योग की श्रेष्ठता
mystic power योगी गुरु परमहंस देव –
योग समस्त साधनाओं का मूल और सर्वोत्कृष्ट साधना है। शास्त्र में बताया गया है कि व्यास देव के पुत्र शुकदेव पूर्वजन्म में किसी पेड़ की टहनी पर बैठकर शिवजी के मुख से योग के उपदेश सुनकर पक्षी योनि से उद्धार पाकर अगले जन्म में परमयोगी बने थे। केवल योग के श्रवण से जब इतना लाभ होता है, तब योग की साधना करने से ब्रहमानन्द और सर्वसिद्धि की प्राप्ति होगी, इस में क्या कोई सन्देह हो सकता है ? योग के संबंध में शास्त्र की उक्ति इस प्रकार है कि अविदूया से विमोहित होकर आत्मा “जीव! की संज्ञा पाकर आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक, इन तीन तापों के अधीन हुई है। इन तीन तापों से मुक्ति प्राप्त करने का उपाय योग है।
योग अभ्यास के बिना प्रकृति के माया कौशल को जानना संभव नहीं है। जो व्यक्ति योगी है, उसके समक्ष प्रकृति अपना मायाजाल नहीं फैला सकती, वरन वह शर्मीदा होकर भाग जाती है, सहज शब्दों में उस योगी व्यक्ति में प्रकृति लय प्राप्त होती है। प्रकृति के लयप्राप्त होने पर वह व्यक्ति फिर पुरुष जीव नहीं कहलाता, उस समय वह केवल आत्मा के नाम से सतस्वरूप में अवस्थान करता है। इस तरह सतस्वरूप में अवस्थान करने के कारण योग को श्रेष्ठ साधना बताया गया है। योग ही धर्म जगत का एक मात्र पथ है। तंत्र का मंत्र, मुसलमानों का अल्लाह और ईसाइयों का ईसा मसीह, एक दूसरे से पृथक हो सकतेहैं, परन्तु जिस समय वे उस चिंतन में आत्मविभोर हो जाते हैं तो वे अनजाने में योगाभ्यास नहीं तो और कया करते हैं ? फिर भी किसी अन्य देश के किसी धर्मशास्त्र में आयों के योगधर्म की तरह परणिति या परिपुष्टि नहीं हुई है। मोटे तौर पर दूसरी जातियों के संबंध में चाहे जो कुछ भी हो, किन्तु भारत के तंत्र-मंत्र, पूजा-पद्धति आदि सब कुछ योगपरक है। योगाभ्यास के दूवारा चित्त की एकाग्रता आने पर ज्ञान उत्पन्न होता है और उस ज्ञान के दूवारा मानवात्मा की मुक्ति होती है। वह मुक्ति दाता परम ज्ञान ग्रोग के अतिरिक्त शास्त्र पाठ के दुवारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। भगवान शंकर देव ने कहा है-
अनेकशतसंख्याभिस्तर्क व्याकरणादिभिः,
पतिता शास्त्रजालेषु प्रज्ञया ते विमोहिताः। -योग बीज, 8
सैकड़ों तर्क शास्त्र और व्याकरण आदि का अध्ययन करके मनुष्य शास्त्र के जाल में पड़कर विमोहित हो जाता है। वास्तव में सच्चा ज्ञान योगाभ्यास के बिना पैदा नहीं होता।
मधथित्वा चतुरो वेदान सर्वशास्त्राणि चैव हि।
सारस्तु योगिभिः पीतस्तक्रं पिवन्ति पण्डिताः।
-जानतंकलिनी तंत्र
चार वेदों और समस्त शास्त्रों का मंथन कर नवनीत स्वरूप उनके सार भाग को तो योगीजन पी चुके हैं और उनके असार भाग जो तक्र (छाछ) है, पण्डित लोग वही पी रहे हैं। शास्त्र के पाठ से जो ज्ञान पैदा होता है, वह मिथ्या प्रलाप मात्र है। वह सही ज्ञान नहीं है। वहिर्मुखी मन, बुद्धि और इन्द्रियों को बाहूय विषयों से निवृत्त कर अंतर्मुखी बनाकर सर्वव्याप्त परमात्मा में संयोग करने का नाम सच्चा ज्ञान है।
