त्रेता में यज्ञ प्रमुख है। सभी यज्ञों का मूल कृषि यज्ञ है जिस पर मानव सभ्यता निर्भर है। इसी शब्दावली में यज्ञ की परिभाषा गीता में है-
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न सम्भवः। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥ (गीता, ३/१४)
अक्षय तृतीया से इस कृषि यज्ञ का आरम्भ होता है,अतः यही तिथि वास्तविक त्रेता का आरम्भ है। युगादि तथा मन्वन्तर तिथियों के आरम्भ के उद्धरण नीचे दिये जाते हैं। यज्ञ चक्र स्थायी रखने के लिए उसके चक्र से बचा अंश ही भोग करते हैं।
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। अघायुरिन्द्रियारामः मोघः पार्थ स जीवति॥ (गीता, ३/१६)
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्व किल्बिषैः। (गीता, ३/१३)
यज्ञशिष्टामृतभुजः यान्ति ब्रह्म सनातनम्(गीता, ४/३१)
यज्ञ चक्र चलने से अन्न सम्पत्ति अक्षय रहती है तथा समाज या सभ्यता सनातन रहती है। अतः अन्न उत्पादन के आरम्भ दिन को अक्षय तृतीया कहते हैं।
श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )