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भगवान वेदव्यास और वैदिक शाखाओं का प्रणयन
डॉ. दिलीप कुमार नाथाणी (विद्यावाचस्पति)-
भगवान् वेदव्यास के द्वारा वेद की विभिन्न शाखाओं का प्रणयन किस प्रकार हुआ है? ब्राह्मणादि के और आश्रमवासीजनों के धर्म क्या हैं? इन सब बातों केा हे वासिष्ठनन्दन! मैं आपसे सुनना चाहता हूँ।
(1) सर्गः-उपर्युक्त प्रसंग में भूतों के परिमाण, देवादि की उत्पत्ति, समुद्र, पर्वत तथा भूमि के संस्थान, सूर्य का परिमाण सम्बन्धी प्रश्नों के समाधान में जो चर्चा उपलब्ध हेागी वह सर्ग के अन्तर्गत आने वाली विषयवस्तु होती है।
(2)प्रतिसर्गः– इसमें इनकी उत्पत्ति सर्ग कहलाती है तथा उनका लय प्रतिसर्ग कहलाता है।
(3) वंषः-देवता, ऋषि और मनुष्यादि के वंष ‘वंश’ के अन्तर्गत आते है।
(4) मन्वन्तरः– पुनः कल्प, उनके भेद, युगों के धर्म आदि ‘मन्वन्तर’ प्रकरण के वर्णनीय विषय हैं ।
(5) वंशानुचरितः– देवता, ऋषि और मनुष्यादि के चरित तथा वेद-शाखाओं का विभागीकरण ‘वंशानुचरित’ के क्षेत्र में आते हैं।
पुराणों के विषय-वस्तु को कुछ विद्वानों ने दशधा विभाजन किया है। भागवत् महापुराण में इस प्रकार पुराणों की विषय-वस्तु को दशधा विभक्त करके समझाया गया है।-
अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषमूतयः।
मन्वन्तरोशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः।। (भागवत महापुराण, 2.10.1)
इसमें (1) सर्ग, (2) विसर्ग, (3) स्थान, (4) पोषण, (5) ऊति, (6) मन्वन्तर, (7) ईशानुकथा, (8) निरोध, (9) मुक्ति, और (10) आश्रय। इस प्रकार दशधा विशय विभाजन किया है। यहाँ भागवत् में पुनः इन दसों विषयों को समझााते हुये कहा है।
(1) सर्गः- ईश्वर की प्रेरणा से गुणों में क्षेाभ होकर रूपान्तरण होने से जो आकाशादि पंचभूत, शब्दादि, तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, अहंकार और महत्तत्व की उत्पत्ति होती है। उसे ही सर्ग कहा है-भूतमात्रेन्द्रियधियां जन्म सर्ग उदाहृत (भागवत महापुराण, 2.10.1)
(2) विसर्गः- उस विराट् पुरुष से उत्पन्न ब्रह्माजी के द्वारा जो विभिन्न चराचर सृष्टियों का निर्माण होता है उसका नाम है, विसर्ग -ब्रह्मणो गुणवैषम्याद् विसर्गः पौरुष स्मृतः। (भागवत महापुराण, 2.10.3)
(3) स्थानः- प्रतिपद नाश की ओर बढ़नेवाली सृष्टि को एक मर्यादा में स्थिर रखने से भगवान् विष्णु की जो श्रेष्ठता सिद्ध होती है, उसका नाम ‘स्थान’ है-स्थितिर्वैकुण्ठविजयः। (भागवत महापुराण, 2.10.3)
(4) पोषणः-अपने द्वारा सुरक्षित सृष्टि में भक्तों के ऊपर उनकी जो कृपा होती है, उसका नाम ही पोषण है- पोषणं तदनुग्रहः। (भागवत महापुराण, 2.10.3)
(5) मन्वन्तरः- मन्वन्तरों के अधिपति जो भगवद्भक्ति् और प्रजापालनरूप शुद्ध धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसे मन्वन्तर कहते हैं-मन्वन्तराणि सद्धर्म। । (भागवत महापुराण, 2.10.3)
