्ते जनासो यं युध्यमाना अवसे हवन्ते।
यो विश्वस्य प्रतिमानं बभूव यो अच्युतच्युत् स जनास इन्द्रः॥ (अथर्व, २०/३४/९)
ये केवल प्रतिमा, प्रतिमान के उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त संख्यात्मक माप, स्तोम (आयतन) आदि केवल मूर्ति की ही होती है। अर्चन, भजन, सेवा-ये सभी शब्द पूजन के विषय में ही हैं। इनके उदाहरण कई हैं-ऋक् संहिता (१/३८/१, ६/२१/६, ९/९७/४), वाज. यजु (४/२५, २०/५४, ३३/२३, ३४/१६), सामवेद, पूर्वार्चिक (३/२/५, ८/१६/३) आदि।
१२. मूर्ति विरोध का भ्रम-एक मन्त्र के छोटे भाग की गलत व्याख्या कर मूर्ति पूजा का विरोध किया जाता है-
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः।
हिरण्यगर्भ इत्येष मामाहिंसीदित्येषा यस्मान्न जात इत्येष॥ (वाज. यजु, ३२/३)
इसकी द्वितीय पंक्ति में ३ मन्त्रों का उल्लेख है। उन मन्त्रों में जिस परमात्मा का वर्णन है, उसकी बराबरी नहीं है तथा उसका नाम महद्यश है।
यही अर्थ उपनिषद् में है-
न तस्य कार्यं करणं न विद्यते, न तत् समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविकी ज्ञान बलक्रिया च॥
(श्वेताश्वतर उपनिषद्, ६/८)
उसके कार्य कारण का पता नहीं चलता, उसके समान कोई नहीं है, अधिक कहां से होगा। वह हमारी कल्पना से परे है, उसकी शक्ति कई रूपों में सुनी जाती है-ज्ञान, बल. क्रिया (मूर्ति रूप में जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा)।
ब्रह्म विषय के जिन ३ मन्त्रों का निर्देश है वे हैं-
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
(यजु, १३/४, ऋक्, १०/१२१/१, अथर्व ४/२/७)
= सबसे पहले हिरण्यगर्भ (तेजपुञ्ज) हुआ, उसके बाद भूत (५ प्रकार के महाभूतों से बने) हुए जिनका वह एक ही पति (रक्षक) था। उसने पृथ्वी-आकाश का धारण किया, उस ‘क’(कर्ता, करतार) ब्रह्म की हम हवि दे कर उपासना करते हैं। (निर्माण के लिये कुछ लगाना पड़ता है, उसका प्रतीक हवि हुआ)। पञ्च महाभूत रूपी विश्व का प्रतीक कलश हुआ जिसमें हिरण्यगर्भ प्रतीक ताम्बा का पैसा डालते हैं।
मा मा हिंसीज्जनिता यः पृथिव्या यो वा दिवं सत्यधर्मा व्यानट् ।
यश्चापश्चन्द्राः प्रथमो जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ (वाज.सं, १२/१०२, काण्व संहिता, २९/३६)
= जिस प्रजापति ने पृथ्वी और आकाश उत्पन्न किया, सत्य का धारण किया, आह्लादक जल (उससे चन्द्र) उत्पन किया, वह मेरी हानि नहीं करे। उसके लिए हवि देते हैं।
यस्मान्न जातः परो अन्यो अस्ति य आविवेश भुवनानि विश्वा।
प्रजापतिः प्रजया सं रराणस्त्रीणि ज्योतींषि सचते स षोडशी॥
(वाज. सं, ८/३६,३२/३, तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/७/९/५)
= जिससे दूसरा कोई उत्कृष्ट उत्पन्न नहीं हुआ, जिसने सम्पूर्ण भुवनों में अन्तर्यामी रूप से प्रवेश किया है, वह १६ कला का पुरुष प्रजा रूप से रमण करता हुआ प्रजापालन केलिए ३ ज्योतियों को उज्जीवित करता है।
यहां अव्यक्त से ३ स्तर में निर्माण है-(१) सृष्टि कर्ता ब्रह्मा रूप-अव्यक्त से हिरण्यगर्भ, पृथ्वी आकाश आदि ७ लोक, तथा पिण्ड।
(२) क्रिया रूप विष्णु-वह पालन के लिए अप्, चन्द्र तथा सत्य धारण करता है (सत्ता को बनाये रखता है)। उसे हवि देने से वह भी हमारी वृद्धि करेगा।
(३) अन्तर्यामी तथा ज्योति रूप में ज्ञान-शिव रूप।
ये ३ रूप गायत्री मन्त्र के ३ पाद हैं।
१३. अन्य उदाहरण-वेद के प्रायः हर मन्त्र में ब्रह्म का मूर्त रूप का वर्णन है। केवल ईशावास्योपनिषद् (यजुर्वेद, ४०वां अध्याय) का उदाहरण दिया जाता है-
(१) शान्तिपाठ-पूर्णमदः अन्तिम स्रोत है, इदं दृश्य जगत् (निकट का) है।
(२) मन्त्र १-ईशावास्यमिदं सर्वं-इदं सर्वं दृश्य जगत् है।
