श्री सुशील जालान-
प्राण और अपान वायु को 'सम' करने के उपरांत ध्यान-योगी सुषुम्ना नाड़ी को जाग्रत करता है। सूक्ष्म प्राण तत्त्व, मन और बुद्धि से परे, चेतना को प्रकाशित करता है हृदयाकाश में।
हृदयाकाश मुंड में दिखाई देता है अनाहत चक्र में। यहां जीवभाव का त्याग कर आत्मा अपने चैतन्य स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है।
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जीवभाव त्याग का अर्थ है जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति। यह मुक्तात्मा ही महान् आत्मा कहलाता है। यह निराकार है, निर्गुण है, निर्लिप्त है, निर्भाव और नि:शेष है। इसे ही नैष्कर्म्य सिद्धि भी कहते हैं। नहीं कोई कर्म, नहीं कोई कर्मफल, अर्थात् कर्मबंधन से मुक्ति।
मोक्ष का प्रथम सोपान है जन्म-मृत्यु चक्र के बंधन से मुक्ति। इस गुणातीत स्थिति विशेष में प्रमुख गुण है शान्ति। न कोई इच्छा, न किसी का भय, और न ही क्रोध। त्याग और वैराग्य ही इसके दो लोचन हैं।
यहीं पर महेश्वर नामक शिवलिंग स्थित है अपनी शक्ति विशेष उमा के साथ। ऊर्ध्वरेता ध्यान-योगी अपने चैतन्य आत्मा में इस शिवलिंग को धारण कर स्वयं महेश्वर पद पर आसीत् होता है।
उमा विशेष शक्ति है महेश्वर शिवलिंग की, जो अधिष्ठात्री देवी है 64 योगिनियों की। ध्यान-योगी, महेश्वर स्वरूप में, इन 64 योगिनियों को शक्तिरूप में उपयोग करने में सक्षम होता है।
"भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोक महेश्वरम्"
-- श्रीमद्भगवद्गीता (5.29)
अर्थात्,
भोक्ता + रं,
- भोक्ता, है वह सक्षम ध्यान-योगी, जो ऊर्ध्वरेता है,
- र्, है मणिपुर चक्र का कूट बीज वर्ण, अग्नि तत्त्व,
- ं, अनुस्वार है बिन्दु, शुक्रग्रह के समान चमकीला ऊर्ध्व
शुक्राणु, जो महर्लोक में प्रकट होता है।
अर्थ हुआ,
जो ऊर्ध्वरेता सक्षम ध्यान-योगी पुरुष अपने मणिपुर चक्र के अग्नि तत्त्व को जाग्रत कर, महर्लोक में अपने ऊर्ध्व किए शुक्राणु/बिन्दु में ध्यान केन्द्रित करता है, वह सभी लोकों का महान् ईश्वर है, सृजन, संचालन और संहार करने के संदर्भ में। यही यज्ञ है, यही तप है और है समस्त भोगों का उद्गम, सभी लोकों में।
ओंकार बाह्य केवल कुंभक प्राणायाम और एक विशेष योग क्रिया के साथ एक मंत्र विशेष के सिद्ध होने पर उमा प्रकट होती है, वासुकि नाग के फण के रूप में, अनेक सिद्धियों को मणियों के रूप में फण पर धारण कर, जिनका उपयोग महेश्वर रूपी ध्यान-योगी अपनी इच्छानुसार करता है।
अष्ट महासिद्धियां, अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, ईशित्व, वशित्व और प्रकाम्य, भी प्रकट होती हैं इस ध्यान-योगी के उपभोग, उपयोग के लिए।
उमा से परे केवल सर्वोच्च शक्ति परा है। परा परमेश्वर की प्रधान शक्ति है। जो ऊर्ध्वरेता सक्षम ध्यान-योगी महेश्वर पद में आसक्त नहीं होता है, वह योग्य है परम् पद का, पात्र है परा शक्ति के बोध का तथा अधिकारी है इस परा शक्ति को धारण करने का। यही परम् ब्रह्म है, परम् शिव है, परम् पुरुष हैं। इससे परे कुछ भी नहीं है, केवल कैवल्य है, अनादि-अनंत है।
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