तन्त्रशास्त्र और शरीर-विज्ञान

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  • तंत्र शास्त्र
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  • 31 October 2024
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डॉ . दीनदयाल मणि त्रिपाठी  mysticpower -  तन्त्रशास्त्र के आलोक में शरीर विज्ञान को समझा जा सकता है । तांत्रिक शरीर-विज्ञान में सर्वप्रथम पंचकोशों का वर्णन आता है । मनुष्य के पाँच प्रकार के शरीर होते हैं, जिनके द्वारा वह जीवन में समस्त क्रियाओं का सम्पादन करता है । वे हैं अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञाननय कोश और आनन्दमय कोश ।   तन्त्र के अनुसार अनमय कोश का यह भौतिक शरीर या पदार्थमय स्थूल शरीर है । तन्त्र के अनुसार इस सृष्टि में सब-कुछ पंचतत्वों  से ही निर्मित है और जिस दिन शरीर के पंचतत्व  नष्ट हो जायेंगे, शरीर अस्तित्वहीन हो जायेगा । इसी प्रकार वनस्पति, अन्न, पशु आदि सभी पंचतत्वों से बने हैं । अपने पंचतत्वों के संरक्षण के लिये, पालन-पोषण के लिये पदार्थ । शरीरधारी पंचतत्वों से ही बने हुए अन्य पदार्थों / शरीरधारियों का भक्षण करते हैं । इस प्रकार पंचतत्व से निर्मित एक पदार्थ पंचतत्व से ही निर्मित दूसरे पदार्थ का पालन-पोषण करता है । समस्त पदार्थमय जीवन अन्न के ही परिवर्तित रूप हैं । इसलिये भौतिक शरीर को अन्नमय माना गया है । अन्य विचारधाराओं और सिद्धान्तों में शरीर को विभिन्‍न उपमायें दी गई हैं । वेदान्त में इसे मांस-पिण्ड कहा गया है । अन्य सिद्धान्तों के अनुसार भी शरीर रृक्त-मांस-मज्जा से निर्मित है । इस प्रकार तांत्रिक  और गैरतांत्रिक विचारधाराओं के भाव में अंतर दिखलाई देता है ।   अनमय कोश का संचालन करने के लिये नाड़ियों का समूह है । नाड़ियों के ये समूह स्थूल और सूक्ष्म, दोनों प्रकार के हैं । इन नाड़ियों के माध्यम से अन्नमय कोश में प्राणशक्ति का संचरण होता है। अन्‍य कोश के बाद प्राणमय कोश का स्थान आता है । यह मनुष्य का सूक्ष्म शरीर है, जो ऊर्जा से निर्मित है । शक्ति की एक अभिव्यक्ति प्राणणय शरीर में दिखलाई देती है । तन्त्रशास्त्र के अनुसार प्राणमय शरीर लाल रंग का है । अन्नमय कोश के भीतर प्राणमय कोश या सूक्ष्म शक्ति की अभिव्यक्ति है । प्राणमय कोश में शक्ति का संचरण सूक्ष्म नाड़ियों के माध्यम से होता है।   तीसरा है, मनोमय कोश, जो वस्तुतः मन, बुद्धि और चित्त से बना है । यह चेतना की स्थूल अभिव्यक्ति का प्रतीक है जो चेतना का उन जगतों से सम्बन्ध स्थापित करती है । मनोमय के अंतर्गत मन की विभिन्‍न स्थितियों, विभिन्‍न भौतिक और बौद्धिक स्तरों का वर्णन किया गया है । इसके अन्तर्गत चेतना की ऐसी अवस्थाओं का भी वर्णन है, जो भोग के द्वारा, इन्द्रिय-सुख के द्वारा आकर्षित हो जाती हैं ।   