(३) मन्त्र ३,४-ब्रह्म तथा अन्य देवों की गति-मूर्ति की ही गति होती है।
(४) मन्त्र ८-स्रष्टा या कवि, मनीषी व्यक्त रूप है। वह अव्यक्त को ज्यों का त्यों व्यक्त रूप में बदलता है। यह क्रम शाश्वत है।
(५) मन्त्र १६-पूषा, यम, सूर्य, रश्मिव्यूह, कल्याणतम रूप-ये सभी मूर्त रूप हैं।
१४. ब्राह्मण ग्रन्थ-मूर्त्ति निर्माणाय तां वल्मीक वपां परिगृह्णाति (काण्व शतपथ, ११/२/१०/११)
तस्मान्निर्माणाय तां वल्मीक वपां गृह्णाति (माध्य. शतपथ, १४/११/२/१०)
देवायतनानि (मन्दिराणि) कम्पन्ते, दैवत प्रतिमा हसन्ति, रुदन्ति, नृत्यन्ति — (षड्विंश ब्राह्मण, ५/१०)
१५. मूर्ति माध्यम से ब्रह्म पूजा- मूर्ति की पूजा नहीं होती। यह अशिक्षित लोग भी समझते हैं। उसकी भगवान् के प्रतीक रूप में पूजा होती है। मनुष्य विश्व की प्रतिमा है, जिसे बाइबिल में भी स्वीकार किया गया है (जेनेसिस, १/२७)। अतः भगवान् की मूर्ति मनुष्य रूप में बनाते हैं। विश्व के किसी रूप को न देख सकते हैं, न समझ सकते हैं। उसकी कल्पना करने के लिए छोटी मूर्ति बनाते हैं, जैसे पृथ्वी का आकार समझने के लिए ग्लोब। गणना के लिए पूरे ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) को भी विन्दु मानते हैं। दिनमान या वर्ष की गणना के लिए पृथ्वी सतह का छोटा वृत्त बनाते हैं। इसके बिना कोई ज्ञान नहीं हो सकता। या भूभाग की माप के लिए छोटे छोटे नक्शे बनाते हैं। उसमें अक्षांश देशान्तर रेखा भी खींचते हैं, जिनका भौतिक अस्तित्व नहीं है।
केवल विश्व या ब्रह्म की प्रतिमा रूप में पूजा होती है, व्यक्ति की नहीं । भारत के किसी भी महान् राजा ने अपनी मूर्ति कहीं नही बनायी न अपना मजार बनवाया। विक्रमादित्य, हर्षवर्धन, पृथ्वीराज चौहान, राणा प्रताप या शिवाजी की कहीं मूर्ति रूप में पूजा नहीं होती। व्यक्ति पूजा अंग्रेजों ने सिखायी जिससे हम उनके दलालों के प्रति भक्ति करें। नेहरू परिवार या गान्धी की मूर्तियां हर जगह फैली हुयी हैं, उनकी समाधि भी दिल्ली का बहुत बड़ाभाग घेर कर बनी हैं। उनकी नकल पर मायावती ने कांसीराम तथा अपनी भी मूर्ति लगवा ली।
जो मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, वही सबसे अधिक मूर्ति बनाते हैं। ईसाइयों ने मूर्तिपूजा के विरोध के नाम पर अरबों लोगों की हत्या कर दी। दोनों अमेरिका तथा आस्ट्रेलिया की पूरी आबादी की हत्या कर दी। पर हर गांव के चर्च में मरियम तथा ईसा की मूर्ति रहती है। ईसा की लंगोटी, शराब का प्याला की भी पूजा होती है। इससे सन्तोष नहीं हुआ तो गले में क्रॉस भी लटकाते है। भारत में अपने दलालों की मूर्तियां अगवायीं, लन्दन के तुसाद संग्रहालय में मोम की मूर्तियां भरी पड़ी हैं। हर मुस्लिम अपने घर में काबा, मक्का मस्जिद का फोटो रखता है। आर्य समाज भी स्थान स्थान पर दयानन्द की मूर्ति लगवाते हैं। केवल भगवान् की मूर्ति से परहेज है। कोई भी सनातनी हिन्दू शंकराचार्य या रामानुजाचार्य की लंगोटी की पूजा नहीं करता, उनका शराब का प्याला था ही नहीं जिसकी पूजा हो।
"मिस्टिक पावर में प्रकाशित सभी लेख विषय विशेषज्ञों द्वारा लिखे जाते हैं। लेख में उल्लेखित तथ्यों व सूचनाओं का सम्पादन मिस्टिक पावर के अनुभवी एवं विशेषज्ञ सम्पादक मण्डल द्वारा किया जाता है। मिस्टिक पावर में प्रकाशित लेख पाठक को जानकारी देने तथा जागरूकता बढ़ाने के लिए तैयार किया जाता है। मिस्टिक पावर लेख में प्रदत्त जानकारी व सूचना को लेकर किसी तरह का दावा नहीं करता है और न ही जिम्मेदारी लेता है।"
:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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