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जानिए व्रत-परिचय
डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबन्ध संपादक)
व्रतों से अनेक अंशों में प्राणि मात्र का और विशेष कर मनुष्यों का बड़ा भारी उपकार होता है। तत्त्वदर्शी महर्षियों ने इनमें विज्ञान के सैकड़ों अंश संयुक्त कर दिये हैं। ग्रामीण या देहाती मनुष्य तक इस बात को जानते हैं कि अरुचि, अजीर्ण, उदरशूल, मलावरोध, सिरदर्द और ज्वर-जैसे स्वतः सम्भूत साधारण रोगों से लेकर कोढ़, उपदंश, जलोदर, अग्निमान्द्य, क्षतक्षय और राजयक्ष्मा जैसी असाध्य या प्राणान्तक महाव्याधियाँ भी व्रतों के प्रयोग से निर्मूल हो जाती हैं और अपूर्व तथा स्थायी आरोग्यता प्राप्त होती है।
यद्यपि रोग भी पाप हैं और ऐसे पाप व्रतों से दूर होते ही हैं, तथापि कायिक, वाचिक, मानसिक और संसर्गजनित पाप, उपपाप और महापापादि भी व्रतोंसे दूर होते हैं। उनके समूल नाश का प्रत्यक्ष प्रमाण यही है कि व्रतारम्भ के पहले पापयुक्त प्राणियों का मुख हतप्रभ रहता है और व्रत की समाप्ति होते ही वह सूर्योदय के कमल की तरह खिल जाता है।
भारत में व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार है। सभी श्रेणी के नर-नारी सूर्य-सोम-भौमादि के एक भुक्त साध्य व्रत से लेकर एकाधिक कई दिनों तक के अन्नपानादिवर्जित कष्ट साध्य व्रतों तक को बड़ी श्रद्धा से करते हैं। इनके फल और महत्त्व भी प्राय: सर्वज्ञात हैं। फिर भी यह सूचित कर देना अत्युक्ति न होगा कि ‘मनुष्यों के कल्याण के लिये व्रत स्वर्ग के सोपान अथवा संसार सागर से तार देने वाली प्रत्यक्ष नौका है।’ व्रतों के प्रभाव से मनुष्यों की आत्मा शुद्ध होती है। संकल्पशक्ति बढ़ती है। बुद्धि, विचार, चतुराई या ज्ञानतन्तु विकसित होते हैं। शरीर के अन्तस्तल में परमात्मा के प्रति भक्ति, श्रद्धा और तल्लीनता का संचार होता है। व्यापार-व्यवसाय, कला- -कौशल, शास्त्रानुसंधान और व्यवहार- कुशलता का सफल सम्पादन उत्साहपूर्वक किया जाता है और सुखमय दीर्घ जीवन के आरोग्य-साधनों का स्वतः संचय हो जाता है। ऐसा दूसरा-सा साधन है जिसके करने से एक से ही अनेक लाभ हों। यही सब सोचकर संक्षेप में व्रतों का यह परिचय लिखा जाता है, इससे व्रतसम्बन्धी प्रायः सभी बातों पर परिचय प्राप्त होगा, व्रतों की विधि, उनके परिणाम आदि का पता लगेगा, जिससे व्रतों में श्रद्धा होगी और व्रतों से लाभ उठाने की प्रवृत्ति बढ़ेगी।
कौन-
(१) मनुष्यों के हित के लिये तपोधन महर्षियों ने अनेक साधन नियत किये हैं, उनमें एक साधन व्रत भी है।
(२) ‘निरुक्त’ में व्रत को कर्म सूचित किया है और ‘श्रीदत्त ‘ने अभीष्ट कर्म में प्रवृत्त होने के संकल्प को व्रत बतलाया है। इनके सिवा अन्य आचार्यों ने पुण्यप्राप्ति के लिये किसी पुण्य तिथि में उपवास करने या किसी उपवास के कर्मानुष्ठान द्वारा पुण्य संचय करने के संकल्प को व्रत सूचित किया है।