चौथा कोश है विज्ञाननयय ! यह अतीन्द्रिय शरीर मनोमय कोश के भी परे है । विज्ञानमय कोश में ज्ञान और विद्या की ही अनुभूति होती है । अनेक व्याख्याकार विज्ञानमय कोश का तात्र्य बुद्धि से, बौद्धिक प्रगति या बौद्धिक विकास से लगाते हैं, किन्तु वास्तव में यह बौद्धिक है नहीं । बाह्य जगत और अन्तर्जगत के अनुभवों को पार कर स्वयं को चेतना की जिस सूक्ष्म अवस्था में स्थापित किया जाता है, वही विज्ञानमय की अवस्था है । अतीन्द्रिय होते हुए भी इन्द्रिय आकर्षण के मध्य में रहना विज्ञानमय की अवस्था है।   पांचवा या अन्तिम शरीर है, आनन्दमय कोश । इसका सम्बन्ध परा अनुभूति से है। जब मनुष्य समस्त प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है, तब इस उच्च अवस्था को प्राप्त करता है । ये पाँचों शरीर एक-दूसरे से अभिन्‍न हैं तथा नाड़ियों, प्राण और चक्रों के माध्यम से अन्तर्ग्रयित हैं।   नाड़ियाँ नाड़ियाँ सामान्यतः दो भागों में विभाजित हैं : स्थूल और सूक्ष्म । तन्त्र के अंतर्गत पांचों शरीरों को संगठित रखने के लिये साढ़े तीन करोड़ नाड़ियों का वर्णन मिलता है । इन साढ़े तीन करोड़ नाड़ियों का तात्पर्य हमारे शरीर की धमनियों, नसों या शिराओं से नहीं, वरन्‌ उन प्रवाहों, मार्गों या वाहिकाओं से है, जिनके द्वारा प्राण, अन्त:चेतना और स्थूल तथा सूक्ष्म ऊर्जाओं का संचरण होता है । इनमें से 72 हजार नाड़ियाँ तथा उन में से 72 नाड़ियाँ मुख्य मानी जाती है । पुनः 72 नाड़ियों में भी 8, अगरह में 0, और दस में 3 नाड़ियाँ क्रमशः प्रमुख मानी गई हैं । इन तीन नाड़ियों में एक नाड़ी प्रमुख्तम मानी गई है, उसे ब्रह्म नाड़ी कहते हैं, जो सुषुग्ना मार्ग के भीतर अवस्थित है। प्रमुख तीन नाड़ियों को इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना के नाम से जाना जाता है। योग दर्शन में पिंगला नाड़ी प्राणशक्ति प्रवाह का प्रतीक है । ईडा नाड़ी स्थूल और सूक्ष्म चित्त शक्ति के प्रवाह का प्रतीक है तथा सुषुम्ना इन दोनों के भीतर सन्तुलित प्रवाह का लक्षण या परिणाम है । जब इड़ा और पिंगला नाड़ियों में क्रमशः चित्त और प्राण शक्तियों का प्रवाह सम रूप से होने लगता है, तब सुषुम्ना की जागृति होती है । सुषुम्ना की जागृति के बाद ही ब्रह्मनाडी जागृत होती है ।   ब्रह्मनाड़ी और कुण्डलिनी शक्ति तन्त्र के अनुसार इन नाड़ियों की जागृति और आन्तरिक शक्ति के उत्थान से, जो अनुभूति होती है और जिसकी कल्पना मूलाधार में सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति के रूप में होती है, वह वस्तुतः ब्रह्मनाड़ी की जागृति का प्रतीक है । इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की जागृति के बाद भी जब तक सुषुम्ना में प्रबलता नहीं आती, तब तक ब्रह्मनाड़ी जागृत नहीं होती, उसमें उत्तेजना नहीं उत्पन्न होती । जिस दिन ब्रह्मनाड़ी में उत्तेजना उत्मन्‍न हो जाय, सम्पूर्ण शरीर में एक विद्युत तरंग की तरह शक्ति का उत्थान होता है । इसे ही कहते हैं कुण्डलिनी शक्ति।  



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