शब्द-ब्रह्म

img25
  • मिस्टिक ज्ञान
  • |
  • 31 October 2024
  • |
  • 0 Comments

  श्री सुशील जालान   शब्द को विष्णु की माया भी कहा गया है, दुर्गा सप्तशती, देवी सूक्तम् में,   "विष्णु माया इति शब्दिता"   शब्दब्रह्म, स्वर और व्यंजन का योग है। आकाश तत्त्व का‌ गुण है शब्द और शब्द-ब्रह्म से सृष्टि का सृजन, संचालन और संहार किया जाता है। यही शब्द विष्णु की माया भी कहा जाता है। जगत् माया स्वरूप है,  स्थूल प्रकृति, पंचभूतात्मक और सूक्ष्म प्रकृति, त्रिगुणात्मक जीवभाव, का योग। https://www.mycloudparticles.com/ ✓  स्वरं/स्वरम्, पदच्छेद है, स् + व् + अ + र् + (ं)/म्   -  स्, है बाह्य जगत् की ऐषणाओं का त्याग कर मूलाधार चक्र, पृथ्वी तत्त्व, पर स्थित होना, अर्थात् सभी बाह्य वृत्तियों का शमन करना,   -  व्,  है स्वाधिष्ठान चक्र का कूट बीज वर्ण, जल तत्त्व, भवसागर, जिसमें सभी वृत्तियां समाहित हैं, जीवभाव के संग, https://pixincreativemedia.com/ -  स्व,  स् + व् + अ,  है स् और व् के योग में अ, अर्थात् स्थायित्व देना, यानि, मूलाधार चक्र को स्वाधिष्ठान चक्र तक खींच  कर इन दोनों चक्रों के योग में स्थित होना,   -  र,  र् + अ,  र् है मणिपुर चक्र का कूट बीज वर्ण, अग्नि तत्त्व, अ है र् को स्थिर करने के संदर्भ में,   -  म्,  है महर्लोक/अनाहत चक्र, वायु तत्त्व, -  (ं),  अनुस्वार है बिन्दु, जिसमें सगुण ब्रह्म समाहित है, महर्लोक में प्रकट होता है, शुक्रग्रह की तरह चमकीला, सक्षम ऊर्ध्वरेता ध्यान-योगी पुरुष का ऊर्ध्व शुक्राणु।   *  स्वर का अर्थ हुआ,   -  मणिपुर चक्र की अग्नि में स्वाधिष्ठान चक्र की जिस वृत्ति/कामना को धारण करते हैं, संकल्प करते हैं, उसके बाह्य जगत में  फलीभूत होने की क्षमता उपलब्ध होती है।   *  स्वरम्, अर्थ हुआ,   -  सुषुम्ना नाड़ी जाग्रत होती है मणिपुर चक्र से और महर्लोक/ अनाहत चक्र, वायु तत्त्व में धारणा की जाती है, किसी भावना विशेष की।   *  स्वरं,  अर्थ हुआ,   -  सक्षम ऊर्ध्वरेता निष्काम ध्यान-योगी पुरुष साधक योगाभ्यास और प्राणायाम से, इष्टदेव और ब्रह्मगुरु के अनुग्रह से, ध्यान में महेश्वर योग के अनुशीलन से अपने शुक्राणु/बिन्दु को प्रकट करता है महर्लोक में, जिसमें शब्द-ब्रह्म समाहित है।   -  यह योगी सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है सृष्टि में सृजन, संचालन और संहार करने की, किसी भी जीव या निर्जीव पदार्थ को, कहीं भी, किसी समय भी, किसी भी कालावधि तक के लिए। विशुद्धि चक्र, आकाश तत्त्व से धारणा फलीभूत की जाती है, विसर्ग के संयोग से।   ✓ व्यंजन,‌ पदच्छेद है,   व् + य् + अं (अनुस्वार) + ज् + अ + न् + अ   -  व्,  है स्वाधिष्ठान चक्र का कूट बीज वर्ण, जल तत्त्व, -  य्,  है अनाहत चक्र का कूट बीज वर्ण, वायु तत्त्व, -  अं,  है बिन्दु जिसमें सगुण ब्रह्म समाहित है, -  ज्,  है जन्म देने के संदर्भ में, -  अ,  है ज् को स्थायित्व देने के लिए, -  न्,  है बहुवचन/अनंत, -  अ,  है न् को स्थायित्व देने के लिए   अर्थ हुआ,   *  स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित किसी भाव विशेष को अनाहत चक्र में प्रकट हुए बिन्दु के अनंत में संकल्प कर उसका उपयोग करने हेतु सृष्टि में सृजन करे, संचालन करे, संहार/लोप करना।   ✓✓  शब्दब्रह्म है ‌स्वर, ऊर्ध्व शुक्राणु/बिन्दु, और व्यंजन, बिन्दु में स्थित अनंत से चयनित कोई भाव विशेष, दोनों का योग, स्वर + व्यंजन। सक्षम ध्यान-योगी शब्द-ब्रह्म का उपयोग करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है।   -  स्वर और व्यंजन का अन्योन्याश्रित संबंध है सृष्टि के संदर्भ में। स्वर मात्र भाव अभिव्यक्ति है, व्यंजन के संग अभिव्यंजना है, भाव को शब्द में रूढ़ करना है।   *  श्रीमद्भगवद्गीता (6.44) में ऐसे सक्षम ध्यान-योगी के लिए कहा गया है, श्लोक चतुर्थांश में,   "शब्दब्रह्म अतिवर्तते" अर्थात्, ध्यान-योग के अभ्यास से, श्री भगवान्/ब्रह्मगुरु/देवी के अनुग्रह से, योगी शब्द-ब्रह्म के वर्तने में सक्षम होता है, अर्थात् उपयोग करने की सामर्थ्य प्राप्त करता है।



Related Posts

img
  • मिस्टिक ज्ञान
  • |
  • 13 November 2025
काल एवं महाकाल का तात्पर्यं
img
  • मिस्टिक ज्ञान
  • |
  • 08 November 2025
शतमुख कोटिहोम और श्रीकरपात्री जी

0 Comments

Comments are not available.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Post Comment