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यज्ञोपवीत के तीन सूत्र
श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )-
Mystic Power- ‘वेञ्’ तन्तु सन्ताने धातु का अर्थ है बुनना। इसीलिए कपड़ा बुनने वाले को तन्तुवाय (धागों से कपड़ा बुनने वाला) कहा जाता है। इसी आधार पर यह कल्पना की गई है कि आरम्भ में यज्ञोपवीत कोई कंधे पर धारण किया जाने वाला वस्त्र- विशेष रहा होगा। किन्तु ‘वीत’ से ही पंजाबी और हिन्दी का भी ‘बटना’ भी तो बनता है। रस्सी और धागा बटा जाता है बुना नहीं जाता। इसी आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि आरम्भ से ही उपवीत त्रिसूत्रात्मक रहा होगा। कुछ भी हो यह तो निश्चित है कि उपवीत से हमारा परिचय त्रिसूत्रात्मक रूप में ही हुआ है उससे पूर्व भले ही उसका कुछ भी रूप क्यों न रहा हो । यज्ञोपवीत के सूत्र तीन ही क्यों होते हैं, इसके लिए यू तो वृद्धसारस्वत-ऋषि-प्रोक्त भगवती पराम्बा त्रिपुर सुन्दरी की स्तुति-
“देवानां त्रितयं वयी हुतभुजां शक्तित्रयं त्रिस्वराः त्रैलोक्यं त्रिपदी त्रिपुष्करमथो विब्रह्म वर्णास्त्रयः ।
यत्किंचिज्जगति त्रिद्या नियमितं वस्तु विवर्गादिकम् तत्सर्वं त्रिपुरेति नाम भगवत्यन्येति ते तत्त्वतः ॥”
विश्व का सम्पूर्ण त्रिरूप तत्त्व उपवीत के त्रिसूत्र में समाविष्ट है। इसके अतिरिक्त भी आध्यात्मिक आदि अन्य अनेक व्याख्याएं भी यहाँ अभिप्रेत हैं। यज्ञो- पवीत में ध्यान देने योग्य पहली बात यह है कि अलग-अलग तीन सूत्र नहीं होते । एक ही सूत्र त्रिगुणित होता है। इसमें सृष्टिविज्ञान निहित है। ब्रह्म क्यभावापन्न पूज्यपाद आचार्यचरण अमृतवाग्भव जी महाराज ने अपने आत्मविलास में सृष्टि- विकास की प्रक्रिया समझाते हुए लिखा है कि मूल तत्त्व एक ही है आरम्भ में उससे दो तत्व (प्रकृति और पुरुष) विकसित होते हैं, ये तीनों सृष्टि चक्र के आद्य तत्त्व हैं अर्थात् एक तीन बन जाता है। उपवीत में भी एक ही सूत्र त्रिगुणित है। यहां उस एक की प्रतीक ब्रह्मग्रन्थि भी सबसे ऊपर बनी रहती है। उपवीत के एक-एक में पुनः तीन-तीन तन्तु हैं। अभिप्राय यह है कि मूल त्रितत्त्व भी पुनः तीन-तीन की संख्या में विकसित होता है और इस प्रकार ‘नव द्रव्यात्मक’ जगत् का निर्माण होता है। इसी के प्रतीक हैं यज्ञोपवीत नौ तन्तु। नौ की त्रिगुणित संख्या २७ है । साख्य- योगोक्त २५ तत्त्वों के ऊपर सदाशिव और शिव तत्त्व हैं। इस प्रकार मूल तत्त्व हुए सत्ताइस ।
सृष्टि चक्र के संचालन में इच्छा, ज्ञान और क्रिया की समन्विति होनी चाहिए। इनके पृथक् रहने से विश्व की एकांगी उन्नति भले हो हो जाय, सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता ।