(6) ऊतिः-जीवों की वे वासनाएँ जो कर्म के द्वारा उन्हें बन्धन में डाल देती हैं, ‘ऊति’ कहते हैं। ऊतयः कर्मवासनाः। (भागवत महापुराण, 2.10.3)
(7) ईशकथाः- भगवान् के विभिन्न अवतारों के और उनके प्रेमी भक्तों की विविध आख्यानों से युक्त गाथाएँ ईशकथा है-
अवतारानुचरितं हरेश्चास्यानुवर्तिनाम्।
सतामीशकथाः प्रोक्ता नानाख्यानोपबृंहिताः।। (भागवत महापुराण, 2.10.5)
(8) निरोधः- जब भगवान् योगनिद्रा स्वीकार करके षयन करते हैं, तब इस जीव का अपनी उपाधियों के सााि उनमें लीन हो जाना निरोध है-निरोधोऽस्यानुशयनमात्मनः सह शक्तिभिः। (भागवत महापुराण, 2.10.6)
(9) मुक्तिः- अज्ञानकल्पित कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि अनात्मभाव का परित्याग करके अपने वास्तविक स्वरूप परमात्मा में स्थित होना ही मुक्ति है- मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः। ( भागवत महापुराण, 2.10.7)
(10) आश्रयः- परीक्षित्! इस चराचर जगत् की उत्पत्ति और प्रलय जिस तत्त्व से प्रकशित हेाते हैं, वह परम ब्रह्म ही ‘आश्रय’ है। शास्त्रों में उसी को परमात्मा कहा गया है-
आभासाश्च निरोधश्च यतश्चाध्वसीयते।
स आश्रयः परं ब्रह्म परमात्मेति शब्द्यते।। (भागवत महापुराण, 2.10.7)
भागवत महापुराण के द्वादश स्कन्ध के सप्तम अध्याय के अष्टम श्लोक में पुनः इन 10 लक्षणों को विवेचित किया है। उसी प्रकार ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में यह कहा है कि सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश , मन्वन्तर , वंशानुचरित ये पाँच उपपुराणों के विषय हैं। और महापुराणों के विषय है, सृष्टि, विसृष्टि, स्थिति, पालन, कर्मों की वासना, मनुओं की वार्त, प्रलयेां का वर्णन, मोक्ष का निरूपण, हरि का कीर्तन, वेदों का विभाजन ये 10 है। वक्ता अपनी शैली की विलक्षणता से एक ही विषय को कहने के लिये विभिन्न शब्दों का आश्रय लेता है, परन्तु उससे विषय में कोई भेद उत्पन्न नहीं हेाता। ब्रह्मवैवत्तपुराण के जो दस लक्षण हैं उनमें 1. सृष्टि, 2. विसृष्टि, 3. स्थिति, 4 कर्मवासना, 5 मनुवार्ता, 6 प्रलय का वर्णन, 7 मोक्ष का निरूपण ये सात विषय तो स्पष्ट रूप से पूर्वोक्त विषय के समान ही हैं। ब्रह्मवैवर्त्त में हरि का कीर्तन भी पुराण का विषय कहा गया हैं। वह भागवत् के द्वितीय स्कन्ध में ईशानुकथा शब्द से गृहीत हुआ तथा द्वादश स्कन्ध में इसे आश्रय शब्दार्थ के अन्तर्गत ही मान सकते हैं। पोषण भी उसी के अन्तर्गत आ जाता है। वेदेां के पृथक् भाव से वेदों का व्यासकृत शाखा-विभाग ही प्रतीत हेाता है। ईशानुकथा के ही अन्तर्गत आ जायगा। क्रम या अक्रम से वार्त्ता और पृथक्-पृथक् से वंशानुचरित का संकेत है। अतः ,यह स्पष्ट हो जाता है कि ये ब्रह्मवैवर्त्त के लक्षण भी कुछ शब्दभेद से भागवतों के दशलक्षण ही हैं। इनमें आपस में विषय की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है।
