‘ज्ञ’ वर्ण के उच्चारण पर शास्त्रीय दृष्टि 

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )-

(“G” की भाँति ज और ग दोनों ही …याग-यजन, विसर्ग-विसर्जन) संस्कृत भाषा मेँ उच्चारण की शुद्धता का अत्यधिक महत्त्व है। शिक्षा व व्याकरण के ग्रंथोँ मेँ प्रत्येक वर्ण के उच्चारण स्थान और ध्वनि परिवर्तन के आगमलोपादि नियमोँ की विस्तार से चर्चा है। फिर भी “ज्ञ” के उच्चारण पर समाज मेँ बडी भ्रांति है। भ्रान्ति – ज्+ञ्=ज्ञ कारणः-‘ज्’ चवर्ग का तृतीय वर्ण है और ‘ञ्’ चवर्ग का ही पंचम वर्ण है। जब भी ‘ज्’ वर्ण के तुरन्त बाद ‘ञ्’ वर्ण आता है तो ‘अज्झीनं व्यञ्जनं परेण संयोज्यम्’ इस महाभाष्य वचन के अनुसार ‘ज् +ञ’ (ज्ञ) इस रुप में संयुक्त होकर ‘ज्य्ञ्’ ऐसी ध्वनि उच्चारित होनी चाहिए। भ्रान्ति उन्मूलन – “ज्ञ”वर्ण का यथार्थ तथा शिक्षा व्याकरण सम्मत शास्त्रोक्त उच्चारण ‘ग्ञ्’ ही है। जिसे परम्परावादी लोग सदा से ही “लोक” व्यवहार करते आये हैँ। कारणः- तैत्तिरीय प्रातिशाख्य २/२१/१२ का नियम क्या कहता है- स्पर्शादनुत्तमादुत्तमपराद् आनुपूर्व्यान्नासिक्याः।। इसका अर्थ है- अनुत्तम, स्पर्श वर्ण के तुरन्त बाद यदि उत्तम स्पर्श वर्ण आता है तो दोनोँ के मध्य मेँ एक नासिक्यवर्ण का आगम होता है। यही नासिक्यवर्ण शिक्षा तथा व्याकरण के ग्रंथोँ मेँ यम के नाम से प्रसिद्ध है। ‘तान्यमानेके’ (तैत्तिरीय प्रातिशाख्य, २/२१/१३) इस नासिक्य वर्ण को ही कुछ आचार्य ‘यम’ कहते हैँ। प्रसिद्ध शिक्षा ग्रन्थ ‘नारदीय शिक्षा’ मेँ भी यम का उल्लेख है- अनन्त्यश्च भवेत्पूर्वो ह्यन्तश्च परतो यदि। तत्र मध्ये यमस्तिष्ठेत्सवर्णः पूर्ववर्णयोः। औदव्रजि के ‘ऋक् तन्त्र व्याकरण’ नामक ग्रंथ में भी ‘यम’ का स्पष्ट उल्लेख है- ‘अनन्त्यासंयोगे मध्ये यमः पूर्वस्य गुणः’ अर्थात् वर्ग के शुरुआती चार वर्णो के बाद यदि वर्ग का पाँचवाँ वर्ण आता है तो दोनो के बीच ‘यम’ का आगम होता है, जो उस पहले अनन्तिम-वर्ण के समान होता है। प्रातिशाख्य के आधार पर यम को परिभाषित करते हुए सरल शब्दों मेँ यही बात भट्टोजी दीक्षित भी लिखते हैं- “वर्गेष्वाद्यानां चतुर्णां पंचमे परे मध्य यमो नाम पूर्व सदृशो वर्णः प्रातिशाख्ये प्रसिद्धः” -सिद्धान्त कौमुदी, १२/(८/२१ सूत्र पर) भट्टोजी दीक्षित यम का उदाहरण देते हैं। पलिक्क्नी ‘चख्खनतुः’ अग्ग्निः ‘घ्घ्नन्ति’। यहाँ प्रथम उदाहरण में क् वर्ण के बाद न् वर्ण आने पर बीच में क् का सदृश यम कँ (अर्द्ध) का आगम हुआ है। दूसरे उदाहरण में खँ कार तथैव गँ कार यम, घँ कार यम का आगम हुआ है। अतः स्पष्ट है कि यदि अनुनासिक स्पर्श वर्ण के तुरंत बाद अनुनासिक स्पर्श वर्ण आता है तो उनके मध्य मेँ अनुनासिक स्पर्श वर्ण के सदृश यम का आगम होता है। प्रकृत स्थल मेँ- ज् + ञ् इस अवस्था मेँ भी उक्त नियम के अनुसार यम का आगम होगा। किस अनुनासिक वर्ण के साथ कौन से यम का आगम होगा। विस्तार भय से सार रुप दर्शा रहे हैं। तालिक देखें- स्पर्श अनुनासिक वर्ण यम क् च् ट् त् प् कँ् ख् छ् ठ् थ् फ् खँ् ग् ज् ड् द् ब् गँ् घ् झ् ढ् ध् भ् घँ् यहाँ यह बात ध्यातव्य है कि यम के आगम में जो ‘पूर्व सदृश’ पद प्रयुक्त हुआ है , उसका आशय वर्ग के अन्तर्गत संख्या क्रमत्व रुप सादृश्य से है सवर्णरुप सादृश्य से नहीं। ये बात उव्वट और माहिषेय के भाष्य वचनों से भी पूर्णतया स्पष्ट है ।जिसे भी हम विस्तारभय से छोड रहे हैं। अस्तु हम पुनः प्रक्रिया पर आते हैँ- ज् ञ् इस अवस्था मेँ तालिका के अनुसार ‘ग्’ यम का आगम होगा- ज् ग् ञ् ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर चोःकु  (अष्टाध्यायी सूत्र, ८/२/३०) सूत्र प्रवृत्त होता है। ‘ज्’ चवर्ग का वर्ण है और ‘ग’ झल् प्रत्याहार मेँ सम्मिलित है, अतः इस सूत्र से ‘ज्’ को कवर्ग का यथासंख्य ‘ग्’ आदेश हो जायेगा। तब वर्णों की स्थिति होगी- ” ग् ग् ञ् ” इस प्रकार हम देखते हैँ कि ज् का संयुक्त रुप से ‘ज्ञ’ उच्चारण की प्रक्रिया में उपर्युक्त विधि से ‘ग् ग् ञ्’ इस रुप से उच्चारण होता है। यहाँ जब ज् रुप ही शेष नहीं रहा तो ‘ज् ञ्’ इस ध्वनिरुप में इसका उच्चारण कैसे हो सकता है? अतः ‘ज्ञ’ का सही एवं शिक्षा व्याकरण शास्त्र सम्मत उच्चारण ‘ग्ञ्’ ही है।



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