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यज्ञ में मेखला बनो
शृंगी ऋषि कृष्णदत्त जी महाराज-
आज का विचार-विनिमय यह, कि हम याग युक्त बनें।हम मानो याग में मेखला के ऊपर अपना विचार देते चले जाएं। मेखलावादी याग होने चाहिएं। जब हम यज्ञशाला बनाते है, यज्ञशाला का निर्माण करते हैं, जैसे सृष्टि का निर्माण चैतन्य देव करता है, इसी प्रकार मानो एक शिल्पकार एक यज्ञशाला का निर्माण करता है, उसमें एक मेखला बनाता है।
ब्र ह्मा कहता है मेखला वाचा प्रभु अस्तो, हे मेखलावादी!, ब्रह्मा कहता है, तू मेखला का निर्माण कर, मानो देखो, मेखला के साथ में मानो देखो, पूर्वा, दक्षिणा, और प्राची दिक् और मुनिवरों! देखो, उत्तरायण सति यह मानो चारों दिशाओं में मेखला का निर्माण होता है। तो हमारे जीवन में भी इसी प्रकार की मेखला बनती है और वह कैसी मेखला है हमारे द्वारा मानो देखो, समाज से हमारा जीवन कटिबद्ध है, एक मेखला तो समाज की मेखला है, और द्वितीय मेखला, जिन्होने उत्पन्न किया है हमारे माता-पिता और आचार्यजन एक वह मेखला कहलाती है।
तृतीय मेखला प्रारम्भिक संस्कार हैं और चतुर्थ जो मेखला परमात्मा के आँगन की चेतना है, जो हमें परिक्रमा के लिए प्रेरणा करती है। तो परिणाम यह है कि हम सबसे प्रथम यह विचारें कि मानो देखो, जो पूर्व दिशा है आज देखो, यह अमूल्यमयी हमें संकेत देती है, हमें यह प्रेरणा देती है कि हम माता-पिता आचार्यों से कितने कटिबद्ध हैं, परिक्रमा करनी है हमें उनके प्रति मनन और कितने प्रति उनके विचारों की। जब पश्चिम दिशा आती है तो हम जिस समाज में, जिस वातावरण को परिवर्तन करना है हम मानो शान्ति, के द्वारा जल जैसे शीतल होता है और जल शीतल जैसे पृथ्वी के दोषो को यह समुद्र शोषण कर लेता है। इसी प्रकार हमारे मानो देखो, दोषों को, जल के तुल्य पृथ्वी के दोषो को जैसे जल शोषण कर लेता है इसी प्रकार यह जल करता है इसी प्रकार हम समाज का परिवर्तन करते चले जाएं।
तो विचारना यह है कि आज हम देखो, उसके पश्चात हमारा जो प्रारब्धिक संस्कार है पूर्व के जन्मो को जिससे हमारा जीवन कटिबद्ध है जो मानो प्राण में रहने वाला है, जिसकी प्राण में गति चलती है।अहा देखो, हम उसके आधार पर अपने जीवन के अपने कर्मों के भोगों को प्रायः क्रियात्मक करते चले जाएं, हम उनमें किसी प्रकार भी यह विचारें की हम मानो पूर्वले प्रारब्धिक कर्मों हमारे लिए गति आगे के लिए ऊँचा कर्म करने की हमारी गति होनी चाहिए। हम जल सिंचन के साथ में जैसे अपनी प्रतिज्ञा करते हैं कि हे आपो घृतं ब्रह्मे उत्तर विध्यानम, मानो हम जल से प्रतिज्ञा करते हैं कि हम सदैव अपने ओज और तेज को प्रबल बनाना चाहते हैं।
मेरे प्यारे! इसके पश्चात प्रभु की परिक्रमा है, क्या हे देव! हम याग के अग्नि के समीप जल को ले करके अग्नि के समीप साक्षी करके प्रतिज्ञा करते हैं, परिक्रमा करते हैं हे देव! मानो हमारा जो जीवन है वह ऊर्ध्वा में भी मानो प्रत्येक दिशाओं में प्रभु की चेतना कार्य कर रही है इसी की चेतना में हम सर्वत्र चेतनित हो रहे हैं तो ऐसे एक भाव के साथ में मानो देखो, और भौतिक जो स्वरूप है वह भौतिक स्वरूप एक और भी माना जाता है आध्यात्मिक स्वरूप भी है और भी भौतिक जब सृष्टि का प्रारम्भ हुआ तो मेरे प्यारे! सबसे प्रथम प्रभु ने मेखला का निर्माण किया और वह मेखला क्या है? वह समुद्र है जिसके आँगन में पृथ्वी रमण कर रही है, और पृथ्वी के दोषों के शोषण करने का कार्य समुद्र किया करता है, इसीलिए समुद्र को सोम कहते हैं, जैसे वह विष को शोषण करता है, इसी प्रकार हम आध्यात्मिक बल को प्रबल करते हुए हम ज्ञान मुनिवरों! देखो, जैसे यह हमारे द्वारा अज्ञान है अज्ञान को नष्ट करते हुए, हम काम, क्रोध, मद, लोभ को शान्त करते हुए इस संसार सागर से पार होते चले जाएं।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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