शेषनाग के शरीर के मध्य में नौ कुंण्डलियां होती है ऊपरी शीर्ष पर चंद्रमा होता है इस चंद्रमा के नीचे एक उर्जा चक्र होता है इस ऊर्जा चक्र में देवी पार्वती का निवास होता है। इन्हें गौरी कहा जाता है यहां के चक्र के मध्य में सदाशिव विद्यमान होते हैं। क्षेत्र के बाहर इसकी शक्ति का जो क्षेत्र हो तो बनता है मैं वास्तविक मानसरोवर सरोवर है इस चंद्रमा के मध्य बिंदु पर शीर्ष से एक शक्ति का पतन होता रहता है यही सत्य है जो शरीर रूपी दक्ष प्रजापति के यज्ञ कुंड में आत्मदाह करती है।
इसी शक्तिपात से किसी भी इकाई का जीवन है इसके नीचे ललाट के मध्य में त्रिनेत्र धारी रुद्र या ज्ञानेश्वरी का निवास है इसके नीचे ललाट के मध्य त्रिनेत्र धारी रूद्र या ज्ञानेश्वरी का निवास है यह वह चक्र है जिस में निवास करने वाली शक्ति विवेक ज्ञान भौतिक सामर्थ्य से परे की शक्ति प्रदान करती है।इसके नीचे भृकुटियों के मध्य गणेश हैं इसे योगी आज्ञा चक्र कहते हैं वैदिक ऋषि इसे विश्व देवा कहते हैं इसके नीचे नील सरस्वती या तारा है जो दो स्वरूपों मे कंधे गर्दन एवं गर्दन और खोपड़ी के जोड़ पर रीढ़ में विद्यमान होती है।s इसको वागेश्वरी सरस्वती वीणा वादिनी भी कहा जाता है इसके नीचे केंद्र में जीवात्मा या नाभिक है पूरे शरीर का स्वामी यही है क्योंकि इस केंद्र में ही आत्मा रहती है इसी को भुनेश्वरी कामेश्वरी विष्णु इंद्र अर्धनारीश्वर राजराजित शिव इत्यादि कहा जाता है।
इसके नीचे चक्र में लक्ष्मी है इन्हें कमल ब्रह्मा आदि कहा जाता है इसके दो रूप है, दो चक्र हैं इसके नीचे दुर्गा का चक्र है और इसके नीचे काली का इस चक्र के नीचे जो पुंछ निकलती है वह भैरव जी हैं योग इन चक्रों को किसी और नाम से संबोधित करते हैं वैदिक ऋषि इन्हें भिन्न-भिन्न आकाश के रूप में व्यक्त करते हैं जिनके मध्य देवता निवास करते हैं शक्ति मारगी इनमें देवियों का निवास बताते हैं शिवपूजक शिवलिंग का अघोर पंथ में इसे नीचे से डाकिणी, राकिणी, लाकिणी, काकिणी, आदि सप्त योगिनियों के नाम से जानते हैं।
#डाकिणी, राकिणी, चैव लाकिणी #काकिनी, तथा शाकिनी #हाकिणी, चैव क्रमात् #षट् पंकजाधिपा।। इनमें तीन देवियां और हैं जिनकी कुंण्डलिनी की षट् चक्र वेधन साधना मे प्रयोगात्मक उपयोग नही है ।
#डाकिणी का स्वरप:- रक्त वर्ण की लाल-लाल आंखों लंम्बे बाल नाटे कद की उन्नत स्तनों वाली मुंह में रक्त और मांस भरे भयानक घोर मुद्रा वाली डाकनी नग्न एवं भयानक अट्टाहास करती हुई है। यह शमशान वासिनी दाहिने दोनों हाथ में खड़ंग और शूल लिए और वाम हाथों में नर कपाल में रक्त और तलवार लिए उग्र स्वरूप की है यह साधक के शत्रु कुल को नष्ट करने वाली है पशुजनों में भय उत्पन्न करने वाली है और रक्त एवं मदिरा से प्रसन्न होने वाली है।इनकी साधना श्मशान में सर्वांग भैरवी को गोद में बिठाकर यह सब पर बैठकर की जाती है। महीने द्वार पालिका कहा जाता है पर अघोर मार्ग में काली के स्थान पर चक्र की अधिष्ठात्री देवी यही है डाकनी का स्थान मूलाधार मैं होता है जो ऋणबिन्दू का अंतिम चक्र है यह रीढ़ कमर की हड्डी के जोड़ के मध्य होता है। डाकनी यानी डाट ले जाने वाली अर्थात चेतना को नष्ट करके घोर उन्माद काम क्रोध आक्रमकता से युक्त देवी है।
स्मरण करेंगे तो यही भाव महाकाली का है डाकनी की सिद्धि से वही शक्ति प्राप्त होती है जो कामकला काली की सिद्धि से प्राप्त होती है। किंतु यह साधना कुण्डलिनी की शक्ति को तकनीकी द्वारा जगाने की है। ध्यान स्वरूप कि नहीं है ध्यान रूप में भी सिद्धि प्राप्त होती है पर वह इतनी शक्तिशाली नहीं होतीहै। कुण्डलिनी की सिद्धि परातंत्र विद्या है।वास्तव में मूलाधार के शिवलिंग की शीर्ष ऊर्जा सर्प फण को ऊपर खींच कर ऊपरी चक्रों के केंद्रों में ले जाने में भीषण मानसिक शक्ति की आवश्यकता होती है। इसी कारण अपने अंदर की भयानक शक्ति को जगाना पड़ता है इस सर्प के फण को उर्ध्व में खींचने में यही समर्थ है। कामकलाकाली महाकाली और कामदेव की भी शक्ति इसे ऊपर खींच सकती है पर इनका उपयोग इस कार्य में स्यात् ही होता है। योगी प्राणायाम से नारी शक्ति को जगा कर इसे खींचते हैं वैदिक ऋषि इसी चक्र की साधना में ही नहीं करते वह केवल सहस्त्रार चक्र की साधना में ही लिप्त रहते हैं यह चक्र चंद्रमा के नीचे अधोगामी है सहस्त्रधारा के रूप में जंतु मनुष्य में और वृक्षों मे पत्तों के रूप में फैला होता है।
#राकिणी का स्वरूप:- यह मूलाधार से ऊपर के स्वाधिष्ठान की शक्ति है इस चक्र को साधने के लिए राकिणी का ध्यान किया जाता है राकिणी का स्वरूप इस प्रकार से है। श्याम वर्ण की अति चंचल चितवन वाली सिंह पर सवार नागों के आभूषणों से सुशोभित कानों में शिशु मस्तिकों के कुंण्डल को धारण किए हुए तीन नेत्रों वाली भयानक रूप से आक्रोशित दानवों का संहार करते हुए उनके रक्त से प्लावित्त सुपुष्ट स्तनों वाली सुडौल बदन वाली अति सुंदर बालों को खोलें जो वायु के प्रवाह में पीछे की ओर उड़ रहे हैं।देवी ने उसे नागपाश से बांध रखा है इस के हाथों में शूल पद्म डमरु और तेज धार वाली कुल्हाड़ी है यह आक्रमक मुद्रा में है। स्पष्ट है कि यह दुर्गा का ही एक रूप है बहुत से अघोर साधक प्राचीन जय दुर्गा के स्वरूप का ध्यान लगाते हैं शक्ति की वाम अघोर साधना के प्रति वितृष्णा रखने वाले वैदिक संस्कारों से युक्त साधक महिषासुर मर्दिनी दुर्गा का ध्यान लगाते हैं।
और स्वाधिष्ठान को शक्तिशाली बनाकर इस स्थान पर उत्पन्न शिवलिंग के शीर्ष की नागफण के सामान आकृति वाली ऊर्जा धारा को इसके ऊपर के चक्र के केंद्र में खींच कर स्थापित करतेहै। यही क्रिया राकिणी को ध्यान में करके अघोरी करते हैं इनमें से अनेक राकिणी के नाम पर जय दुर्गा का ध्यान लगाते हैं। यह देवी अत्यंत चंचल संहारक है साधक को इसकी चंचलता को स्थिर करने का अभ्यास करना होता है अन्यथा इसकी प्रबल चंचलता साधक को पथभ्रष्ट करके नष्ट कर देती है। इस देवी का स्थान स्वाधिष्ठानचक्र मे है, यह चक्र रीढ़ की हड्डी में मूलाधार शिव ऊपर नाभि और मूलाधार के बीच में होता है यहां का शिवलिंग रक्तिम वर्ण का होता है मूलाधार का शिवलिंग काले वर्ण का ! साधक को यह शक्ति पराक्रम वीरता वीरता तेज कांति प्रदान करती है, इसकी साधना शमशान में नदी के किनारे या जल में आसन लगाकर करने से शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है।
क्रमश:- लाकिणी, काकिणी, व शाकिणी के विषय मे कल की पोस्ट मे
नोट:- मै अपनी पोस्ट प्रसिद्ध होने या पैसे के लिए नही करता मै केवल यह इसलिए लिखता हूँ कि इन विद्याओ के नाम पर बढा चढाकर इतने कृत्य हो रहे है वह सत्य नही है सत्य ये है कि ये विद्याये मोक्ष का मार्ग खोल देती है सभी मित्रो ओर विद्वानों से अनुरोध है। जो भाव आप व्यक्त करे वह #हिन्दी मे करे गुलामी वाली भाषा मे न करे यानि #अग्रेजी
शक्ति उपासक कौलाचारी