डॉ.बी.सी.गुप्ता- कतिपय पाश्चात्य इतिहासकारों का यह कथन है कि “प्राचीन आर्य इतिहासिक ज्ञान से अनभिज्ञ एवं शून्य थे।” वास्तव में यदि पश्चिमी इतिहासकारों का यह लाछन सही है कि- प्राचीन आर्य इतिहास लेखन ज्ञान से शून्य थे तो हमें मानना पड़ेगा कि हमारे पूर्वज असभ्य थे क्योंकि केवल दो ही अवस्थाओं में कोई समाज ऐतिहासिक ज्ञान से शून्य हो सकता है प्रथम जबकि उसके नेतृत्व में कोई ऐसे कार्य न हों, जिनको उनकी भावी संतति स्वाभिमानपूर्वक स्मरण कर सकें। द्वितीय, जबकि उसका नेतृत्ववर्ग अपनी संतति को ऐतिहासिक शिक्षा के लाभों से अवगत कराकर उनमें देशभक्ति के भावों का संचार करने की आवश्यकताओं से पूर्णत: अनभिज्ञ हों। भारतीय मनीषियों के संबंध में प्रथम अवस्था संभव ही नहीं हो सकती क्योंकि परीक्षा के विश्लेषण से यह तथ्य सर्वविदित है कि प्राचीन आर्यावर्त में रेखागणित, ज्योतिष, गणित, अंकशास्त्र, धर्मशास्त्र, पदार्थ-विज्ञान महोन्नति को पहुँचे हुए थे। वैधक संबंध में भी विस्मयपूर्ण अन्वेषण हो चुके थे। अध्यात्म-विद्या उन्नति के शिखर पर विराजमान थी। प्रजातंत्र-शासन गणतन्त्रों के रूप में शासन-प्रणाली के अभ्यासिक स्तर तक विद्यमान था और चक्रवर्ती साम्राज्य भी संस्थापित हो चुका था। अत: यह सिद्ध नहीं हो सकता कि प्राचीन आर्यों के कार्यकलाप ऐसे न थे, जो उनकी संतति में उच्च भावों को उत्तेजित करते और उनकी उन्नति में सहायक हो सकते थे। वास्तविक यथार्थ तो यह है कि उनके कार्य-केवल भारत में ही नहीं अपितु ‘सम्पूर्ण संसार’ को उन्नति के मार्ग को प्रशस्त कर उन पर चलने के आदेश प्रदान करते हैं। द्वितीयावस्था, भी संगठित नहीं होती क्योंकि आर्यो के प्राचीन और नवीन संस्कृति साहित्य की आलोचना करते हैं, तो ऐसे ऐतिहासिक वर्णन से पाते हैं। अर्थववेद में निम्नाकित शिक्षा है: – ‘स वृहती दिशमनुव्यचलत! तमतिहासाश्च पुराणंच गाथाश्च नाराश सीश्र्चानुष्यचलन्। इतिहास्य च वै स पुराणस्य च गाथाना च नाराशंसीनां च प्रियं धाम भवति य एवं वेदं।‘ (अर्थात ‘महत्वाकांक्षी मनुष्य जब ‘वृहतीम्’ महत्व की ओर चलता है, तब इतिहास, पुराण, गाथा और नारांशसी उसके अनुगामी बन जाते हैं।) इस बात को जो मनुष्य समझता है, वह इतिहास, पुराण और नाराशंसी का प्रियधाम बन जाता है। यही इतिहास विद्या का बीज है।’ गृह्यसूत्रानुसार ‘ब्रह्मण को इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी भी कहते हैं। अर्थात ऐतेरय, शतपथ, साम और गोपथ जो ब्राह्मण-ग्रन्थों के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनमें अनेक प्रकार के इतिहास विद्यमान हैं। छान्दोग्यपनिषद के सप्तम् प्रपाठक में महर्षि सनतकुमार और ऋषि नारद संवाद में नारद जी अपने अध्ययन शास्त्रों का उल्लेख करते हुए कहते हैंहे भगवान! मैंने ऋक्, यजु, साम अर्थव, इतिहास