राम ने विभीषण के आदेशानुसार वहाँ सब सामग्री जुटाना प्रारम्भ कर दिया, जब सब सामग्री, घृत्त आदि वहाँ एकत्रित होने लगा, बुद्धिमानों को आमन्त्रित किया गया| उस समय विभीषण ने कहा कि –“हे राम! यदि यह सब सामग्री भी जुट जाएं, परन्तु जब तक यज्ञ का ब्रह्मा रावण नही बनेगा, तब तक आपका यज्ञ सफल नही होगा |”
उस समय राम ने कहा –विघाता! यह कैसे होगा, मेरा शत्रु , मेरे समक्ष आएगा ?
उन्होंने कहा-कि देखो, रावण इतना ज्ञानी है वास्तव में तुम निमन्त्रण देने जाओगे, तो वह स्वयं आ जाएंगे और तुम्हारे यज्ञ को अवश्य सफल करेंगें।
मुनिवरों! महर्षि बाल्मीकि जी ने यह ऐसा वर्णन किया है, कि विभीषण वहाँ से अपने स्थान पर चले गए। वहाँ सब सामग्री जुट जाने के पश्चात बेटा! राम और लक्ष्मण ने रावण को निमन्त्रण देने की योजना बनाई। दोनों वहाँ से बहते हुए रावण के द्वार पर जा पंहुचे। रावण ने बेटा! इससे पूर्व राम को कदापि नही देखा था, इसीलिए बेटा! रावण को उनकी कोई पहचान न हो सकीं, इस समय रावण अपने न्यायालय में विराजमान होकर न्याय कर रहा था| उस समय के न्याय को पाकर राम ने लक्ष्मण से कहा-“ रावण तो बड़ा नीतिज्ञ है|” देखो, कैसा सुन्दर न्याय कर रहा है| धन्य है। विधाता को निमन्त्रण दें, तो कैसे दें? उस समय वह वहाँ कुछ समय शान्त विराजमान हो गए। न्यायालय में जब रावण का न्याय समाप्त हो गया, तब वे उनके समक्ष पंहुचे।
राम के आमन्त्रण पर रावण का धर्माचरण
उस समय रावण ने कहा- “कहिए भगवन्! किस प्रकार बहते हुए आए हैं, क्या याचना है?”
उन्होंने कहा- “भगवन! हम एक अजयमेध यज्ञ कर रहे हैं, वेदों के अनुकूल आप हमारे यज्ञ को पूर्ण कीजिए|”
रावण ने कहा-“ तथास्तु” जैसी तुम्हारी इच्छा होगी, वैसा ही किया जाएगा।
उस समय राम ने कहा भगवन! समुद्र तट पर यज्ञ हो रहा है, और हम आपको निमन्त्रिण कर चुके हैं ,हे विधाता! हम कल नही आ सकेंगे, तृतीय समय में आप स्वयं वहाँ विराजमान हो जाना।
उस समय बेटा! रावण ने देखो, राम की उस याचना को स्वीकार कर लिया। वहाँ से दोनों विधाता! बहते हुए समुद्र तट पर आ पंहुचें।
मुनिवरों! अब हमने महर्षि बाल्मीकि के मुखारबिन्दु से ऐसा सुना है, और हमारे महर्षि लोमश मुनि महाराज ने ऐसा देखा भी हैं कि जब राम और लक्ष्मण दोनों अपने स्थान पर पंहुच गएं, तो वहाँ उन्होंने यज्ञ की सब सामग्री घृत्त आदि एकत्रित किया और बड़ी सुन्दर यज्ञशाला बनाई, ऐसी सुंदर यज्ञशाला बनाई जिसका वर्णन नही किया जा सकता।
मुनिवरों! ऐसा विदित होने लगा, जैसे ब्रह्मलोक से ब्रह्मा आ पंहुचा हो। अब देखो, द्वितीय समय भी समाप्त हो गया तृतीय समय आ पंहुचा। अब रावण की वहाँ प्रतीक्षा होने लगी, कुछ समय के पश्चात बेटा! रावण भी अपने पुष्प विमान में विद्यमान हो करके उस महान भूमि पर आ पंहुचे जहाँ राम ने यज्ञशाला का निर्माण किया था। मुनिवरों! वह वहाँ आ पंहुचे, तो उन दोनो विधाताओं ने उनका बड़ा स्वागत किया और बेटा! राम ने उन्हें अजयमेध यज्ञ का ब्रह्मा नियुक्त कर दिया।
मुनिवरों! ब्रह्मा चुने जाने के पश्चात, जब वहाँ यज्ञोपवीत धारण किए जाने लगे, तों उस समय रावण ने उन सब का परिचय लिया। उस समय उन्होंने कहा-भगवन! हमें राम कहते हैं, हमें लक्ष्मण कहते हैं| जब उन्होने अपना व्यक्तित्व उच्चारण किया,तो रावण बड़े आश्चर्य में रह गया । अरे, यह क्या हुआ| यह जो बड़ा आश्चर्यजनक कार्य हुआ, उस समय उन्होंने कहा अरे, चलो, जब इन्होंने तुम्हें ब्रह्मा चुना है, तो तेरा कर्तव्य है कि विधि विधान से यज्ञ पूर्ण कराऊं। उस समय उन्होंने कहा-“ धन्यवाद! अहां तुम्हारी धर्मपत्नी कहाँ हैं?”
उस समय कहा-“ विधाता! मेरी धर्मपत्नी तो आपके गृह, लंका में हैं| उस समय मुनिवरों! रावण ने कहा अरे, मैंने यज्ञ को विधान से नही किया, तो मैं देवताओं का महापापी बन जाऊंगा। मुझे अजयमेध यज्ञ करने का ब्रह्मा इन्होंने बनाया है| मुझे परमात्मा ने बुद्धि दी है, मेरा कर्तव्य केवल एक ही है कि देखो मैं सीता को लाऊं और यज्ञ को विधान से पूर्ण करूँ |
यज्ञ के विधान के लिए सीता का यज्ञ में आगमन
महर्षि बाल्मीकि ने ऐसा कहा है कि वह वहाँ से अपने पुष्पविमान में विद्यमान होकर के लंका में सीता के द्वार जा पंहुचे, और सीता से कहा-“ हे सीते! तेरा स्वामी यज्ञ रचा रहा है, समुद्र तट पर चलो।“ उस समय सीता ने कहा-“ हे रावण! आप नित्यप्रति मिथ्या ही उच्चारण किया करते हो?”
“नहीं, सीते! मुझे तेरे स्वामी ने उस यज्ञ का ब्रह्मा चुना हैं “
सीता ने जब इस आदेश को पाया, तो प्रसन्न हो गई और उसके पुष्पविमान में विद्यमान हो, उसी स्थान पर जा पंहुचे, जहाँ विशाल अजयमेध यज्ञ करने का विधान बनाया गया था| वहाँ जाकर बड़े आनंद से सीता, राम के दक्षिण विभाग में विद्यमान हो गई और रावण अपने दक्षिण विभाग में यज्ञ का ब्रह्मा बन गया। उसके पश्चात यज्ञ आरम्भ होने लगा।
मुनिवरों!जब तक विधान से ऋत्विक नहीं चुने जाएंगे चाहे कैसा भी यज्ञ हो वह लाभदायक नही होगा |तो वहाँ आनंद पूर्वक ऋत्विक चुने गए |वहाँ देखो,अध्वर्यु आदि भी चुने गए |यज्ञोपवीत धारण किए और यज्ञ आरंभ होने लगा |
तो मुनिवरों! हमने ऐसा सुना हैं, कि महर्षि बाल्मीकि के अनुसार तथा महर्षि लोमश मनि के निर्णय अनुसार उन्होंने यज्ञ को देखा था, कि यह यज्ञ इसी प्रकार चलता रहा।
मुनिवरों! जिस समय यज्ञ की पूर्णाहुति होने वाली थी, उस समय सीता ने राम से कहा- “हे राम! आप यज्ञ को रच रहें हैं, परन्तु रावण के लिए आपके पास कुछ दक्षिणा भी है या नहीं?”
तब राम ने सीता से कहा- “हे सीते! मेरे पास क्या है, मैं उन्हें क्या दक्षिणा दूं?”
सीता ने कहा- विधाता! यह तो बड़ा द्रव्यपति राजा है, इसके यहाँ तो स्वर्ण तक के गृह हैं, मणियों के ढेर लगे रहते हैं। तो यह कार्य कैसे सम्पूर्ण होगा?
“तो मैं क्या करूं?”
तो उस समय बेटा! देखो, सीता ने क्या किया, उसके पास एक कौड़ी जूड़ा था, वह उसने राम को दिया ओर कहा –“लीजिए महाराज!आप ब्रह्मा रावण का स्वागत इससे कीजिए।“
देखो, बेटा! सीता का यह कौड़ी जूड़ा राम ने स्वीकार कर लिया।
अब मुनिवरों! देखो, यज्ञ चलता रहा, पूर्णाहुति होने के पश्चात वहाँ बेटा! यथाशक्ति स्वागत होने लगा। राम और सीता दोनों उस कौड़ी जुड़े को लेकर रावण के समक्ष जा पंहुचे| रावण ने कहा- “हे राम! मुझे विदित होता है, जैसे यह कौड़ी जूड़ा सीता का हो|” उस समय सीता ने कहा- “विधाता! यह कौड़ी जूड़ा मेरा क्या है, यह तो शुभ कार्य है। यह तो मेरे पिता दशरथ ने किसी समय मेरे लिए आभूषण बनवाया था| आज यह आपके इस शुभकार्य में आ गया। मेरा क्या है”, उस समय रावण ने कहा- “हे सीते! मुझे तुम्हारी यह दक्षिणा स्वीकार है। परन्तु मैं किसी के शृंगार को भ्रष्ट नही करना चाहता।“ जब मुनिवरों! रावण ने यह वाक्य कहा, तो प्रजा सन्न रह गई और कहा अरे, रावण तो बड़ा बुद्धिमान हैं उस समय बेटा! वहाँ यज्ञ पूर्ण हो गया| पूर्ण होने के पश्चात रावण न कहा था-“ हे राम! विदित होता है, कि तुम्हारी मनोकामनाएं अवश्य पूरी होंगी।“
आशीर्वाद देकर सीता से कहा-“हे सीते! यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो तुम अपने पति की सेवा करो| नही, तो मेरी लंका को चलो।“
श्री कृष्णदत्त जी महाराज