यज्ञोपवीत की ब्रह्म ग्रन्थि के द्वारा इन तीनों सूत्रों के एकीकरण का यह भी एक रहस्य है। मूलाधार चक्र (जिसका संयोग गुदा से है) से मस्तिष्क प्रदेश की त्रिकुटि में स्थित आज्ञा चक्र तक सीधे स्थित मेरुदण्ड के सहारे हमारा शरीर टिका हुआ है और इस मेरुदण्ड में है इड़ा, पिंगला और सुषुम्णा नामक तीन नाड़ियां । सुषुम्णा में ही षट्चक्र हैं, जिनमें से ग्रीवा में स्थित पांचवे विशुद्धि चक्र से होकर आकाशगुणात्मक शब्द का प्रादुर्भाव होता है और शिव आज्ञा चक्र से ऊपर सहस्रार दल में प्रतिष्ठित है । ब्रह्मरन्ध्र भी यही है। ऊपर ग्रीवा से नीचे कटि या गुदा तक आने वाले उपवीत के त्रिसूत्र इडा पिंगला और सुषुम्णा के बाह्य प्रतीक हैं। इन सबसे ऊपर विद्यमान ब्रह्मग्रन्थी है ब्रह्मरन्ध्र का सही सूचक, जहां त्रिगुणात्मक शिव का अधिष्ठान है, यहीं से त्रिगुणमयी ये तीनों नाड़ियां पृथक होती हैं। ऊपर कण्ठ (विशुद्धि चक्र) से नीचे मूलाधार तक आने वाले उपवीत के त्रिसूत्र अपने में ऐसे अनेक तत्त्व समेटे हुए हैं।
आरम्भ में भले ही उपवीत कोई वस्त्र-विशेष रहा हो, किन्तु सूत्रकाल में और विक्रम की प्रथम शती के आसपास के शूद्रक के समय में उपवीत अवश्य त्रिगुणात्मक ही था, क्योंकि मृच्छकटिक के पात्र शर्विलक को यज्ञोपवीत से सेंध नापने की डोरी का काम लेते हुए दिखाया गया है। कालिदास ने तो विक्रमोर्वशीय में नारद जी के लिये स्पष्ट शब्दों में कहा है कि उन्होंने चन्द्रमा के समान शुभ्र उपवीत सूत्र धारण किया हुआ था-
“संलक्ष्यते शशिकलामलवीतसूत्रः।”
( विक्रमोर्वशीय ५-१६ )
साथ ही त्रिसूत्र व्यक्ति को सदा यह स्मरण दिलाते रहते हैं कि इन त्रिसूत्रों को धारण करने के लिये मुझे, मेरे पिता को और आचार्य को भी त्रिरात्र कृच्छ्रव्रत रखना पड़ा था, अतः इनकी पवित्रता सदा बनाए रखनी है, और इनके द्वारा विहित कर्मों का सदा पालन करना है, तभी इनकी सार्थकता है।
जनेऊ की 96 अंगुल लम्बाई 15 तिथि, 7 वार, 28 नक्षत्र, 24 तत्त्व, 4 वेद, 3 गुण, 3 का और 12 मास दिक्काल और ब्रह्मांड में अहर्निश व्रत पालन के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होने के लिए प्रमाण स्वरूप है ।
“तिथिवारश्च नक्षत्रं तत्वं वेदा गुणत्रयम् ।
कालत्रयश्च मासाश्च ब्रह्मसूत्रपश्च षण्मव ।।”
ज्योतिषीय महत्व : व्यक्ति को दो जनेऊ धारण कराया जाता है। धारण करने के बाद उसे बताता है कि उसे दो लोगों का भार या जिम्मेदारी वहन करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का। अब एक-एक जनेऊ में 9-9 धागे होते हैं जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9-9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है। अब इन 9-9 धागों के अंदर से 1-1 धागे निकालकर देखें तो इसमें 27-27 धागे होते हैं। अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27-27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है। अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36= 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है। अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9+2= 11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी (1 और 1) के मिलने से बना है। 1+1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है। जब हम अपने दोनों पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति हो जाती है।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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