पुराण, वेदार्थ प्रतिपादक ग्रन्थ, पितृ विद्या, राशि, देव, निधि वाकोवाक्य, एकायन् विद्या, ब्रह्मविद्या, भूत विद्या, क्षत्र विद्या, नक्षत्र विद्या, सर्पदेव जनविद्याओं का अध्ययन किया है। ‘इस उत्तर में इतिहासपुराण अर्थात पुराकालीन इतिहास नाम स्पष्ट आया है। सनतकुमार छान्दोग्यपनिषद के इसी प्रकरण मेंनारदजी को उपदेश देते हुए कहते हैं, ‘ विज्ञान मिलती थी, के द्वारा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास पुराण का तत्व ज्ञात होता है।’ इस कथन के विश्लेषण से यह सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में इतिहासविद्या इतने उन्नति के शिखर पर थी कि उसके कतिपय गूढाशय पूर्ण ग्रन्थों को समझाने के लिए अध्ययनार्थी को प्रथम विज्ञानवित या विज्ञानशास्त्र के ज्ञाता होना अनिवार्य वह भी बतलाता है। महाभाष्य व्याकरण के पस्पशाहिल्क के अनुसार ‘शब्दप्रयोग’ विषय बहुत वृहत है।’ ‘वाक्योवाक्य, इतिहासादि’ चतुष्षष्ठि (64) कलाओं की गणना कराता हुआ कवि लिखता है इतिहास, वेद, काव्य, अलंकार, नाटक, आदि 64 कलाएं हैं। राजकुमार चन्द्रापीड़ को कौन-कौन सी विद्याएँ पढ़ाई गया थी, इसका वर्णन कदि वाण ने अपनी प्रसिद्ध कृति कादम्बरी में में इस प्रकार किया है- ‘वह राजकुमार महाभारत, इतिहास, पुराण, तथा रामायण में बड़ा कुशल हो गया है।’ राजा के वर्णन में कवि वाण ने अपना कादम्बरी में लिखा है ‘वह कभी-कभी प्रबन्ध, कहानियाँ, इतिहास तथा पुराणों को सुनकर मित्रों के साथ दिन व्यतीत करता था।’ महाभारत काव्य के अनुसार, इतिहास पुराण से वेदार्थ दृढ़ किया जा सकता है। इससे भी ज्ञात होता है कि प्राचीन आर्य ऐतिहासिक विज्ञान शास्त्र के इस नियम को भी भलीभाति जानते थे कि जब तक किसी मनुष्य ने बहुत सी सांसारिक-स्थूल घटनाओं के परस्पर संबंधों को न समझा हो, तब तक वह सूक्ष्म-नियमों को ठीक से अनुभव नहीं कर सकता। क्योंकि ज्ञान की गति स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर होती है। एक कवि के शब्दों में ‘इतिहास वह विद्या है, जिसमें प्राचीन बातों के वर्णन में इतिहास न केवल घटनाओं का तिथिवार वर्णन ही करता है, किन्तु साथ ही कारण कार्यश्रृंखला से उन घटनाओं से जो शिक्षा राजा के वर्णन कवि वाण ने कादम्बरी में लिखा है वह कभी-कभी प्रबन्ध, कहानियाँ तथा पुराणों को सुनकर मित्रों के साथ दिन व्यतीत करता था।’ उपर्युक्त विश्लेषणयुक्त उदाहरणों से विदित होता है प्राचीन आर्य सभ्यता के शिखर पा विराजमान थी एक सभ्य जाति के लिए इतिहास अनिवार्यता – संस्कृत भाषा में इतिहास शब्द का होना -संस्कृत-साहित्य में इतिहास के गुण वर्णन होते हुए भी क्यों भारतवर्ष का इतिहास पूर्ण कारण-कार्य-श्रृखंलायुक्त नहीं मिलता। इसके अनेक उदाहरण हैं। प्राचीन ऐतिहासिक पुस्तकें प्राचीन आर्यों के