एक बार भरदु्वाज ऋषि ने पितामह ब्रह्मा से प्रश्न किया था-“किं ज्ञानमिति ?” ब्रह्मा ने उत्तर दिया
“एकादशेन्द्रियनिग्रहेण सदगुरुपासनया श्रवण मनन-निदिध्यासनैद्टृग दृश्य प्रकारं सर्व निरस्य सर्वान्तरस्थं घटापटादि विकारपदार्थेषु चैतन्यं विना न किंचिदस्तीति साक्षात्कारानुभवो ज्ञानम्”
अर्थात आंख, कान, जीभ, नाक और त्वचा, इन पंच ज्ञानेन्द्रिय और हाथ पैर, मुंह, पायु, और उपस्थ, इन पंच कर्मेन्द्रिय तथा मन रूपी एकादश इन्द्रिया का निग्रह करते हुए सद॒गुरु की उपासना के दुवारा श्रवण, मनन और निदिध्यासन के साथ घट, पट और मठ आदि विकारों से पूर्ण समस्त दृश्य पदार्थों के नाम और रूप का त्याग कर उन सभी वस्तुओं के भीतर और बाहर स्थित एकमात्र सर्वव्याप्त चैतन्य के अतिरिक्त कोई भी सत्य वस्तु नहीं है, इस तरह के अनुभवात्मक जो ब्रहमसाक्षात्कार है, उसका नाम ज्ञान है। योगाभ्यास नहीं करने से कभी भी ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। आम लोगों का जो ज्ञान है, वह भ्रम ज्ञान है। क्योंकि जीव मात्र ही माया के पाश से वद्ध है। माया के पाश को नहीं तोड़ सकने से सच्चा ज्ञान पैदा नहीं होता। माया के पाश को तोड़ कर सच्चे ज्ञानालोक का दर्शन करने के उपाय को योग कहते हैं। योग साधना के बिना किसी भी तरह मोक्ष प्राप्त करने का हेतु जो दिव्यज्ञान है, उसका उद्रेक नहीं होता।
योग रहित सांसारिक ज्ञान केवल अज्ञान है। उसके द्वारा केवल सुख और दुख का बोध होता है। इससे मुक्ति के पथ पर जाने में सहायता नहीं मिलती। परमयोगी महादेव ने अपने मुंह से कहा है-
योगहीन कं ज्ञान मोक्षदं भवतीश्वरि – योग बीज, 78
हे परमेश्वरि। योग रहित ज्ञान किस प्रकार मोक्ष देने वाला हो सकेगा ? योग की श्रेष्ठता दशा हुए सदाशिव ने पार्वती को बताया-
“नज्ञाननिष्ठो विरक्तोजपि धर्मज्ञोजपि जितेन्द्रियः।
बिना योगेन देवोषपि न मुक्ति लभते प्रिये।”
योग बीज, 37
हे प्रिये, ज्ञानवान, संसार के प्रति विरक्त, धर्मज्ञ, जितेन्द्रिय अथवा कोई देवता भी योग के बिना मुक्ति प्राप्त करने में समर्थ नहीं होते। बिना योगयुक्त ज्ञान के केवल साधारण शुष्क ज्ञान से ब्रह्म प्राप्ति नहीं होती। योग रूपी आग से अशेष पाप जल जाते हैं और योग के द्वारा दिव्य ज्ञान उत्पन्न होता है। उस ज्ञान से लोग निर्वाण पद प्राप्त करते हैं। योग के अनुष्ठान से समाधि के अभ्यास की परिपक्व अवस्था आने पर ही अन्तःकरण में असंभव आदि दोषों की निवृत्ति होती है और आत्मदर्शन होने पर अज्ञान का नाश होता है। अतः दिव्यज्ञान स्वतः प्रकाशित होता है। योग सिद्धि के बिना कभी भी सच्चा ज्ञान प्रकट नहीं होता। योगी के अतिरिक्त दूसरों का ज्ञान प्रलाप मात्र है।
““यावन्नैव प्रविशति चरन् मारुतो मध्यमार्गे,
यावद्विन्दूर्न भवति दृढ़ः प्राणवातप्रबन्धात।
यावद् ध्यानं सहजसदृश्यं जायते नैव तत्त्व,
ताबज ज्ञानं वदति तदिदं दम्भमिथ्याप्रलाप:।”?
