मन्दिरों में स्वर्ण दान

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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डॉ. दिलीप कुमार नाथाणी (विद्यावाचस्पति)- हमारे भारत में प्राचीनकाल में यह परम्परा रही थी कि सामान्यजन विशेषकर अपनी भक्ति की उच्चावस्था में मन्दिरों में स्वर्ण, रजत, माणिक्यादि बहुमूल्य पदार्थों का दान किया करते थे। भित्तियों पर स्वर्ण की परत चढ़ाई जाती थी। आदि आदि यह विषय विशेष चर्चा का है। आज मैं इस पर प्रकाश डालूँगा भारतीय भाण्डतन्त्र की दृष्टि से देखा जाय तो वह इसे बिल्कुल सिरे से खारिज करेगा। जी हाँ ''सिरे से खारिज'' वह इसे अनुचित नहीं कहेगा अपितु कहेगा मैं भारतीय धर्मव देश का शत्रु इस कार्य को सिरे से खारिज करता हूँ'' वस्तुत: देखा जाय तो जब आपके कोष में हजारों रूपये होते हैं तो आप 10 रू मन्दिर में भेंट करते हैं अथवा किसी महान् तीर्थ स्थल पर गये तों 20 रू। अस्तु यह भारतीय सरल भक्त का मानक है। ऐसे में मन्दिरों में पुन: स्वर्णदान होना इस बात का प्रतीक है कि भारत में धन की मात्रा में वृद्धि हुई है। इसका प्रमाण क्या? 1. इस तथ्य का प्रथम प्रमाण है कि जब आपकी क्षमता मात्र 10—20 रूपये की है तो उसमें से कुछ की 100—200 होगी कुछ की ओर अधिक ऐसे में स्वर्णदान तो असम्भव है किन्तु स्वर्णदान हो रहा है जो कि धन की वृद्धि का प्रतीक है। इसका आंकलन ऐसे होगा कि जो लाख दो लाख दान दे सकता था वह स्वर्णदान की स्थिति में पहुँचा है। यह निश्चित है कि धन कभी भी वृद्धि मेंकिसी एक ही वर्ग में नहीं आता सभी वर्गों में तदनुसार वृद्धि होती है, यह अर्थशास्त्र का सामान्य नियम है। जैसे किसी जलाशय में जब जल अधिक हो जाता है तो वह अधिक जल निम्नगामी होकर अन्यान्य कूओं, वापीयों का पूर्ण करता है तथैव जब धन उच्चधनिक के पास वृद्धि को प्राप्त होगा तो वहाँ से वह निम्नगामी होगा ही होगा। वह धनिक रोकना चाहे तो भी नहीं रुक सकता। 2. द्वितीय प्रमाण यह है कि जब भारत में हिन्दू धर्म से सम्बन्धित ऐसा कार्य हो जो भविष्य में देश व धर्म की रक्षा में एक महत्त्वपूर्ण स्तम्भ के रूप में स्थापित हो रहा है तो निश्चित है कि सनातन द्रोहियों के सैनिकों के विभिन्न छावनियों यथा, लेखक, भाण्ड, पुरस्कारप्राप्त व्यक्तियों की गैंग, सुधारवादी, वेदपाखण्डी में से कोई न कोई एक अथवा दो अथवा सभी छावनियाँ आक्रमणकारी हो जाती हैं। ये दो प्रमाण पर्याप्त हैं शेष आप स्वयं समझने में सक्षम हैं। विशेष नोट:— आप सनातनी केवल तभी हैं जब आप, वेद—स्मृति—पुराण के अनुसार जीवन जीते हैं। जिन संगठनों में इन सिद्धान्तों का उपहास किया जाता है मूर्ति को विरोध किया जाता है। वे संगठन आपको सनातनता से दूर ले जा रहे हैं।  



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