ऐतिहासिक होने सिद्ध करने उपर्युक्त युक्तियाँ पर्याप्त मात्रा में प्राप्य हैं। प्राचीन आर्य इतिहास को एक प्रकार का विज्ञान को धर्मार्थ काम, मोक्ष की प्राप्ति में सहायक मानते थे और इसकी सहायता से अनेक काव्यों को शिक्षाप्रद तथा मनोरंजक निर्मित करते थे। जिस इतिहास की विद्यमानता ऋषि-मुनि, वीतरागी नारद, सनतकुमार, पतंजलि, सदृश प्रभृति विद्वान साक्षी अपनी सृजत कृतियों के माध्यम से दे रहे हैं, स्पष्टत: दो टूक शब्दों में दे रहे हों- उस इतिहास शास्त्र के ज्ञाता भारतवर्ष में न रहते हों-यह कैसे संभव हो सकता है। इन तथ्यों के रहते भारतीय वाङमय में ऐतिहासिक-साहित्य के अवमानना अविद्यमानता कोई कैसे सिद्ध कर सकेगा। अतएव, यदि प्राचीन आर्य इतिहास के लाभों से परिचित थे तो इस समय कार्य-कारण श्रृंखलायुक्त समस्त भारत का इतिहास क्यों अप्राप्य है, जिसमें तिथिवार सम्पूर्ण घटनाओं का सविस्तार वर्णन हो कैसे प्राप्त हो सकता है। क्या संसार भारत वर्ष पर मुस्लिम आक्रमण, सम्प्रदायिकता, संकीर्णता, असहिष्णुता, बर्बरता, अत्याचारों साम्प्रदायिक पक्षपात से अपरिचित है। यह वह समय था जब मुस्लिम-सल्तनत मुसलमानी मत से सन्तान को वशीभूत करने की बलात चेष्टारत रहे हों जिस समय सहस्त्रों पुरूषों से उनकी मत असहमत था। पत्नियाँ, माताओं से भग्नियाँ छीनी जाती थी। यदा कदा ‘कत्लेआम’ अर्थात सर्व जन-वध की आज्ञा प्रचारित होती थी। उस समय कुरान के प्रतिद्वंदी भारतीय ग्रन्थ भला कैसे बच सकते थे? उदान्तापुरी का अत्यन्त प्राचीन विश्वविद्यालय महाराजा महिपाल के काल में महोन्नति को प्राप्त था, जिसमें विभिन्न या अन्य प्रकार के शिष्यों के अतिरिक्त हीनयान सम्प्रदाय के साथ सहस्त्र बौद्ध भिक्षु साधुओं तथा महायान सम्प्रदाय के 5000 बौद्ध श्रमण शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। उसके महान पुस्तकालय को जिसमें ब्राहमणों तथा बौद्धों के ग्रन्थ भरे पड़े थे। 1202ई. सन् में बख्तियार खिलजी के सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने जला दिया और उन साधुओं का हत्या कर दी।’ ऐसी दुर्घटनाएँ कितनी हुई होगी, कौन पता लगा सकता है। वर्तमान संस्कृत ग्रन्थों के अनेक ऐसे नाम आते हैं, जिनका इस समय कहीं भी पता नहीं लगता। इसका कारण क्या हो सकता है? यही कि अनेक भारतीय ग्रन्थ मुसलमानों की ईर्षाग्नि में भस्म हो गये। ऐसी विपत्ति के समय आर्य -मनीषियों ने बुद्धि से काम लिया और उनकी सोच ने उन्हें इस निष्कर्ष पर पहुँचाया कि इतिहासादिग्रन्थ तो फिर भी रचे जा सकते हैं, किन्तु यदि वेदों, उपनिषदों और दर्शनशास्त्रों का नाश हो गया तो न केवल आर्य जाति ही नष्ट हो जाएगी प्रत्युत संसार मात्र की आत्मिक मानसिक तथा सामाजिक उन्नति में बाधा पड़ेगी। अतएव, वे वेदोपनिषद, दर्शनादि ग्रन्थों को विशेष रूप