श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )-
आकाश में विष्णु के ५ नित्य अवतार हैं-
(१) मत्स्य या विराट्-आकाश में मत्स्य या द्रप्स (विन्दु) की तरह १०० अरब ब्रह्माण्ड तैर रहे हैं। हमारे ब्रह्माण्ड में भी १०० अरब तारा तैर रहे हैं। (५/३ में सन्दर्भ) प्रत्येक का अधिष्ठान विराट् है (पुरुष सूक्त, वाज यजु, ३१/५)।
द्रप्सश्चस्कन्द पृथिवीमनुद्याम्। (ऋक्,१०/१७/११, अथर्व, १८/४/२८, वाज. यजु. १३/५, तैत्तिरीय सं. ३/१/८/३, ४/२/८/२, मैत्रायणी संहिता, २/५/१०, ४/८/९, काण्व सं. १३/९, १६/१५,३५/८, शतपथ ब्रा. ७/४/१/२०)
इन तैरते पिण्डों को मत्स्य, मण्डूक, ग्राह आदि भी कहा है जो अलग अलग स्तर के पिण्ड हैं।
समुद्राय शिशुमारान् आलभते पर्जन्याय मण्डूकान् अद्भ्यो मत्स्यान् मित्राय कुलीपयान् वरुणाय नाक्रान्॥ (वाज. यजु, २४/२१)।
पुरोळा इत्तुर्वशो यक्षुरासीद्रा ये मत्स्यासो निशिता अपीव॥ (ऋक्, ७१/८/६)
(२) यज्ञ अवतार-विष्णु को यज्ञ कहा गया है। गीता (३/१०, १६) के अनुसार यज्ञ वह कर्म है जिससे चक्र में उपयोगी वस्तु का निर्माण होता है। सृष्टि निर्माण के ९ सर्ग कहे गये हैं (मूल अव्यक्त को मिला कर १० होते हैं)। प्रत्येक सर्ग का निर्माण चक्र का समय ९ प्रकार की काल-माप है-ब्राह्म, प्राजापत्य, बार्हस्पत्य, दिव्य, पैत्र, सौर, नाक्षत्र, चान्द्र, सावन (सूर्य सिद्धान्त, १४/१)। मनुष्य के यज्ञ भी इन्हीं काल चक्रों में होते हैं-दिन, मास, वर्ष। निर्माण के लिये फैला पदार्थ जल है, निर्मित पदार्थ जो सीमा बद्ध है, भूमि है। बीच का पदार्थ मेघ (जल+वायु मिश्रण) या वराह (जल + स्थल का जीव) है। अतः ९ सर्गों के लिए ९ मेघ होंगे।
(३) वराह अवतार-आकाश में इसके ५ रूप हैं। ३ धामों के ३ अन्तरिक्षों में मूल पदार्थ दीखता है जिससे आदि हुआ, अतः इनको आदित्य कहते हैं। स्वायम्भुव, परमेष्ठी, सौर मण्डलों के आदित्य क्रमशः अर्यमा, वरुण, मित्र हैं-
तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीरुत द्यून्त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम् ।
ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ॥ (ऋग्वेद २/२७/८)
वराह के ५ स्तर हैं-(१) आदि वराह-विश्व का मूल रूप अर्यमा (ऋक्, ९/९६/६)। (२) यज्ञ वराह-ब्रह्माण्ड का निर्माण-अवस्था (ऋक्, ९/९७/७)। निर्माण विनाश का क्रम यज्ञ अवतार है।
(३ ) श्वेत वराह-सौर मण्डल में सूर्य निर्माण के बाद प्रकाश की उत्पत्ति हुयी अतः यह श्वेत वराह हुआ (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/१२)। (४) जिस क्षेत्र के पदार्थ के घनीभूत होने से पृथ्वी बनी वह भू वराह है, इसका आकार पृथ्वी से प्रायः १००० गुणा है। वायु पुराण (६/१२ के अनुसार यह सूर्य से १०० योजन ऊंचा और १० योजन मोटा है। पृथ्वी सूर्य व्यास की इकाई में १०८-१०९ योजन दूर है अतः यहां योजन का अर्थ सूर्य व्यास है। पृथ्वी का आकार १/१०८ योजन होगा अतः यह वराह का १/११०० भाग होगा। (५) पृथ्वी का आवरण रूप वायुमण्डल ही एमूष वराह है (शतपथ ब्राह्मण, १४/१/२/११)।
(४) कूर्म-ब्रह्माण्ड का आधार कूर्म कहा जाता है, क्योंकि यह काम करता है (शतपथ ब्राह्मण, ७/५/१/५)। यह ब्रह्माण्ड का १० गुणा है। इसमें केवल किरणें हैं अतः ब्रह्मवैवर्त्त पुराण, प्रकृति खण्ड, अध्याय ३ में इसे गोलोक और ब्रह्माण्ड को महाविष्णु रूप विराट् बालक कहा गया है।
(५) वामन-सौर मण्डल में सूर्य का पिण्ड ही वामन है। सूर्य को मापदण्ड या योजन मानने पर इसके रथ (शरीर = सौर मण्डल) का विस्तार १ कोटि ५७ लाख योजन कहा गया है। ठोस ग्रहों का क्षेत्र मंगल कक्षा तक दधि-वामन कहा है, यह भागवत पुराण में दधि समुद्र का आकार है।
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