श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ)
mysticpower - माया, मायावी और इन्द्रजाल देवों में माया करने की शक्ति : ...
अथर्ववेद में उल्लेख है कि देवों में भी असुरों की तरह माया करने की शक्ति है। इससे ज्ञात होता है कि माया करने में असुर विशेष निपुण होते थे । माया का अभिप्राय केवल जादू ही नहीं है, अपितु माया शब्द कलाकौशल, प्रवीणता, दक्षता और हुनर का भी बोधक है । असुर कलाकौशल के कार्यों में विशेष चतुर थे। उनके कार्य आश्चर्यजनक होते थे। ऐसे कार्यों के कारण उन्हें मायावी कहते थे ।(अथर्ववेद ३/९/४)
इन्द्रजाल : संसार का सबसे पहला मायावी इन्द्र हुआ है। उसके नाम से ही इन्द्रजाल नाम पड़ा है। माया के लिए प्राचीन शब्द इन्द्रजाल भी है। इन्द्र का अभिप्राय यहाँ पर ईश्वर से है। ईश्वर ने संसार की जो उत्पत्ति की है, वह उसका काम जादू का सा है । उसने जाल की तरह यह सृष्टि फैला दी है । अतः इसे इन्द्रजाल कहते हैं। इसका विस्तृत विवरण अथववेद में मिलता है ।(अथर्ववेद ८/८/१ से २४).इन्द्रजाल का वर्णन करते हुए कहा गया है कि अन्तरिक्ष जाल है। दिशाएँ उसके डंडे हैं ।(अथर्ववेद ८/८/५) इन्द्रजाल से वह शत्रुओं को अपने बड़े जाल में फँसा लेता है ।(अथर्ववेद ८/८/४)इन्द्र का जाल अर्थात् इन्द्रजाल बहुत बड़ा है । इन्द्र अपने अस्त्रों के जाल से शत्रुओं की सारी सेना को अपने वश में कर लेता है।(अथर्ववेद ८/८/६). यह सारा संसार इन्द्रजाल है । इस इन्द्रजाल से वह सभी शत्रुओं को अपने जाल में फँसा लेता है।(अथर्ववेद ८/८/८). इस मन्त्र से यह भी भाव व्यक्त होता है कि यह सारा संसार माया- जाल है और मनुष्य अपने कर्तव्य को भूलकर इस प्रपंच में फँसा रहता है। वेदान्तदर्शन में वर्णित माया का अभिप्राय इस मन्त्र में प्राप्त होता है। इन्द्रजाल में फँसने का परिणाम बताया गया है—अत्यधिक थकान, निःश्रीकता, अवर्णनीय दुःख, घोर परिश्रम, आलस्य और मोह । जो इन्द्रजाल में फँसता है, उसे ये दुःख प्राप्त होते हैं।(अथर्ववेद ८/८/९)
असुरों ने विराट् को माया नाम से पुकारा । उन्होंने विराट् को दुहकर माया पाई। इस माया अर्थात् छल-प्रपञ्च से ही असुरों का काम चलता है ।(अथर्ववेद ८/१०/१से४). इससे ज्ञात होता है कि असुर छल-प्रपञ्च आदि से ही अपना काम चलाते हैं। माया के कार्यों में वेष बदलता, नया रूप धारण करना और अनेक विभिन्न शरीरों को धारण करना भी प्रमुख कार्य माना जाता था। अतएव आसुरी माया से असुर नए-नए रूप बना लेते थे।(अथर्ववेद ६/७२/१). माया के द्वारा अश्विनी का भी रूप धारण किया जाता था ।(अथर्ववेद २/२९/६). माया देवोचित कार्य नहीं है। अतएव इन्द्र ने असुरों की माया नष्ट की। (अथर्ववेद २०/८७/५).इससे ज्ञात होता है कि छल-प्रपंच आदि सज्जनों के काम नही है । अग्नि के लिए भी कहा गया है कि वह यातुधानों की दुःखद मायाओं को नष्ट करता है।(अथर्ववेद ८/३/२४). मायावी छल-प्रपंच करते हैं, इसलिए वे सभी वरुण से डरते हैं ।(अथर्ववेद ५/११/४).
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