से कंठस्थ करने लगे, जिससे सैकड़ों आर्य ग्रन्थों की रक्षा हो सकी। वेदों की प्राय: 1000 एक सहस्त्र शाखाओं का नाश हो गया। धनुर्वेद, आयुर्वेद, शिल्पविद्या, इतिहासादि के सैकड़ों ग्रन्थ विलुप्त हो गए। किन्तु यह तो मानना ही पड़ेगा कि हमारे पुरखों ने घोर विपत्ति के समय भी बड़ी बुद्धि से काम किया। यदि आज भी भारतीयों का मान-सम्मान यूरोप तथा अमेरिका तथा विश्व में है तो इसका कारण केवल यही है कि गौतम, कपिल, कणाद, पतंजलि, की पूजा आज भी शिक्षित एवं सभ्य संसार में होनी पायी जाती है। यद्यपि इतिहास के अनेक पुस्तकों का नाश हो गया फिर भी एक ‘राजतरंगिणी’ इतिहास का ग्रन्थ प्राप्य है, जिसमें काश्मीर का इतिहास मिलता है, जिसके कृतिकार कल्हण’ इतिहास के सच्चे अर्थो को जानने थे। ‘मि० एम्बूस आश्चर्य प्रकट करते हुए इसके विषय में कहते हैं कि जिस समय समस्त यूरोप में वास्तविक ऐतिहासिक बुद्धि का भी नहीं हुआ था, उस समय भारत में ‘कल्हण’ के समान इतिहासवेत्ता कैसे उत्पन्न हो गए? ‘कल्हण’ कार्य अद्भुत है और विकासबाट के सिद्धान्त (Evolution Theory) के नियमों में आबद्ध नहीं होता। (continue) “The temple of Odantapuri Vihara which is said to Gaya and Nalanda) contained a vast collection of have been loftier than either of the two (Buddha Buddhist and Brahmnical works which, after the burnt under the order of Moharnorread Ben Sin manner of the great Alexandrian Library was General of Baktiyar Khily in A.D. 1202 -The Hindustan Review, March 1906, Page 187. “During the reign of the son of King Mahipal who was called ‘Pal the Great’, ie. Mahipal, there were 1,000 monks of the Mahayara School of Odantapuri. The Pal Kings had established a monastic university at Odantapuri with a splendid libraryof BrahmanicalandBuddhistic works which was destroyed at the sack of the monastery and massacre of its monks by the Mohammedans in A.D. 1202 – – TheHindustanReview March 1906 Page 190. Lecture Series by Sharat Chandra Dass C.9.6, Calcutta. यह विचारणीय तथ्य है कि महाराज विक्रमादित्य की 12 वीं शताब्दी में जबकि अध:पतन की सीमा का स्पर्श कर रहा था, ‘कल्हण’ के समान इतिहासकार तो उस समय न जाने कितने और कैसे-कैसे इतिहासवेत्ता और विज्ञानी उत्पन्न हुए होंगे जब भारत उन्नति के चरम शिखर पर विराजमान था। यह बात कल्पनातीत है। इसकी थोड़ी झलक ‘कलहण’ के कथन में मिलता है। कल्हण लिखे हैं कि ‘राजतरंगिणी’ लिखने के पूर्व मैने ग्यारह इतिहासवेत्ताओं के इतिहास की पुस्तकों का अवलोकन किया था। उनमें से एक का भी कहीं पता नहीं चलता। वे सभी बर्बर -इस्लामी आक्रोशाग्नि में भस्म हो गई। प्राचीन आर्यो का तो