पुनः इस प्रकार के दषधा विभाजन पर दृष्टिपात् करें तो ये भी पूर्वेाक्त पंचधा विभेदित लक्षणों का विस्तार मात्र ही प्रतीत होते हैं। क्योंकि इन दसों में ऐसी कोई नवीन तथ्य नहीं है, जो पूर्वोक्त पाँच लक्षणों से बोधित न होता हो। भागवत के दशम स्कन्ध में सर्ग, प्रतिसर्ग (प्रलय संस्था) वंश, वंशानुचरित और मन्वन्तर, इन पाँच लक्षणों का निरूपण इन्हीं शब्देां से किया गया है। दूसरे स्थलों पर इन पाँचों का जिस प्रकार से संकलन किया गया है, उसे अभी देखा है। अवशिष्ट जो पाँच हैं, उनमें विसर्ग तो सृष्टि का ही अवान्तर भेद है। आश्रय शब्द से ईश्वर का ही ग्रहण होता है और वह ईष्वर सृष्टि का निर्माता माना गया है। अतः सृष्टि के वर्णन में उसका भी वर्णन अन्तर्भूत हेा जाता है। हेतु या ऊति शब्द से कही गई कर्मवासना सृष्टि की कारण-सामग्री के अन्तर्गत है अतः यह भी सृष्टि के वर्णन में ही अन्तर्भूत होती हैं ‘वृत्ति’ या ‘स्थान’ शब्द से अभिहित परस्पर उपमद्र्य-उपमर्दक भाव स्पष्टतया वंशानुचरित में अन्तर्भूत हो जाता है। ईशानुकथा, पेाषण या रक्षा भी वंशानुचरित में ही अन्तर्भूत समझनी चाहिये। क्येांकि, ईशानुकथा में ईश्वर के अवतारों का निरूपण हेाता है तथा ये अवतार किसी-न-किसी वंश में ही आविर्भूत होते हैं। इसीलिये वंशानुचरित में अवतारों की कथा का भी अन्तर्भाव अभिप्रेत है। इसलिये यह स्पष्ट हो जाता है कि ये पुराणों के 10 लक्षण पूर्वोक्त पाँच लक्षणों में ही अन्तर्भूत हैं।
यह स्पष्ट है कि पुराणों के सृष्टि आदि पाँच विषय ही मुख्य हैं; क्योंकि अन्य धर्मशास्त्रादि विषय के ग्रन्थों में उनका स्पष्ट विवरण नहीं, संकेत मात्र है। पुराणों में दस लक्षणों की गणना में जो कर्म, वासना, ईश्वर आदि विशयों का परिगणन किया गया है, वे पुराणों के प्रधान विषय नहीं माने जा सकते; क्योंकि उनका प्रधान रूप से निरूपण वेद, दर्षन, उपासना, तथा धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में प्राप्त हेाता है। पुराणो में लक्षणोद्दिष्ट विषय के अलावा पुराणों की विषयवस्तु का चतुर्धा विभाजन भी प्राप्त होता है- (1) आख्यान, (2) उपाख्यान, (3) गाथा और (4) कल्पशुद्धि-
आख्यानैश्चाप्युपाख्यानैर्गाथाभिः कल्पशुद्धिभिः।
पुराणसंहिंतां चक्रे पुराणार्थविशारदः।
प्रख्यातो व्यासशिष्योऽभूत् सूतो वै लोमहर्षणः
पुराणसंहितां तस्मै ददौ व्यासो महामुनिः।। (विष्णुपुराण 3.6.1)
इसका व्याख्यान विष्णुपुराण की टीका में श्रीधराचार्य ने किया है- स्वयंदृष्टार्थकथनं प्राहुराख्यानकं बुधाः। श्रुतास्यार्थस्य कथनमुपाख्यानं प्रचक्षते।। गाथास्तु पितृपृथ्वीप्रभृतिगीतयः। कल्पशुद्धिः श्राद्धकलपादिनिर्णयः।। शब्दकल्पद्रुम, (भाग,3 पृ.-180)
क्रमश:
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