एक ही तत्त्व उत्पत्ति, स्थिति और संहार के लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिव- इन तीन रूपों में आया है। इस दृष्टि से ब्रह्मा को जब आयुर्वेद का आविर्भावक माना जाता है, तो रुद्र और विष्णु को भी आयुर्वेद का आविर्भावक मानना ही पड़ता है। सृष्टि के आदि में एक ऐसी घटना घटी, जिससे इस सिद्धान्त का पूरा समर्थन होता है।
इस घटना का श्रीमद्भागवत (४।१) में उल्लेख है। ब्रह्माजी ने अपने मानसपुत्र अत्रि को सृष्टि बढ़ाने के लिये आज्ञा दी। श्रेष्ठ महर्षि अत्रि अच्छी संतति हो, इस उद्देश्य से अपनी पत्नी के साथ तप करने के लिये ऋक्ष नामक पर्वत पर गये। वहाँ सौ वर्षों तक केवल वायु पीकर एक ही पैर पर खड़े होकर भगवान् की उपासना करने लगे। वे मन-ही-मन भगवान् से प्रार्थना कर रहे थे कि 'जो सम्पूर्ण जगत् के ईश्वर- जगदीश्वर हैं, मैं उनकी शरण में हूँ, वे अपने समान ही मुझे पुत्र प्रदान करें।'
तपस्या जब सीमापर पहुँच गयी, तब ब्रह्मा, विष्णु और महेश-ये तीनों देव अत्रि के आश्रम पर पधारे। अत्रि ने पृथ्वी पर लेटकर उन्हें प्रणाम किया, फिर अर्घ्य-पुष्पादि से उनकी पूजा की। इस पूजा से वे तीनों देव बहुत प्रसन्न हुए, उनकी आँखों से कृपा की वर्षा होने लगी। वे मन्द मन्द मुस्करा रहे थे, उनके तेज से महर्षि अत्रिकी आँखें मुँद गर्मी और हृदय में हर्ष का सागर लहरा गया। उन्होंने तीनों देवताओं की स्तुति की। अन्त में पूछा- ‘मैं जिन जगदीश्वर को बुला रहा था, आप तीनों में से वे कौन हैं? क्योंकि मैंने एक ही जगदीश्वर का चिन्तन किया था, फिर आप तीनों ने यहाँ पधारने की कृपा कैसे की? इस रहस्य को मैं जानना चाहता हूँ।’
इस प्रश्न को सुनकर तीनों देव हँस पड़े और बोले- 'मुनिराज ! तुम सत्यसंकल्प हो, अतः तुम्हारे संकल्प के विपरीत कैसे हो सकता है? तुम जिन जगदीश्वर का ध्यान कर रहे थे, उन्हीं जगदीश्वर की हम तीन विभूतियाँ हैं। हम तीनों ही जगदीश्वर हैं।
इस घटना से स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कोई अन्तर नहीं है इस तरह ये तीनों देवता चिकित्सा शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं। फिर भी वेद और पुराण ने भगवान् शंकर को वैद्यों का वैद्य कहा है।
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