श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)-
Mystic Power- कलिकाल-सर्वज्ञ नाम से प्रसिद्ध हेमचन्द्राचार्य के योगशास्त्र के अनुसार गृहस्थों के ३५ नियम हैं-
(१) न्याय से धन कमाना, (२) शिष्ट पुरुषों के आचार की प्रशंसा, अनुकरण,
(३) विवाह सम्बन्ध अपने कुल तथा समान शील किन्तु भिन्न गोत्र में, (४) पाप से डरना,
(५) देशाचार का पालन, (६) राजा या अन्य की निदा नहीं, (७) बिल्कुल खुला या गुप्त स्थान में घर नहीं हो,
(८) घर से बाहर निकलने के बहुत द्वार नहीं हों, (९) सदाचारी अनुष्यों की संगति, (१०) माता पिता की सेवा,
(११) अशान्त या विवाद वाले स्थान में नहीं रहे, (१२) निन्दनीय काम की प्रवृत्ति नहीं करे, (१३) आय अनुसार व्यय,
(१४) अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार वस्त्र पहने,
(१५) बुद्धि के ८ गुणों से युक्त हो कर धर्म श्रवण करे। बुद्धि के ८ गुण हैं-श्रवण की इच्छा, श्रवण, ग्रहण, धारण, चिन्तन, अपोह (उलटा तर्क), अर्थ ज्ञान, तत्त्व ज्ञान।
(१६) अजीर्ण (अनपच) होने पर भोजन नहीं करे, (१७) नियत समय पर सन्तोष सहित भोजन,
(१८) ४ पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का सेवन इस प्रकार करे कि किसी को बाधा नहीं हो, (१९) अतिथि, साधु, दीन का यथायोग्य सत्कार,
(२०) दुराग्रह नहीं करना, (२१) गुण की प्रशंसा और उसका ग्रहण, (२२) देश-काल के विपरीत आचरण नहीं करे-नियम कानून का पालन,
(२३) अपनी शक्ति और अशक्ति को समझ कर ही काम करे, (२४) सदाचारी तथा ज्ञानी की भक्ति करे,
(२५) जिनका दायित्व अपने ऊपर है, उनका पालन करे, (२६) दीर्घदर्शी-आगे पीछे का सोच कर काम करे,
(२७) अपने हित-अहित को समझे, (२८) कृतज्ञ हो, (२९) लोकप्रिय हो, सामाजिक सेवा आदि,
(३०) अनुचित काम में लज्जा, (३१) दयालु, (३२) सौम्य और शान्त रहे, (३३) परोपकार में पीछे नहीं हटे,
(३४) काम क्रोध आदि ६ शत्रुओं का त्याग। ये ६ शत्रु हैं- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य।
(३५) इन्द्रियों को वश में रखे।
न्याय सम्पन्न विभवः, शिष्टाचार प्रशंसकः।
कुलशील समैः सार्द्धं, कृतोद्वाहोन्यगोत्रजैः॥।४७॥
पापभीरुः प्रसिद्धञ्च, देशाचारं समाचरन्।
अवर्ण्णवादी न क्वापि, राजादिषु विशेषतः॥४८॥
अनतिव्यक्त गुप्ते च, स्थाने सुप्रातिवेश्मिके।
अनेक निर्गमद्वार, विवर्जित निकेतनः॥४९॥
कृतसङ्गः सदाचारैः, माता-पित्रोश्च पूजकः।
त्यजन्नुपप्लुतं स्थानं, अप्रवृत्तश्च गर्हिते॥५०॥
व्ययमायोचितं कुर्वन्, वेषं वित्तानुसारतः।
अष्टभिर्धीगुणैर्युक्तः, शृण्वानो धर्ममन्वहम्॥५१॥
अजीर्णे भोजनत्यागी, काले भोक्ता च सात्म्यतः।
अन्योप्न्याऽप्रतिबन्धेन, त्रिवर्गमपि साधयन्॥५२॥
यथावदतिथौ साधौ, दीने च प्रतिपत्तिकृत्।
सदाऽनभिनिविष्टश्च, पक्षपाती गुणेषु च॥५३॥
अदेशाकालयोश्चर्यां, त्यजन् जानन् बलाबलम्।
वृत्तस्थज्ञान वृद्धानां, पूजकः पोष्यपोषकः॥५४॥
दीर्घदर्शी विशेषज्ञः, कृतज्ञो लोकवल्लभः।
सलज्जः सदयः सौम्यः, परोपकृति कर्मठः॥५५॥
अन्तरङ्गारिषड्वर्ग, परिहार परायणः।
वशीकृतेन्द्रियग्रामो, गृहिधर्माय कल्पते॥५६॥
(योगशास्त्र, १/४७-५६)
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