ईश् का आवास

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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श्री सुशील जालान (ध्यान योगी )- MysticPower- ईशोपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद का चालीसवां अध्याय है, जिसे ईशावास्योपनिषद् भी कहा गया है। उपनिषदों में इसे प्रथम स्थान प्राप्त है। इस उपनिषद् में ईश्वर के गुणों का, आवास का, वर्णन है। इसमें केवल 18 ऋचाएं हैं, और यह उपनिषद् वेदांत का सत् मान जाता है। इसकी प्रथम ऋचा का चतुर्थांश है - "ईशावास्यमिदं(ॅं्)सर्वम्" -- ईशोपनिषत् (01) [ ईश् + आवास्यम् + इदं + ॅं् + सर्वम् ] इसमें बताया गया है कि ईश् का आवास कहाँ है।   ईश् का बोध ईश्वर के रूप में किया जाता है, अर्थात्, ईश् जो वर को धारण करता है। ईश्वर का पदच्छेद है, ईश् + वर, अर्थात्, "ई", है काम-भाव और, "श्", है शमन। - "ईश्" का अर्थ हुआ, काम-भाव का शमन। "व्", है स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित कूट बीज वर्ण, जल तत्त्व, जो भवसागर का द्योतक है, "र", है मणिपुर चक्र, अग्नि तत्त्व, जिसमें समस्त सिद्धियाँ मणियों के रूप में विद्यमान हैं। - "वर" का अर्थ हुआ, भाव + विशिष्ट सिद्धियाँ, संकल्प के रूप में। ईश्वर का अर्थ हुआ, - जब योगी निष्काम होता है, तब उसकी चेतना "ईश्" में स्थित होती है। विशिष्ट अर्थ हुआ ईश् का आवास निष्काम चेतना में है। - निष्काम योगी भावनाओं के सागर, स्वाधिष्ठान चक्र और अनेक सिद्धियों की मंजुषा, मणिपुर चक्र, को पार कर हृदयस्थ महर्लोक/महतत्त्व में प्रवेश करता है जहाँ बन्धनकारी जीवभाव का त्याग कर अपने चैतन्य आत्मस्वरूप में स्थित होता है। - यह चैतन्य तत्त्वधारी आत्मा ही " ईश्" है, निर्मल है, निराकार और निर्गुण है। यहाँ यह "हं तथा विसर्ग (:)" को धारण करता है। स्वाधिष्ठान का 'व' + मणिपुर का 'र' इस ईश् का ऐश्वर्य है। यही ईश् ऐश्वर्य का त्याग कर क्रमशः "जन:" और "तप:" लोकों का अतिक्रमण कर "सत्यम्" लोक/तत्त्व में प्रवेश करता है। * इदं का अर्थ है यह/यहाँ, औरॅं् का अर्थ है चन्द्रबिन्दु की अर्धमात्रा। - यह अर्ध चन्द्रबिन्दु ओंकार में तीन मात्राओं [ अ उ म ] के पश्चात् की अर्धमात्रा है, जिसमें अनादि अनंत शिव का, सत्य का और निर्गुण परम् ब्रह्म का निवास है। इस अर्धचंद्रबिन्दु से सगुण और साकार ब्रह्म रूप प्रकृतिपुरुषात्मक जगत की उत्पत्ति होती है, संचालन होता है और लोप होता है। * मूलाधार चक्र से निष्काम ध्यान-योगी कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत कर "ईश्" के आवास मह: लोक, अनाहत चक्र में और इससे ऊर्ध्व सत्यम् लोक, सहस्रार-आज्ञा चक्र, में ले जाता है। * सहस्रार-आज्ञा में वह चैतन्य आत्मा की "(अ)हं" उपाधि त्याग कर "परम्" उपाधि धारण करता है और "पराशक्ति" से युक्त होता है। सत्यम् में सभी लोक, सभी भाव और सभी सिद्धियां समाहित हैं। पराशक्ति युक्त योगी ही मणिपुर में स्थित मणि-मंजूषा खोलने में समर्थ होता है और मह:/जन: लोक में उनका उपयोग करता है, ईश्वर के ऐश्वर्य रूप में। यहां, अनाहत चक्र में, परा अपरा का योग है, जबकि सहस्रार-आज्ञा चक्र, सत्यम् लोक में, परा ही प्रकट है। यह चैतन्य आत्मा सभी जीवों में स्थित है, सर्वम् पद का अर्थ हुआ। लेकिन चैतन्य तत्त्व मनुष्य योनि में ही विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है आत्मा में, जब आत्मा जीवभाव का त्याग करता है अनाहत चक्र में। केवल निष्काम होने मात्र से और विशिष्ट योग साधना-उपासनाओं से, चैतन्य आत्मा का तथा चैतन्य परब्रह्म का बोध संभव है। - चैतन्य तत्त्व ही पराशक्ति की सभी विशिष्ट सिद्धियों को धारण करता है, जिसका उपयोग सक्षम ध्यान-योगी करते हैं, धर्म अधर्म विवेक का विचार कर।  



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