१:-न ब्राह्नणस्स पहरेय्य नास्स मुञ्चेथ ब्राह्नणो। धी ब्राह्नणस्य हंतारं ततो धी यस्स मुञ्चति।।
( ब्राह्मणवग्गो श्लोक ३) ‘ब्राह्नण पर वार नहीं करना चाहिये। और ब्राह्मण को प्रहारकर्ता पर कोप नहीं करना चाहिये। ब्राह्मण पर प्रहार करने वाले पर धिक्कार है।’
२:- ब्राह्मण कौन है:- यस्स कायेन वाचाय मनसा नत्थि दुक्कतं। संबुतं तीहि ठानेहि तमहं ब्रूमि ब्राह्नणं।। ( श्लोक ५) ‘जिसने काया,वाणी और मन से कोई दुष्कृत्य नहीं करता,जो तीनों कर्मपथों में सुरक्षित है उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।
३:- अक्कोधनं वतवन्तं सीलवंतं अनुस्सदं। दंतं अंतिमसारीरं तमहं ब्रूमि ब्राह्नणं।। अकक्कसं विञ्ञापनिं गिरं उदीरये। याय नाभिसजे किंचि तमहं ब्रूमि ब्राह्नणं।। निधाय दंडभूतेसु तसेसु थावरेसु च। यो न हंति न घातेति तमहं ब्रूमि ब्राह्नणं।। ( श्लोक ७-९)’जो क्रोधरहित,व्रती,शीलवान,वितृष्ण है और दांत है, जिसका यह देह अंतिम है;जिससे कोई न डरे इस तरह अकर्कश,सार्थक और सत्यवाणी बोलता हो;जो चर अचर सभी के प्रति दंड का त्याग करके न किसी को मारता है न मारने की प्रेरणा करता है- उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूं।।’
४:- गुण कर्म स्वभाव की वर्णव्यवस्था:- न जटाहि न गोत्तेन न जच्चा होति ब्राह्मणो। यम्हि सच्च च धम्मो च से सुची सो च ब्राह्मणो।। ( श्लोक ११) ‘ न जन्म कारण है न गोत्र कारण है, न जटाधारण से कोई ब्राह्मण होता है। जिसमें सत्य है, जो पवित्र है वही ब्राह्मण होता है।।
५:- आर्य धर्म के प्रति विचार:- धम्मपद, अध्याय ३ सत्संगति प्रकरण :प्राग संज्ञा:- साहु दस्सवमरियानं सन् निवासो सदा सुखो।( श्लोक ५) “आर्यों का दर्शन सदा हितकर और सुखदायी है।” धीरं च पञ्ञं च बहुस्सुतं च धोरय्हसीलं वतवन्तमरियं। तं तादिसं सप्पुरिसं सुमेधं भजेथ नक्खत्तपथं व चंदिमा।। ( श्लोक ७) ” जैसे चंद्रमा नक्षत्र पथ का अनुसरण करता है, वैसे ही सत्पुरुष का जो धीर,प्राज्ञ,बहुश्रुत,नेतृत्वशील,व्रती आर्य तथा बुद्धिमान है- का अनुसरण करें।।” “तादिसं पंडितं भजे”- श्लोक ८ वाक्ताड़न करने वाले पंडित की उपासना भी सदा कल्याण करने वाली है।।”एते तयो कम्मपथे विसोधये आराधये मग्गमिसिप्पवेदितं” ( धम्मपद ११ प्रज्ञायोग श्लोक ५) ” तीन कर्मपथों की शुद्धि करके ऋषियों के कहे मार्ग का अनुसरण करे” धम्मपद पंडित प्रकरण १५/ में ७७ पंडित लक्षणम् में श्लोक १:- “अरियप्पवेदिते धम्मे सदा रमति पंडितो।।” सज्जन लोग आर्योपदिष्ट धर्म में रत रहते हैं।”
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