(३) मनुष्य-जीवन को सफल करने के कामों में व्रतकी बड़ी महिमा मानी गयी है। ‘देवल’ का कथन है कि व्रत और उपवास के नियम- पालन से शरीर को तपाना ही तप है। व्रत अनेक हैं और अनेक व्रतों के प्रकार भी अनेक हैं। यहाँ उनका कुछ उल्लेख किया जाता है।
(४) लोक प्रसिद्धि में व्रत और उपवास दो हैं और ये कायिक, वाचिक, मानसिक, नित्य, नैमित्तिक, काम्य, एकभुक्त, अयाचित, मितभुक्, चान्द्रायण और प्राजापत्य के रूप में किये जाते हैं। इनके निम्नलिखित प्रकार हैं।
(५) वास्तव में व्रत और उपवास दोनों एक हैं, अन्तर यह है कि व्रत में भोजन किया जा सकता है और उपवास में निराहार रहना पड़ता है। इनके कायिकादि तीन भेद हैं-
(१) शस्त्राघात, मर्माघात और कार्यहानि आदिजनित हिंसा के त्याग से ‘कायिक’, (२) सत्य बोलने और प्राणिमात्र में निर्वैर रहने से ‘वाचिक’ और (३) मनको शान्त रखने की दृढ़ता से ‘मानसिक’ व्रत होता है।
(६) पुण्य संचय के एकादशी आदि ‘नित्य’ व्रत, पापक्षय के चान्द्रायणादि ‘नैमित्तिक’ व्रत और सुख-सौभाग्यादि के वटसावित्री आदि ‘काम्य’ व्रत माने गये हैं। इनमें द्रव्यविशेष के भोजन और पूजनादि की साधना के द्वारा साध्य व्रत ‘प्रवृत्तिरूप’ होते हैं और केवल उपवासादि करने के द्वारा साध्य व्रत ‘निवृत्तिरूप’ हैं। इनका यथोचित उपयोग फल देता है।
(७) एकभुक्त व्रत के– स्वतन्त्र, अन्यांग और प्रतिनिधि तीन भेद हैं।
(१) दिनार्ध व्यतीत होनेपर ‘स्वतन्त्र’ एकभुक्त होता है, (२) मध्याह्नमें ‘अन्यांग’ किया जाता है और (३) ‘प्रतिनिधि’ आगे-पीछे भी हो सकता है।
(८) ‘नक्तव्रत’ रातमें किया जाता है। उसमें यह विशेषता है कि गृहस्थ रात्रि होने पर उस व्रत को करें और संन्यासी तथा विधवा सूर्य रहते हुए।
(९) ‘अयाचित व्रत’ में बिना माँगे जो कुछ मिले उसी को निषेध काल बचाकर दिन या रात में जब अवसर हो तभी (केवल एक बार ) भोजन करे और ‘मितभुक्’ में प्रतिदिन दस ग्रास (या एक नियत प्रमाणका) भोजन करे। अयाचित और मितभुक् दोनों व्रत परम सिद्धि देने वाले हैं।
(१०) चन्द्र की प्रसन्नता, चन्द्रलोक की प्राप्ति अथवा पापादि की निवृत्ति के लिये ‘चान्द्रायण’ व्रत किया जाता है। यह चन्द्रकला के समान बढ़ता और घटता है। जैसे शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को एक, द्वितीया को दो और तृतीया को तीन, इस क्रम से बढ़ाकर पूर्णिमा को पन्द्रह ग्रास भोजन करे। फिर कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को चौदह, द्वितीया को तेरह और तृतीया को बारह के उत्क्रम से घटाकर चतुर्दशी को एक और अमावास्या को निराहार रहने से एक चान्द्रायण होता है। यह ‘यवमध्य’ चान्द्रायण है* । इसका दूसरा प्रकार यह है-
(११) शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को चौदह, द्वितीया को तेरह और तृतीया को बारह के उत्क्रम से घटाकर पूर्णिमा को एक और कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को एक, द्वितीया को दो और तृतीया को तीन के क्रम से बढ़ाकर चतुर्दशी को चौदह ग्रास भोजन करे और अमावास्या को निराहार रहे। यह दूसरा चान्द्रायण है। इसको ‘पिपिलिकातनु’ चान्द्रायण कहते हैं ।