गोरक्ष संहिता; चतुर्थ अंश
जब तक प्राण वायु सुघुम्ना विवर के भीतर होते हुए ब्रहमरन्ध्र में प्रवेश नहीं करता, जब तक वीर्य दृढ नहीं होता और जब तक चित्त का ध्येयाकार स्वाभाविक वृत्ति प्रवाह नहीं आता, तब तक जो ज्ञान है, वह मिथ्या प्रलाप मात्र है। वह सच्चा ज्ञान नहीं है। प्राण, चित्त और वीर्य को वश में नहीं कर सकने से सच्चे ज्ञान का उद्रेक नहीं हो सकता। चित्त सतत् चंचल है। वह कैसे स्थिर होगा ? शास्त्र में ही इसका उत्तर है। जैसे-
““योगात् संजायते ज्ञानं योगो मय्येकचित्तता |”?
-आवित्युए॒राण
योग अभ्यास के दूवारा ज्ञान उत्पन्न होता है और योग के दूवारा चित्त की एकाग्रता पैदा होती है। इसलिए चित्त को स्थिर करने का उपाय प्राणसंरोध है। कुम्भक के दूवारा प्राण वायु के स्थिर होने पर चित्त अपने आप स्थिर होता है। चित्त के स्थिर होने पर वीर्य स्थिर होता है। वीर्य के स्थिर होने पर सच्चे ज्ञान का उदय होता है। कुम्भक के समय प्राणवायु सुषुम्ना नाड़ी के भीतर विचरण करते-करते जब ब्रहमरन्ध्र में स्थित महाकाश में पहुंचता है, तब वह स्थिर होता है। प्राण वायु के स्थिर होने पर चित्त स्थिर होता है। क्योंकि-
““इंन्द्रियाणां मनो नाथो मनोनायस्तु मारुतः 7
हठ्योग ग्रदीपिका, 29
मन इन्द्रियों का कर्त्ता है और मन प्राणवायु के अधीन है। इसलिए प्राणवायु के स्थिर होने पर चित्त अवश्यमेव स्थिर होगा। चित्त के स्थिर होने पर ज्ञान नेत्र उन्मिलित होकर आत्मसाक्षात्कार या ब्रहमसाक्षात्कार होता है। इसलिए योग की आवश्यकता को समझ कर सब को उसका अभ्यास करना चाहिये। बिना योग के दिव्य ज्ञान की प्राप्ति अथवा आत्मा की मुक्ति नहीं होती। इसी कारण मैंने पहले ही बताया है कि योग सर्वोत्कृष्ट साधना है। योग में हर कोई, हर समय और हर हालत में सिद्धि प्राप्त कर सकतां है। साधक योग के बल पर अदुभुत शक्ति प्राप्त कर सकता है। कर्म, उपासना, मन संयम अथवा ज्ञान-इन सब को पीछे धकेल कर समाधि पद प्राप्त कर सकता है। मत, अनुष्ठान, कर्म, शास्त्र और मन्दिर में उपासना आदि इसके गौण अंगप्रत्यंग मात्र हैं। समस्त क्रियाकलापों के भीतर रहते हुए भी साधक इस योग साधना के दूवारा कैवल्य पद प्राप्त कर सकता है। अन्य धर्मावलंबी भी आर्य शास्त्र में बताये गये योग का अनुष्ठान करके सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं।
योग के बल पर बड़ी आश्चर्यजनक और अलौकिक शक्ति प्राप्त होती है। योग से सिद्ध व्यक्ति अणिमा आदि अष्ट ऐश्वर्य प्राप्त करके स्वेच्छा से विहार कर सकते हैं। उन्हें वाक सिद्धि हो जाती है। उनके दूरदर्शन, दूरश्रवण, वीर्य स्तंभन, कायव्यूह धारण और परकाया प्रवेश करने की शक्ति पैदा होती है। विन्मूत्र के लेपन के दूवारा स्वर्ण आदि धात्व॑तर होता है और अन्तर्धान होने की शक्ति भी पैदा होती है। योग के प्रभाव से ये सब शक्तियाँ प्राप्त होती हैं तथा अन्तर्यामित्व और बेरोक टोक शून्यपथ में आने जाने की शक्ति पैदा होती है। परन्तु सावधान !
