परमहंस सत्यानन्द सरस्वती- mystic power - तन्त्र शास्त्र में छः मुख्य चक्रों का वर्णन किया गया है । छः मुख्य चक्रों के अतिरिक्त शरीर में अन्य कई उपचक्र हैं इन उपचक्रों में प्रमुख हैं, विन्दु विसर्ग या विन्दु चक्र, ललना चक्र तथा नासिकाग्र चक्र इस प्रकार शरीर में अनेक उपचक्रों के नाम अलग-अलग हैं और कुछ के नाम शरीर के अंगों के साथ जुड़े होते हैं। तन्त्रशास्त्र के शरीर विज्ञान में जिन छः प्रमुख चक्रों का वर्णन किया जाता है,उनका सम्बन्ध पंचतत्त्वों और मनस् तत्त्वों के साथ रहता है। ये चक्र सृष्टि के विकासक्रम को दशति हैं सबसे नीचे स्थित मूलाधार चक्र, पृथ्वी तत्त्व का और सबसे ऊपर स्थित आज्ञा चक्र मनसू तत्त्व का प्रतीक है कपाल-शीर्ष में स्थित सहस्नार चक्र परा अनुभूति का केन्द्र है, शिव का केन्द्र है । चेतना या शक्ति का रूपान्तरण जब एक अव्यक्त चेतना या एक अव्यक्त शक्ति अपने आपको किसी खूप में व्यक्त करना चाहती है, तो उसकी स्वाभाविक स्थिति में, अवस्था में रूपांतरण होता है जिस प्रकार ,000 वोल्ट की विद्युत शक्ति को ट्रांसफार्मर द्वारा नीचे लाकर 240 या 220 वोल्ट की विद्युत शक्ति प्राप्त होती है, ठीक उसी प्रकार अव्यक्त चेतना और अव्यक्त शक्ति को रूपान्तरित करते-करते विभिन्न तत्त्वों की अनुभूति होती है । अव्यक्त का मूल केन्द्र सहस्तार माना गया है । सहस्नार में शिव-शक्ति का मिलन अव्यक्त, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान अवस्था का प्रतीक है । दृश्य जगत में अव्यक्त की प्रथम अभिव्यक्ति महत् रूप में होती है महत् तंत्त्व का विस्तार मनश्चतुष्ट्य (मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार) के रूप में हो कर सूक्ष्म शरीर में आज्ञा चक्र या गुरु चक्र के रूप में प्रकट होता है। तल्श्चातू शक्ति तत्त्व की परिणति आज्ञा चक्र के रूप से विशुद्धि चक्र के रूप में होती है। विशुद्धि में आकाश तत्त्व का अनुभव व्याप्त है । शक्ति की यह परिणति या रूपान्तरण विशुद्धि (आकाश तत्त्व) से अनाहत (वायु तत्त्व), अनाहत से मणिपुर (अग्नि तत्त्व), अणिपुर से स्वाधिष्ठान (जल तत्त्व), स्वाधिष्ठान से मूलाधार (पृथ्वी तत्त्व) तक इस दृश्य जगत में दिखलाई देता है । मूलाधार में व्यक्त शक्ति कुण्डलिनी रूप धारण कर प्रकृति में स्थित होकर मनुष्य को विषयों की ओर आकर्षित करती है । यह प्रक्रिया अव्यक्त से व्यक्त की ओर क्रमविकास को दर्शाती है। प्रत्यावरत्तन और बन्धनमुक्ति अंततः शक्ति पृथ्वी तत्त्व में पहुँचकर मनुष्य को बंधनमुक्त बना देती है अपनी चेतना को, अपनी शक्ति को व्यक्त से अव्यक्त की ओर ले जाने की क्षमता मानव में यदि हो, तो यह प्रत्यावर्तन या वापसी ही उसे बन्धनमुक्त करती है । इसी प्रत्यावर्त्तन प्रक्रिया को स्पष्ट करना तन्त्रशास्त्र का वास्तविक उद्देश्य है । अभिमन्यु की तरह मनुष्य माया के चक्रव्यूह में प्रवेश कर चुका है और संघर्ष चल रहा है । कभी काम, कभी क्रोध और कभी मोह जैसे अनेक शत्रु मनुष्य पर प्रहार कर रहे हैं । क्या यह चक्रव्यूह नहीं है ? तन्त्र शास्त्र इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने की प्रक्रिया निर्दिष्ट करता है। इस प्रकार यहाँ पर दो विचार दिखाई दे रहे हैं प्रथम- चक्रव्यूह में प्रवेश कर मनुष्य फंसा हुआ है, द्वितीय- चक्रव्यूह से पुरुषार्य के माध्यम से ही बाहर निकल सकता है । मनुष्य को बाण चलाना है, काम, क्रोध, मोह एवं अधोमुखी, पतन की ओर ले जाने वाली शक्तियों पर उनका निरोध कर, उन्हें निष्किय बनाकर प्रव्यावर्त्तन का मार्ग प्रशस्त करना है, स्वयं को बन्धनमुक्त करना है तन्त्र के अनुसार बन्धन की इस अवस्था में मनुष्य पशु रूप में है और प्रकृति या शक्ति का पाश ही वह बन्धन है पाश को, बन्धन को काटकर पशुत्व की अवस्था से युक्त होना ही तन्त्र शास्त्र का लक्ष्य है। पंचकोशों और सप्तचक्रों का सम्बन्ध पंचकोश और सप्तचक्र एक निश्चित प्रतिकृति के अनुसार परस्पर सम्बद्ध हैं । मूलाधार और स्वाधिष्ठान का सम्बन्ध है अन्ममय कोश से, मणिपुर का प्राणमय कोश से, अनाहत का मनोमय कोश से और विशुद्धि और आज्ञा का सम्बन्ध है विज्ञाननय कोश से सहस्नार का सम्बन्ध आनन्दमय कोश से है, जो परा अवस्था, परा अनुभूति है इस संरचना के अनुसार कोश और चक्र आपस में सम्बन्धित हैं।
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