धर्मसम्राट पूज्यपाद स्वामी श्री करपात्री जी महाराज
प्रायः लोग पूछा करते हैं कि क्या भगवत्प्राप्ति इसी जन्म में हो सकती है ? ऐसा एक हो जन्म में हो सकता है या अनेक जन्मों में, इसका कोई नियम नहीं है, किन्तु जभी भगवान् के प्रति प्रेम का गाढ़ उदय हो जाता है, भगवान् तभी मिल जाते हैं-
"हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होहि में जाना ।"
अनेक जन्मों तक भी यदि प्रेम का सञ्चार न हो, तो भगवान् नहीं प्राप्त होते, प्रेम प्रकट हो जाने पर भगवान् एक ही जन्म में मिल जाते हैं।
जिस समय भक्त भगवान् से मिलने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित होकर स्वाध्याय, ध्यान आदि को प्राप्त होता है, उस समय भगवान् को अवश्य प्रकट होना पड़ता है।
आप्तकाम, पूर्णकाम, आत्माराम, परम निष्काम भगवान् परम स्वतन्त्र हैं, तथापि भक्तप्रेम में पराधीन होना उनका एक स्वभाव है। अनुभवी लोगों ने कहा है-
"अहो चित्रमहो चित्रं वन्दे तत्प्रेमबन्धनम् । यद्बद्धं मुक्तिदं मुक्तं ब्रह्म क्रोडामृगीकृतम् ॥"
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अहो, कोई निर्गुण, निराकार, निविकार ब्रह्म को, कोई सगुण-साकार ब्रह्म को भजते हैं, परन्तु में तो उस प्रेमबन्धन को भजता हूँ, जिससे बँधकर अनन्त प्राणियों को मुक्ति देनेवाला, स्वयं नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त ब्रहा भक्तों का खिलौना बन जाता है।
जिस समय भक्त भगवान् के बिना न रह शके, उस समय भगवान् भी भत के बिना नहीं रह सन्ते। जैसे पङ्खरहित पतङ्ग-शावक अपनी मां को पाने के लिए व्याकुल रहते हैं, जैसे क्षुधात्तं वत्सतर (छोटे गोवत्स) माँ का दूध चाहते है, किया परदेश गये हुए प्रियतम से मिलने के लिए प्रेयसी विपण्ण होती है, हे कमलनयन । मेरा मन आपको देखने के लिए वैसे ही उत्कण्ठित होता है-
"अजातपक्षा इव मातरं खगाः स्तन्यं यथा वत्सतरा क्षुधार्त्ताः । प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम् ॥"
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इस प्रकार की सोत्कण्ठ भक्त की प्रार्थना से भगवान् द्रुत होकर भक्त से मिलने को दौड़ पड़ते हैं।हाँ, यह ठीक है कि भगवत्सम्मिलन की ऐसी उत्कट उत्कण्ठा सरल नहीं है, किन्तु जन्म-जन्मान्तरों, युग-युगान्तरों के पुण्यपुञ्ज से ही भगवान् में उत्कट प्रीति प्राप्त होती है। इसीलिए उपनिषदों ने कहा है कि ब्राह्मणादि अधिकारी लोग यज्ञ, तप, दान और अनशंनादि सत्कर्मों से उन परमतत्त्व भगवान् को जानने को उत्कट इच्छा उत्पन्न करते हैं-
"तमेतमात्मानं ब्राह्मणा यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन विविदिषन्ति ।"
जब उस परमतत्त्व को जिज्ञासा ही उत्पन्न करने में अनेक जन्मों के सत्कर्मों की अपेक्षा होती है, तब स्पष्ट हो है कि जिसे भगवत्सम्मिलन की उत्कट कामना है, जिसे भगवान् के न मिलने से महती व्याकुलता है, वह केवल इसी जन्म का सत्कर्मी नहीं, अपितु पहले जन्मों से भी उसका इस सम्बन्ध में प्रयत्न चल रहा है। इस दृष्टि से ध्रुव की जन्मान्तरीय तपस्याओं तथा "बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते ।" इत्यादि वचनों की सङ्गति लग जाती है। प्रेम के उत्कट हो जाने पर उसी क्षण भगवान् का दर्शन होता है। फूल तोड़ने में विलम्ब हो सकता है, किन्तु उस समय भगवान् के मिलने में किश्चित् भी विलम्ब नहीं होता। भगवान् प्राणियों के अन्तरात्मा, सर्वसाक्षी हैं, उनको पाने में कौन कठिनाई ?-
"कोऽतिप्रयासोऽसुरबालका हरेरुपासने स्वे हृवि छिद्रवत्सतः ।"
इत्यादि बातों को भी सङ्गति लगती है। भगवत्प्राप्ति में अत्यन्त प्रयत्न करने की अपेक्षा बतलाने के लिए शास्त्रों ने भगवान् को अत्यन्त दुर्लभ कहा है, निराशा मिटाकर उत्साह बढ़ाने के लिए भगवान् को अत्यन्त सुगम भी कहा है-
"दूरात्सुदूरे अन्तिकात् तदु अन्तिके च ।"
भगवान् दूर-से-दूर और समोप से भी समीप हैं।
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