डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक )-
यह तो हुई श्राद्ध न करने से मृत प्राणी के कष्टों की कथा। श्राद्ध न करने वाले को भी पग-पग पर कष्ट का सामन करना पड़ता है। मृत प्राणी बाध्य होकर श्राद्ध न करने वाले अपने सगे-सम्बन्धियों का रक्त चूसने लगता है-
श्राद्धं न कुरुते मोहात् तस्य रक्तं पिबन्ति ते। (ब्रह्मपुराण)
साथ-ही-साथ वे शाप भी देते हैं-
“पितरस्तस्य शापं दत्त्वा प्रयान्ति (नागरखण्ड)
फिर इस अभिशप्त परिवार को जीवन भर कष्ट-ही-कष्ट झेलना पड़ता है। उस परिवार में पुत्र नहीं उत्पन्न होता, कोई नीरोग नहीं रहता, लम्बी आयु नहीं होती, किसी तरह कल्याण नहीं प्राप्त होता और मरनेके बाद नरक भी जाना पड़ता है-
(क) न तत्र वीरा जायन्ते नारोग्यं न शतायुषः ।
न च श्रेयोऽधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धं विवर्जितम्॥ (हारीतस्मृति)
(ख) श्राद्धमेतन्न कुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते ।’ (विष्णुस्मृति)
उपनिषद्में भी कहा गया है कि-
‘देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्’ (तै०उप० १ । ११ । १)।
अर्थात् देवता तथा पितरों के कार्यों में मनुष्य को कदापि प्रमाद नहीं करना चाहिये। प्रमाद से प्रत्यवाय होता है।
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