कहना ही क्या है, उनकी अराजकता -युग में निवास करती सन्तति भी ऐतिहासिक उस घटनाओं को स्मृत या उन्हें अंकित करना अनिवार्य मानती थी। जिस समय सम्पूर्ण भारत पर बर्बर मुस्लिम-विदेशियों के आक्रमण की घनघोर काली घटाएँ छाई थी। चारों और हाहाकार मचा था और आर्यों के लिखित ‘वाङम्य’ को विदेशी भक्षक नष्ट कर रहे थे। समय भी भारत के भाट और चारण सम-समायिक-ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन लिखने की अपेक्षा कण्ठस्थ रखना समुचित समझ, प्रसिद्ध-प्रसिद्ध घटनाओं को अपनी स्मृति में रखने लगे। जिसका लाभ प्रसिद्ध इतिहासज्ञ कर्नल टॉड़ को राजस्थान के राजपूतों का इतिहास लिखते समय भाटों व चरणों से सम्पूर्ण घटनाओं का तिथिवार इतिहासवृत्त मिल गया। मराठों की शक्ति के अभ्युत्थान ने तो सफलता से मुस्लिम अत्याचार व अनाचार का सामना किया। तभी भारतीय ‘वाङमय’ के नाश में न्यूनता दृष्टिगोचर हुई और महाराज शिवाजी तथा पेशवाओं के राज्य समस्त वृतान्त मराठी भाषा में लेखबद्ध होने लगा, जो अब भी विद्यमान है। अत: यूरोपीय तथा अंग्रेजों का यह कथन पक्षपात, द्वेषपूर्ण और संकीर्ण भावनाओं से ओत-प्रोत है कि प्राचीन आर्य मनीषी इतिहास लेखन कला से अनभिज्ञ थे। भारत के पाणिनी की कौमुदी और भर्तृहरि की ‘वाक्यपदीय’ की झूठन पर भाषा-विज्ञान की रचना वाले ये पश्चिमी इतिहावेत्ता हीनता की ग्रन्थि (Interiority Complex) से ग्रसित प्रतीत होते हैं और शासन चलाने के लिए भारतीय गौरव के स्थलों की खोज कर उन्होंने तथ्यों को बिगाड़ कर और अपने स्वार्थ के वशिभूत होकर तोड़ा-मरोड़ा है जिससे वे ऐतिहासिक पवित्र धरातल के पद से च्यूत हो गए हैं। अत: उन पर पूर्ण विश्वास करना कठिन है। यदि ऐतिहासिक विद्या का ज्ञान ही नहीं था तो प्रियदर्शी महाराज अशोक अपने राज्य के समय की घटनाओं मयतिथि पर्वतों की शिलाओं पर क्यों अंकित कराते थे। क्या ऐसा आरोप लगाने वाले समालोचक ह्यानसेन के भारत-वृतान्त को ध्यानपूर्वक पढ़ेंगे। वह स्पष्ट शब्दो मे लिखता है (13) कि ‘घटनाओं को लेखबद्ध करने के लिए प्रत्येक प्रदेश में एक राजपुरूष होता था, जिसका काम यह था कि घटनाओं का वृतान्त लिखता रहे। उनके लेखों का नाम ‘नीलोपिच’ ‘नीलपित’ (नीलपत्री) या ‘निकोष’ था। इस लेख में सुघटनाएँ तथा दुर्घटनाएँ सभी वर्णित होती थी तथा देश को आपत्ति तथा सौभाग्यसूचक घटनाएँ सब विद्यमान रहती थी।’ आधुनिक काल में यूरोपीय देशों में राज्य प्रबन्ध के लिए प्रत्येक विभाग से बलू बुक (BlueBook) अर्थात नील पत्रियाँ निकलती हैं। भारतीय नीलपत्री और यूरोपीय नीलपुस्तिका या (ग्रीन बुक) इन दोनों नामों में जो समता दृष्टिगोचर होती है वह अनेक वर्तमान इतिहासवेत्ताओं के मन में नाना प्रकार की कल्पनाएँ या परिकल्पनाएँ उत्पन्न कर रही हैं। यह भी असम्भव नहीं हैं कि यूरोपीय नीलबुक (Blue Book or Green Book) लिखने की प्रणाली यूरोप ने भारतीयों से सीखी हों, जिसके आधार पर आधुनिक इतिहास लेखन होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि भारतवर्ष के इतिहास में एक ऐसा भी आया था कि जब अपनी काल्पनिक रचनाओं की सामग्री भी प्राय: इतिहास की पुस्तकों से लिया करते थे और यही कारण है, उन्हें इतिहासदर्शी भी बनना पड़ता था। क्षेमेन्द्र कृत कंठाभरण, प्रथम संधि के निम्नांकित श्लोक से कवि के लिए इतिहास-दर्शी बनने की आवश्यकता स्पष्टत: दृष्टिगत् होती है: – ‘पठेत समस्तान् किल कालिदास कृतप्रबंधानितिहासदर्शी। कामाधिवास प्रथमोदगमस्य रक्षेत्पुरस्ताकिंकगन्धमुग्रम्।।‘ संस्कृत भाषा साहित्य में ऐतिहासिक काव्यों की विद्यमानता यह सिद्ध कर रही है कि आर्यावर्त में इतिहास की अनेक पुस्तकें लिखी गई थी। कालिदास रघुवंशकाव्य लेखन की ऐतिहासिक पुस्तकों के होने का प्रमाण है। पुराणों में दि गई वंशवलियाँ ऐतिहासिक पुस्तकों के होने का प्रमाण है। कई काव्यों के अध्ययन से यह पता लगता है कि भारतीय विद्यालयों में इतिहास भलिभाति पढ़ाया जाता था और उस समय यहाँ इतिहास के अनेक ग्रन्थ विद्यमान थे। यह प्रसिद्ध है कि महाराज हर्ष का चित्त जब उदास हुआ करता था, तब वह इतिहास सुना करते थे। कादम्बरी में लिखा है कि महाराज ने अपने पुत्र के विद्याध्ययन के लिए गुरूकुल खुलवाया और उसमें भिन्न-भिन्न विद्याओं के अध्यापकों के साथ-साथ इतिहास के अध्यापक की भी नियुक्ति की थी। उस समय रामायण तथा महाभारत दो महान ऐतिहासिक काव्य थे। यूनानी इतिहासवेत्ता मेगस्थनीज अपने भारत निवास का वृतान्त लिखते हुए कहते हैं कि ‘महाराज चन्द्रगुप्त के राज्य में भिन्न-भिन्न घटनाओं का वार्ता संग्रह करने के लिए कई राजपुरूष नियुक्त थे। ‘निस्संदेह इन्हीं घटना वृत्तों के सार संकलन से इतिहास निर्मित किया जाता होगा। इतिहास संगठन के विषय में इससे भी दृढतर प्रमाण महाराज अशोक का छठा शिलालेख है। जिसमें स्पष्टत: अंकित है कि जो कुछ घटना किसी नगर में हो उसे पत्रीवेत्ता नामक राजपुरूष लेखबद्ध कर लेवें।’ अत: उपर्युक्त प्रमाणों से यही सार निकलता है कि प्राचीनार्य ऐतिहासिक विज्ञान भी जानते थे। विदेशियों द्वारा नष्ट होने से शेष बची पुस्तकें प्राचीनार्य के ऐतिहासिक विज्ञान प्रर्दशन में काम दे रही हैं और यह सिद्ध करती हैं कि वे आधुनिक वैज्ञानिक इतिहास लिखने की शैली के पूर्णत: ज्ञाता थे और उन्होंने इतिवृत्तों के लेखन में उसका पूर्ण प्रयोग किया था। क्योंकि वे इस तथ्य से भलिभांति परिचित थे कि ‘प्रत्येक देश का भविष्य उसके भूत में अंकित होता है और जिस जाति को अपने भूत का ज्ञान नहीं, वह भविष्यत् में उन्नति का मार्ग बहुत कठिन और कई गढ़ों से पूरित पाएँगी।’
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