शृङ्गी ऋषि कृ्ष्ण दत्त जी महाराज
Mystic Power- दुर्गा को आठ भुजाओ वाली कहा गया है ये योग के आठ अंग है। इन आठ अंगों को संयम से करने वाला अपने को मां दुर्गे के समक्ष समर्पित कर देता है । जो योग के आठ अंग रूपी आठ भुजाओ को नहीं जानता, वह मां दुर्गा के द्वार पर किसी काल में भी नहीं पहुंच सकता। इसलिये मां दुर्गा की गोद में पहुंचने के लिये प्रयास करना चाहिये। जो चेतना रूपी मां प्रभु है, वह आनंद को देने वाली है। इसका लोक और परलोक दोनों से संबंध होता है इस लोक की दुर्गा यह प्रकृति है, पृथ्वी है और परलोक की माता अग्नि है जो नाना रूपो में प्रदीप्त होकर जीवन का घृत बना हुई है। घृत बनाकर उसमें आत्मा बलिष्ठ हो जाता है ,तो माता अपनेपन में विचित्र बनती चली जाती हैं और वैदिक संपदा को अपने में धारण कर लेती हैं अतः हमें अपने को पवित्र ऊंचा बनाते चले जाये। उसकी विचित्रता ही महत्ता का प्रतीक है।
हम उस देव की महिमा का गुणगान गाते हुए ममतामयी माता को जानते चले जाये।
हे माता! तेरे गर्म स्थल में हमारा निर्माण होता है हम तेरी पूजा करे तो हमारे मनों के आधार पर तू ही हमें फल दे। यह माता अपने प्यारे पुत्र का पालन स्वत: ही करती रहती है इसलिये माता दुर्गा की पूजा होनी चाहिए । जो रूढ़िवादी, माता को त्यागकर केवल पिता की उपासना करते हैं , वे केवल आधे अंग की उपासना करने से कुछ काल में समाप्त हो जाते हैं। जहां माता का आदर नहीं ,वह गृह नहीं। जहां माता का अपमान होता है वह गृह शमशान होता है । वह गृह नहीं होता इसलिये माता की पूजा और उपासना होनी चाहिये। वह वही जननी माता है जो अपने गर्भ स्थल में बालक को निर्माण करती है ।
हे माता ! तू कितनी ममतामयी है। जब हम अपने को तेरी गोद में समर्पित कर देते हैं। तो हमें अपने को कितना सौभाग्यशाली समझते हैं इसलिये हमें उस प्यारे प्रभु रूपी मां के समक्ष अपने को समर्पित करने के लिये उत्सुक रहना चाहये। वह आनंदमयी ज्योति सदैव जागरूक रहती है
यह जो लोक का घृत है यही तो मानव की प्रवृतियां हैं, यही वायुमंडल को शोधन करती है। इसलिये हमें अनुष्ठान करना चाहिये तथा नौ द्वारों पर संयम करना चाहिये। ऋषियों का कथन है कि जब पृथ्वी के मध्य गति हो तो माता-पिता दोनों को संयमी रहना चाहिये। संयमी यह कर अनुष्ठान करना चाहिये। अनुष्ठान का अभिप्राय यह है कि इस समय दुर्वासनाओं, काम ,क्रोध, लोभ, मोह आदि की वासनाएं नहीं आनी चाहिये। अनुष्ठान में अपने को जाना जाता है तथा अपने को जानने की मानव की जो प्रवृत्ति बनाई जाती है ,उन प्रवृत्तियों को संयम से करने का नाम ही अनुष्ठान है।
चैत मास में प्रतिपदा से लेकर अष्टमी तक यज्ञ होने चाहिये। देवी यज्ञ होने चाहिये।( इसके कर्म-कांड का वर्णन अन्यत्र है) यज्ञ में अग्नि को प्रदीप्त कर के विचारों को सुगंधि में लिपटा देना चाहिये जैसे माता का प्रिय बालक विनोद में माता के अंग में लिपट जाता है, उसी प्रकार प्रत्येक वेद मंत्र की आभा उसी देवी-यज्ञ के समीप रहनी चाहिये। हमें उसे रात्रि में नहीं जाना चाहिये जहां अन्धकूप है, माता का गर्भाशय है। हमें यौगिक बनकर, यौगिक सम्पदा को अपनाते हुए, संसार -सागर से पार होते हुए अपने मन को ऊंचा बनाना चाहिये। हमें इस मन के ऊपर सवार होकर योग के आठ अंग जानने चाहिये।
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