(१२) प्राजापत्य बारह दिनों में होता है। उसमें व्रतारम्भ के पहले तीन दिनों में प्रतिदिन बाईस ग्रास भोजन करे। फिर तीन दिन तक प्रतिदिन छब्बीस ग्रास भोजन करे। उसके बाद तीन दिन आपाचित (पूर्ण पकाया हुआ) अन्न चौबीस ग्रास भोजन करे और फिर तीन दिन सर्वथा निराहार रहे। इस प्रकार बारह दिन में एक ‘प्राजापत्य’ होता है। ग्रास का प्रमाण जितना मुँह में आ सके, उतना है।
(१३) उपर्युक्त व्रत मास, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण, समय और देवपूजा से सहयोग रखते हैं। यथा – वैशाख, भाद्रपद, कार्तिक और माघके ‘मास’ व्रत। शुक्ल और कृष्णके ‘पक्ष’ व्रत । चतुर्थी, एकादशी और अमावास्या आदि के ‘तिथि’ व्रत । सूर्य, सोम और भौमादिके ‘वार’ व्रत। श्रवण, अनुराधा और रोहिणी आदिके ‘नक्षत्र’ व्रत । व्यतीपातादि के ‘योग’ व्रत। भद्रा आदिके ‘करण’ व्रत और गणेश, विष्णु आदिके ‘देव’ व्रत स्वतन्त्र व्रत हैं।
(१४) बुधाष्टमी – सोम, भौम, शनि, त्रयोदशी और भानुसप्तमी आदि ‘तिथि- वार’ के, चैत्र शुक्ल नवमी भौम, पुष्य मेषार्क और मध्याह्न की ‘रामनवमी’ तथा भाद्रपद कृष्णपक्ष अष्टमी बुधवार रोहिणी सिंहार्क और अर्धरात्रि की ‘कृष्णजन्माष्टमी’ आदि के सामूहिक व्रत हैं। कुछ व्रत ऐसे हैं, जिनमें उपर्युक्त तिथि- वारादिके विभिन्न सहयोग यदा-कदा प्राप्त होते हैं। इन सबके उपयोगी वाक्यों का यत्किंचित् दिग्दर्शन अथवा अनुसंधान आगे किया गया है, विशेष विधान हर महीने में व्रतोंके साथ बतलाया जायगा।
(१५) यह अवश्य स्मरण रहना चाहिये कि व्रत परिचय’ व्रतराज, व्रतार्क, मासस्तबक, जयसिंह- कल्पद्रुम और मुक्तकसंग्रह आदि प्राचीन और प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार से लिखा गया है और इसके प्रमाण वाक्य भी उक्त ग्रन्थों से ही उद्धृत किये गये हैं— जो उनमें भी अति प्राचीन काल के श्रुति, स्मृति, पुराण और धर्मशास्त्रों से लिये हुए हैं और उनमें से अधिकांश ग्रन्थ इस समय कुछ तो अस्त-व्यस्त या रूपान्तरित हो गये हैं और कुछ सर्वथा नष्टप्राय या दुष्प्राप्य हैं। व्रतों का बहुत ज्यादा वर्णन पुराणोंमें है, परंतु हस्तलिखित और मुद्रित पुराणों में कइयों में इतना अन्तर हो गया कि बहुत से व्रत जो ब्रह्म, विष्णु या वराहादि पुराणों में बतलाये जाते हैं, वे उनमें मिलते ही नहीं। अतएव ‘व्रत- परिचय’ में प्रत्येक वाक्य के साथ जो नाम दिये गये हैं, वे सब उपर्युक्त ग्रन्थों के ही हैं और विशेषज्ञ उनके मूल ग्रन्थों को देखने की अपेक्षा उपर्युक्त संग्रह-ग्रन्थों में ही देख सकते हैं। पृष्ठ-संख्या इस कारण नहीं दी है कि बहुत-से वाक्य एक ही ग्रन्थ में अनेक जगह आये हैं।
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