श्री भुवनेश्वर नाथ दुबे-
Mystic Power " चरैवेति चरैवेति"चलते रहो, चलते रहो ।
ऐतरेय ब्राह्मण ७/३३
कठोपनिषद में भी कहा गया है कि-
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।।
अर्थात् उठो जागो और श्रेष्ठ प्राप्त कर रुको ।
स्वामी निवेकानन्द का भी सूत्र वाक्य था कि" awake , arise andstop not till the goal is reached " उठो, जागो और तब तक चलते रहो जब तक उद्देश्य की प्राप्ति न हो जाए ।
यह सभी वेद के इसी सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हैं कि सतत् प्रयत्नशील रहो अर्थात् चलते ही रहो ।
संस्कृत की सुक्ति भी है-
गच्छनं पिपीलिको याति योजनानां शतां गतिः।
अगच्छन् वैनतेयोअ्पि पदमेकं न गच्छति ।
अर्थात् चलती हुयी चींटी सैकडों कोस चली जाती है किन्तु बैठा हुआ गरुण भी एक पग भी नहीं जा सकता ।
उद्योगिनम् पुरुषसिंहमुपैति लछ्मीः ।
उद्यमेन हि सिद्ध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।
अर्थात् परिशंरम से ही कार्य सिद्ध होते हैं इच्छा करने से नहीं । जैसे कि सोते हुए सिंह के मुख में स्वतः शिकार प्रविष्ट नहीं होते हैं ।
श्रीमद्भागवत्गीता में कहा गया भगवान् श्रीकृष्ण का यह उपदेश विश्वव्यापी है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन् ।
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है २/४७ - श्रीमद्भागवत् गीता ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोत्स्वकर्मणि ।
इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत बन तथा तेरी कर्म न करने भी आशक्ति न बने ।
" Do thy duty reward is not thy concern "
यहाँ तक कि इसी अध्याय के ५ वें श्लोक में भगवान कहते हैं कि- " निःसन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में एकपल भी बिना कर्म किए नहीं रहता ।
८वें श्लोक में कहते हैं कि-
" कर्म न करने से तेरा शरीर- निर्वाह भी नहीं होगा ।
२२ वें श्लोक में अर्जुन से भगवान कहते हैं कि -
" हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ ।
२३ वें श्लोक में भगवान कहते हैं कि--
क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित् मैं कदाचित् कर्मों में सावधान होकर न बरतूँ तो बडा अनर्थ हो जाए , क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं ।
इसीलिए वेद में चलते रहने या कार्य करने का उपदेश दिया गया है ।
ऐतरेय ब्राह्मण की उक्त कथा में हरिश्चन्द्रोपाख्यान में कथा है कि महाराज हरिशंचन्द्र जी को पुत्र की प्राप्त नहीं हो रही थी तभी नारद जी के कहने पर उन्होंने वरुण देवता की आराधना की और पित्र प्राप्त होने पर उनके यजन करने की प्रतिग्या की । कालान्तर में पुत्र प्राप्ति के बाद हर्श्चन्द्र जी वरुणयग्य के लिए टालते रहे क्योंकि यग्य में पित्रबलि की आवश्यकता थी । अन्त में वरुण के पुनः टोंकने पर हरिश्चन्द्र ने कहा- " अच्छी बात है । आप कल्ह पधारें । सब यग्यीय ब्यवस्था हो जाएगी ।" ऐतरेय ब्राह्मण ७/३३/१४ ।
