श्री अनिल वोकिल (ज्ञानेंद्रनाथ)- द्रौपदी-स्वयंवर के प्रसंग से कृष्ण का सम्बन्ध पांडवोके साथ आया है। इसपर विस्तृत प्रस्तुति फिर कभी। आगे चलकर युधिष्ठिर द्यूत खेले। पत्नी को भी खो बैठे। युधिष्ठिर द्वारा का इसका समर्थन ये है कि; "द्यूत खेलना राजा का धर्म है। राजा "नल" भी द्यूत खेले थे। कौरव-पांडवो के द्युत के समय कृष्ण उपस्थित नही थे। जब इस विषय मे वे जान गये; तब वे कहते है; "यदी मैं उस समय होता तो; यह द्युतही ना होने देता।" क्या अर्थ है इसका? अध्याहृत अर्थ यही है कि; "जुआ कभी भी धर्म हो ही नही सकता। नल ; द्यूत अवश्य खेले थे पुष्कर के साथ। पर पत्नी को दावपर नही लगाया था। हारने पर दमयंती को लेकर चले गये थे। समष्टी-हित के लिए जुआ; घातक है। वह धर्म हो नही सकता।" क्या यह दृष्टिकोन समष्टी-हित के लिए "विराट" नही? (प्रिय साधक-गणो; इसके बाद का विवेचन गौर से पढे। "विराट कृष्ण" समझने के लिए) बाद मे पांडव-वनवास। फिर वनवास समाप्ती पर श्रीकृष्ण का "दूत" के नाते ; पांडवों की ओरसे; कौरवो के दरबार में जाना यह प्रसंग आते है। दरबार में जाने से पहले पांडवो से उनकी चर्चा हो रही थी । धर्मराज ; मात्र उदरभरण के लिए पांच गाव पर संधी करने को राजी थे। वैसे प्रस्ताव कौरवो की सभा मे रखने को वे कृष्ण को कहते है। तब तुरंत अपना मुक्त-केशसम्भार कृष्ण को दिखाकर पांचाली क्रोध से कहती है; "दौत्य के समय ; हे श्रीकृष्ण; इसका स्मरण रखना। यदी तुम चूक गये तो; मैं अभिमन्यु को सेनापति बनाकर युद्ध छेडूगी । तब श्रीकृष्ण का जबाब यह है कि ; "हे पांचाली; इसका विस्मरण मुझे कभी भी नही हुआ था ; ना होगा। संधि हो या ना हो बाद मे किसी को ये कहने का मौका मैं नही देना चाहता कि ; पांडवों की ओर से चर्चा के लिए कोई आया ही नही।" क्या है कृष्ण के इस वचन का अर्थ? सरल सरल अर्थ यही है कि; "अरे; यहां समझोता किसे चाहिये? मुझे तो युद्ध ही चाहिये।" दुर्जनों के नाश के लिए समझोता नही; युद्धही उचित यही श्रीकृष्ण की पक्की धारणा इसमे नही दिखती? भविष्य का पूर्ण-पूर्वनियोजन उनके पास तैयार था। और वैसा उन्होने व्यवहार में प्रत्यक्ष दिखाया है। मित्रो; क्या उनका यह "विराट रूप" नही? अगला भाग अगली प्रस्तुति मे। सभी प्रसंगो मे श्रीकृष्ण का विराट रूप कैसे प्रतीत होता है?-यह आप अब समझे होंगे ना? इस प्रस्तुति मे अध्यात्मिक विवेचन बिलकुल नही किया जा रहा है; यह बात भी जान लीजीए। अस्तु ।
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