अलौकिक शतित प्राप्त करने के उद्देश्य से योग साधना नहीं करनी चाहिए। इससे समाज में दस लोगों में वाहवाही मिल सकती है, परन्तु जो जैसा था वैसा ही रह जायेगा। ब्रहम के उद्देश्य से ही योग साधना करनी चाहिए-विभूति स्वतः विकसित होगी। इसलिए योगाभ्यास से आसक्ति रहित होने की बजाय जिस प्रकार आसक्ति की आग में न जलना पड़े अथवा कर्म का बंधन तोड़ने के लिए आगे बढ़ने पर कांटों के पिंजड़े में आवद्ध न होना पड़े उसका विशेष ध्यान रखें।
“एक और बात है कि सिद्धि प्राप्त करने में जितने विध्न हैं, उनमें सन्देह सबसे अधिक खतरनाक है। मैं इतनी मेहनत कर रहा हूँ, इससे कोई लाभ होगा या नहीं-यह संदेह ही साधना पथ का कांटा है। परन्तु योग में वह आशंका नहीं है। जितना अभ्यास करोगे, उसका उतना लाभ मिलेगा। यदि किसी में योग साधना करने की प्रबल इच्छा है, फिर भी सांसारिक बाधाओं के कारण वह नहीं कर पाता है और यदि उस इच्छा को लेकर वह मर जाता है तो अगले जन्म में जन्म स्थान आदि के रूप में ऐसे अनुकूल साधन उसे प्राप्त होंगे जिसके दृवारा उसे योग का अवलंबन लेने की सुविधा होगी और उसके लिए मुक्ति का मार्ग खुल जायेगा। यदि कोई योगानुष्ठान करके सिद्धि प्राप्त करने से पहले ही शरीर त्याग करता है तो इस जन्म में उसने जहां तक अनुष्ठान किया है, अगले जन्म में वह ज्ञान स्वतः खिल उठेगा और वहां से आगे उसकी साधना आरम्भ होगी। ऐसे व्यक्ति को योगश्रष्ट कहते हैं। योग-भ्रष्ट व्यक्ति की मृत्यु के बाद की अवस्था के बारे में भगवान श्रीकृष्ण ने “गीता” में अर्जुन को बताया,* “योगभ्रष्ट व्यक्ति पुण्य करने वाले लोगों को जो स्थान प्राप्त होता है, वहां पर अनेक दिन रहने के बाद किसी सदाचार संपन्न धनी व्यक्ति के घर या ब्रह्म बुद्धि संपन्न उच्च वंश में जन्म लेता है। इसी कारण पूर्व में जो देह बुद्धि थी वह प्राप्त कर मुक्ति के संबंध में वह अधिक प्रयल करता है। इस तरह की श्रेष्ठता संबंधी जानकारी प्राप्त कर योग का अनुष्ठान करने के लिए सब को प्रयलशील होना चाहिये।
योगीगुरु पुस्तक से साभारः
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