हरिश्चन्द्र ने रोहित से कहा- " तुम वरुणदेव की कृपा से मुझे प्राप्त हुए हो, इसलिए मैं तुम्हारे द्वारा उनका यजन करूँगा" किन्तु रोहित ने बात स्वीकार नहीं की और वह बन को चला गया । वरुणदेव की शक्तियों ने हरिश्चन्द्र को पकडा और वे जलोदर से ग्रस्त हो गए । पिता की व्याधि का समाचार जब रोहित ने सुना तो वह अरण्य से नगर की ओर चल पडा । परन्तु बीच में इन्द्र पुरुष का वेष धारण कर उसके सामने प्रगट हुए और एक-एक कर पाँच उपदेश पाँच वर्षों में उसे दिया और तब तक रोहित अरण्य में ही निवास करते हुए उनके उपदे श का लाभ उठाता रहा । इन्द्र के पाँच श्लोकों का वह उपदेशगीत इस प्रकार है-
" रोहित! हमने विद्वानों से सुना है कि श्रम से थककर चूर हुए बिना किसी को धन- सम्पदा प्राप्त नहीं होती । बैठे- ठाले पमरमष को पाप धर दबाता है । इनंदंर उसी का मित्र है , जो बराबर चलता रहता है - थककर , निऱाश होकर बैठ नहीं जाता । इसलिए चलते रहो ।"
" जो व्यक्ति चलता रहता है, उसकी पिण्डलियाँ फूल देती हैं( अन्यों द्वारा सेवा होती हैं) ।उसकी आत्मा वृद्धिंगत होकर आरोग्यादि फल की भागी होती है तथा धर्मार्थ प्रभासादि तीर्थों में सतत चलने वाले के अपराध और और पाप थककर सो जाते हैं । अतः चलते ही रहो ।"
" बैठने वाले की किस्मत बैठ जाती है, उठनेवाले की उठती, सोनेवाले की सो जाती है और चलने वाले का भाग्य प्रतिदिन उत्तरोत्तर चमकने लगता है । अतः चलते ही रहो ।"
" सोनेवाला पुरुष मानो कलियुग में रहता है, अँगडाई लेने वाला व्यक्ति द्वापर में पहुँच जाता है और उठकर खडा हुआ व्यक्ति त्रेता में आ जाता है तथा आशा और उत्साह से भरपूर होकर अपने निश्टचित् मार्ग पर चलनेवाले के सामने सतयुग उपस्थित हो जाता है । अतः चलते ही रहो ।"
" उठकर कमर कस कर चल पडने वाले पनरुष को ही मधु मिलता है । निरन्तर चलता हुआ ही स्वादिष्ट फलों का आननंद प्राप्त करता है ; सूरंयदेव को देखो जो सतत चलते रहते हैं, पल भर भी आलस्य नहीं करते । इसलिए जीवन मेंआध्यात्मिक मार्ग के पथिक को चाहिए कि बाधाओं सं संघर्ष करता हुआ चलता ही रहे, आगे बढता ही रहे ।"
अन्त में वन में रोहित अजीगर्त के पुत्र शुनःसेप को क्रय कर लेता है यजन के लिए और शुऩःशेप के द्वारा विश्वामित्र द्वारा बताए गए मन्त्र के जाप से शुनः शेप बँच जाता है और हरिश्चन्द्र से सन्तुष्ट होकर वरुण देवता उन्हें जलोदर रोग से मुक्त कर देते हैं और रोहित भी पूर्णतया बँच जाता है ।
वेदभगवान कहते हैं कि- " स्वस्तिपन्थामनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव " अर्थात् कल्याण मार्ग पर चलते रहो, चलते रहो - जैसे सूर्य और चन्द्र सदा चलते रहते हैं । ऐतरेय भी कह रहा है- चलते रहो , चलते रहो ।
प्रयत्न करने पर भी सफलता न मिलेतो शास्तंर कहता है कि यह देखोकि प्रयत्न में क्या कमी रह गयी?
" यत्ने क ते यदि न सिद्ध्यति कोअ्त्र दोषः" ।
जीवन के किसी भी छेत्र मेंहों सदैव प्रयत्न शील रहें ।
" Labour never goes refrain"
"परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता ।,"
सतत् नैरन्तर्य की आवश्यकता है ।
वेदवाक्य को सूत्रवाक्य बनाकर अपना जीवन सफल बनाएं ।
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